क्या कोविड-19 का अंतराल अध्यापकों के लिए नया अंधेरा लेकर आया है?


In Every Village the Torch, a teacher and an extinguisher the Priest.

Victor Hugo

महान फ्रेंच लेखक एवं कार्यकर्ता विक्टर हयूगो (1802-1885) ने पिछड़े समाजों में शिक्षा की अहमियत को लेकर बेहद मौजूं बात कही थी: “हर गांव में एक दिया, एक अध्यापक और एक बुझाने वाला, पुरोहित।“ एक ऐसे वक्त़ में जबकि तालीम का सार्वभौमिकीकरण नहीं किया गया था, वह चुनिंदा लोगों तक सीमित थी, यह छोटी सी बात बहुत कुछ कह रही थी।

वैसे तालीम की अहमियत के बारे में हम भारतीय शायद अधिक महसूस कर सकते हैं जहां सदियों से शिक्षा के दरवाजे एक बड़ी आबादी के लिए बंद ही रखे गए और धर्म एवं ईश्वर की दुहाई देते हुए कहा गया कि अगर ऐसे ‘शूद्रों-अतिशूद्रों’ ने इस दिशा में कोशिश की तो उन्हें किस तरह दंडित किया जाए। हम यह भी जानते हैं कि बस थोड़ी सी शिक्षा किस तरह लोगों को रूपांतरित कर देती है और किस तरह फातिमा शेख, सावित्रीबाई फुले के स्कूल की मुक्ता मांग नामक वह छोटी सी किशोरी इन सदियों की वंचना के खिलाफ डंके की चोट पर विद्रोह कर देती है।

वैसे 19वीं सदी के अंत में लिख रहे विक्टर हयूगो को ऐसी संभावित परिस्थिति का तसव्वुर नहीं करना पड़ा होगा जब पुरोहित खुद सत्ता की बागडोर हाथ में थाम लेता है और जब एक संन्यासी ही शासक बन जाता है और अगर ऐसा हो तो इसका शिक्षा पर, शिक्षक पर क्या असर पड़ता है।

भारतीय संघ के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश- जिसकी आबादी 20 करोड़ को पार कर गयी है और फिलवक्त़ जिसकी अगुआई योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरक्षनाथ पीठ के महंत भी हैं- के सूरते हाल को देखें तो इसकी थोड़ी-थोड़ी झलक मिल जाती है।

पिछले दिनों उत्तर भारत के एक अग्रणी हिंदी अख़बार ने इस बात का उद्घाटन किया कि किस तरह प्रदेश में जारी पंचायत चुनावों में डयूटी के दौरान कोरोना से संक्रमित होकर 135 शिक्षक, शिक्षामित्र और अनुदेशक काल कवलित हो गए हैं। अध्यापकों के संगठन के अग्रणी के मुताबिक इन पंचायत चुनावों के प्रशिक्षण से लेकर विभिन्न चरणों में संपन्न चुनावों में हजारों शिक्षक एवं शिक्षामित्र संक्रमित हो गए हैं, बाद में जिनकी मौत हुई। मालूम हो कि इन चुनावों के नतीजे कल आने वाले हैं।

यह जानना विचलित करने वाला हो सकता है कि कोविड संक्रमण के दर में तेजी आने के बावजूद सरकार ने यह भी जरूरी नहीं समझा कि इन सभी शिक्षकों, शिक्षामित्रों को- जिनकी चुनाव में डयूटी अनिवार्य लगायी गयी है- उन्हें कोविड का टीकाकरण किया जाए। शिक्षक संगठनों की तरफ से यह सरल मांग महीनों से उठायी जा रही थी। बात वैसे भी तर्कपूर्ण है। अगर एक डॉक्टर, नर्स, पुलिस कर्मचारी को- जिनका जनता से संपर्क होता रहता है- फ्रंटलाइन वर्कर की श्रेणी में डाल कर उनका टीकाकरण किया गया तो आखिर शिक्षकों, शिक्षामित्रों, अनुदेशकों को इस सूची से बाहर क्यों रखा गया जो छात्रों के साथ अंतर्क्रिया करते हैं और लॉकडाउन के बाद सरकारी कामकाज के तौर पर राहत तथा अन्य कामों में मुब्तिला रहे हैं?

ध्यान रहे, जहां कार्यपालिका ने अध्यापकों की शिकायतों को नज़रअंदाज किया वहीं न्यायपालिका ने अख़बार में छपी उपरोक्त रिपोर्ट का तुरंत संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश राज्य चुनाव आयोग को तत्काल एक नोटिस भेजा और उनसे यह स्पष्टीकरण मांगा कि उन्होंने कई चरणों में संपन्न चुनावों के दौरान कोविड से जुड़ी सावधानियों का ध्यान क्यों नहीं रखा? और इस संबंध में क्यों नहीं राज्य चुनाव आयोग पर कार्रवाई होनी चाहिए और क्यों नहीं संबंधित चुनाव अधिकारियों पर मुकदमे कायम होने चाहिए? राज्य चुनाव आयोग को यह स्पष्टीकरण दिया गया है कि वह 2 मई तक अदालत में हाजिर हो।

चुनाव में तैनात शिक्षकों के प्रशिक्षण से लेकर चुनाव किस तरह संपन्न कराए गए, अगर किसी ने इन्हें देखा होता तो वह बता सकता है कि राज्य चुनाव आयोग के अधिकारियों ने इन चुनावों के दौरान कितनी लापरवाही एवं बेरुखी का परिचय दिया। प्रशिक्षण के दौरान एक ही बेंच पर तीन-तीन अध्यापक बिठाए जाते थे और पूरे क्लास में पचास-साठ बच्चे बैठते थे। जाहिरा तौर पर एक बेंच पर अगर तीन अध्यापक बैठ जाएं तो कोविड प्रोटोकॉल की बात करना भी हास्यास्पद हो सकता है। यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर कोविड की दूसरी ख़तरनाक लहर का पता लगने के बावजूद आखिर पंचायत चुनावों को इसी समय क्यों कराया गया? क्यों नहीं उन्हें अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया गया?

वैसे यूपी के मुखियाओं को मात्र क्या दोष दिया जाए, देश के कर्णधार से लेकर उनके तमाम पार्टीजनों की तरह की ओर से यही आवाज़ उठ रही थी कि ‘युगपुरूष मोदी जी नेतृत्व में कोरोना पर विजय हासिल की जा चुकी है।’ और अपनी पीठ थपथपाने का यह काम जारी ही था और इस सबके बावजूद संसदीय समिति ने अक्तूबर 2020 में ही इस बात के प्रति आगाह किया था कि किसी भी तरह की गफलत में हमें नहीं रहना चाहिए और आने वाली दूसरी लहर अधिक खतरनाक होगी और उसकी तैयारी अभी से करनी चाहिए।

अगर सरकारों के मुखिया इस आसन्न संकट को भांप नहीं पाए और अपने में मशगूल रहे, वहीं यह तथ्य भी बहुत कुछ सूचित करने वाला था कि जब खुद लखनऊ में ऑक्सीजन की कमी की बात तेज़ हुई, कई अस्पतालों ने अपने यहां इसके बारे में बोर्ड भी लगाए, कोविड से वास्तविक मरने वालों की संख्या और सरकारी बुलेटिन में प्रस्तुत किए जा रहे आंकड़ों में बार-बार फर्क दिखाई दिया, इसके बावजूद संकट के न रहने का ही दावा किया गया और यह धमकी भी दी गयी कि अगर उन्होंने ऐसी बातें सोशल मीडिया पर फैलायीं तो इसके खिलाफ मुकदमा कायम होगा और उनकी संपत्ति भी जब्त की जाएगी।

अनु सिंह (बदला हुआ नाम), जो वाराणसी के एक सरकारी स्कूल में अध्यापन करती हैं, उन्हें अब यह लगने लगा है कि वह खुद भी जल्द कोरोना की भेंट चढ़ जा सकती है और इस सिलसिले की 136वीं शिकार हो सकती हैं। उनके पति और उनका बेटा कोरोना पॉजिटिव हैं और वही एकमात्र हैं जो होम क्वारंटाइन रह रहे इन दोनों की सेवा में हैं। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि 2 मई को इन चुनावों के नतीजे भी आएंगे जब उनकी गणना होगी, उन्होंने अपने लिए उस दिन आने से राहत मांगी हैं। संबंधित अधिकारियों एवं जिले के अग्रणी अधिकारी को लिखे एक पत्र में उन्होंने अपने गिरते स्वास्थ्य का हवाला दिया है। अनु सिंह को इस बात का भी डर है कि अगर उन्‍होंने डयूटी पर पहुंचने में लापरवाही बरती तो उन्‍हें सरकारी अमले की प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा।

निश्चित ही इस पीड़ा से गुजर रहीं अनु सिंह अकेली अध्यापिका नहीं हैं। जौनपुर के एक सरकारी स्कूल में अध्यापनरत कुसुम शुक्ला (बदला हुआ नाम) जिन्हें खुद भी चुनावों में डयूटी करनी पड़ी है, वह अब भी उस अनुभव को भूल नहीं सकी हैं। उन्हें याद आ रहा है कि किस तरह उन्हें दिन भर गांव में बने बूथ पर रहना पड़ा था, जहां वोट पड़ने थे और किस तरह पुलिस ने इस बात का तनिक ध्यान नहीं रखा कि कोविड अनुकूल व्यवहार को सुनिश्चित किया जाए और किस तरह लोग न केवल बिना मास्क के वहां मौजूद थे बल्कि वहीं पूरा मजमा लगाए हुए थे।

मतदान भले ही पांच बजे शाम तक खतम हो गया हो, लेकिन सारा काम समेटते हुए तथा मतदान पेटियां सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा कर अपने अपने घरों को पहुंचते हुए उन्हें रात के बारह बज गए थे। उन्हें अपने अल्पसंख्यक समुदाय की उन सहयोगियों की अधिक चिंता थी जिन्हें बिना कुछ खाये-पीये दिन भर डयूटी करनी पड़ी थी क्यों रमज़ान के महीने में वह सुबह कुछ खाकर आयीं थी और काम की आपाधापी में रोज़ा खोलने का भी उन्हें अवसर नहीं मिला था।

अब जबकि तमाम शिक्षक, शिक्षामित्र इसी चुनावी कवायद में काल कवलित हो गए हैं, साधारण लोग भी पूछ रहे हैं कि सुपर स्प्रेडर बने ऐसे आयोजन को इसी समय करना क्यों जरूरी था? अध्यापक संगठनों की तरफ से यह मांग की गयी कि मृतक शिक्षक, शिक्षामित्रों के परिवारों को पचास लाख रूपए का मुआवजा दिया जाए और उनके आश्रितों का नौकरी दी जाए। यह कहना मुश्किल है कि सरकार क्या करेगी, लेकिन उम्मीद तो बेहद कम है।

ध्यान रहे कि यूपी की सरकार चुनाव डयूटी के दौरान आतंकी हमले, विस्फोट या मतदान में बूथ कैप्चर की घटनाओं से जुड़ी हिंसा के मामले में मारे जाने वाले चुनाव अधिकारियों को 50 लाख रूपए का मुआवजा देती है, अलबत्ता उसने इस सूची में कोविड संक्रमण से मारे जाने की बात को अभी तक शामिल नहीं किया है। इस मामले में राजस्थान और बिहार जैसे राज्यों ने मुआवजे के लिए कोविड संक्रमण से मौत को भी आधार बनाया है और जिसके तहत वह कर्मचारियों को तीस लाख रूपए मुआवजा देती हैं।

यह बात भी चिंतित करने वाली है कि कोविडकाल के दौरान डयूटी में संक्रमित होकर मरने वाले अध्यापकों की परिघटना महज यूपी तक सीमित नहीं है। यह परिघटना देशव्यापी है। द टेलिग्राफ की एक रिपोर्ट केन्द्र सरकार द्वारा संचालित केंद्रीय विद्यालय संगठन और नवोदय विद्यालय समिति के स्कूलों में पिछले माह में कोविड से संक्रमित और काल कवलित तमाम शिक्षकों की बात बताती है। उनके एक अगुवा ने अख़बार को यह भी बताया कि केंद्रीय विद्यालय के तीन इलाकों दिल्ली, वाराणसी और देहरादून में कम से कम 14 शिक्षक इस दौरान मर गए हैं और अगर समूचे केन्द्रीय विद्यालय संगठन की बात करें तो ऐसे 25 इलाके  हैं।

इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि पिछले सप्ताह तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन के चालीस हजार से अध्यापक स्कूल में ही ऑनलाइन क्लास लेने के लिए आते थे। कोविड संक्रमण की दूसरी लहर की तेजी के बाद ही इन अध्यापकों को घर से ही ऑनलाइन क्लास लेने की सुविधा दी गयी है, अलबत्ता ऐसे अध्यापक जिनकी एडमिशन के काम में डयूटी लगी है तथा जिन्हें अन्य ऑफिशियल काम करने पड़ते हैं उन्हें तो स्कूल आने से मुक्ति नहीं है और वहां संक्रमित होने से भी।

इस रिपोर्ट के मुताबिक ‘नवोदय विद्यालयों की स्थिति तो इससे भी बुरी है’ (वही)। एक स्थूल अनुमान के हिसाब से कम से कम 650 नवोदय विद्यालय चल रहे हैं जो गरीब तथा प्रतिभाशाली छात्रों को गुणवत्ता वाली आवासीय शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। स्रोतों के मुताबिक, ‘‘इस दौरान सैकड़ों छात्रा कोविड से संक्रमित हुए है तथा विगत एक माह में ही कई अध्यापक गुजर गए हैं।‘’ (वही)

फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि केंद्र और राज्य सरकारें कोविडकाल में शैक्षिक तथा शिक्षेतर अन्य कामों में अध्यापकों एवं अन्य शिक्षाकर्मियों की मौत पर गौर करेंगी या नहीं। क्या वह समस्या की गंभीरता का एहसास करेंगी कि एक संक्रमित अध्यापक किस तरह अपने संपर्क में आने वाले तमाम अन्य लोगों- अध्यापकों, कर्मचारियों, छात्रों को- संक्रमित कर सकता है।

वैसे अपनी डयूटी निभाने के दौरान शिक्षकों, शिक्षामित्रों आदि की कोविड संक्रमण से हो रही मौतों को हल्के में नहीं लेना चाहिए, वह एक राष्ट्रीय सरोकार का विषय बनना चाहिए। एक अध्यापक की मौत महज एक मनुष्य की मृत्यु नहीं होती। वह न केवल उसके अपने आत्मीयजनों पर मानसिक आघात पहुंचाती है, उनकी आर्थिक विवंचनाओं में बढ़ोतरी करती है बल्कि वह उन तमाम बच्चों को भी अंदर से प्रभावित करती है जिन्हें वह पढ़ा रहा होता है, जिनका भविष्य बना रहा होता है। अधिकतर मामलों में आप पाएंगे कि बच्चे अपने शिक्षक से गहरे आत्मीय तौर पर जुड़ते हैं, उनका अनुकरण करने की कोशिश करते है।

ऐसी मौतें– कम से कम फौरी तौर पर- भारत जैसे मुल्क में पहले से विषम चल रहे अध्यापक-छात्र अनुपात को प्रभावित करती है और वह स्कूलों से छात्रों के ड्रॉप आउट रेट अर्थात स्कूल छोड़ने की दर को भी प्रभावित करती है। जब तक यह सिलसिला चलता रहेगा कि कक्षाओं में कम अध्यापक दिखाई देंगे और एक ही अध्यापक को एक से अधिक कक्षाएं चलाने के लिए कहा जाएगा, तो तयशुदा बात है वह छात्रों के उत्साह को प्रभावित करेगा, जो निश्चित ही जनतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा। 


सुभाष गाताड़े वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक हैं

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