कोविड-19 महामारी की वजह से दुनिया भर में लॉकडाउन की नौबत आ चुकी है। ज्यादातर देश लॉकडाउन में हैं जिसका प्रभाव सबसे अधिक मजदूर, किसान आदि पर पड़ा है। भारत में 25 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा की गयी थी जिसके बाद से शहरों से गांवों की ओर पलायन लगातार जारी है। सरकार की लापरवाही के चलते लाखों मजदूर भूखे-पेट हजारों किलोमीटर पैदल चलने को विवश हैं।
इस बीच अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने कोविड-19 रोजगार सर्वेक्षण किया है। 12 मई को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए युनिवर्सिटी ने कहा कि कोरोना-तालाबंदी के चलते रोजगार और आजीविका पर पड़े असर और इससे राहत पाने के लिए घोषित योजनाओं को समझने के लिए अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने भारत के 12 राज्यों में लगभग 4000 लोगों का विस्तृत फ़ोन सर्वेक्षण किया है। इस सर्वेक्षण में दस सिविल सोसाइटी संगठनों ने यूनिवर्सिटी का सहयोग किया है। सर्वेक्षण पर युनिवर्सटी ने एक वेबिनार भी किया है जिसे नीचे देखा जा सकता है।
यह सर्वेक्षण आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र (पुणे), ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में किया गया है। सर्वे में स्व-रोजगार, दिहाड़ी मजदूर और नियमित वेतन/वेतनभोगी कर्मचारियों की स्थिति का अध्ययन किया गया है।
सर्वेक्षण के अनुसार, लॉकडाउन की वजह से 67 प्रतिशत श्रमिकों ने अपना रोजगार खोया है। इसका प्रभाव शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक देखने को मिला जहां 80 फीसदी यानी 10 में से 8 लोगों का रोजगार चला गया। इनमें 84 फीसदी स्व-रोजगार, 81 प्रतिशत कैज़ुअल श्रमिक तथा 76 फीसदी नियमित वेतनभोगी शामिल हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा थोड़ा कम होकर 57 फीसदी यानी 10 में से 6 अनुपात में रहा जिसमें 47 फीसदी स्व-रोजगार, 66 फीसदी कैज़ुअल श्रमिक तथा 62 फीसदी नियमित वेतनभोगी हैं।
एक अन्य आंकड़ा उन किसानों पर जारी किया गया, जो अपनी फसल को वास्तविक कीमतों पर बेचने में असफल रहे हैं। 331 लोगों के बीच किये गये फ़ोन सर्वेक्षण में 89 फीसदी ऐसे किसान मिले हैं, जिन्हें उचित कीमत से कम में अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। इसमें 91 फीसदी शहरी किसान हैं जबकि 88 फीसदी ग्रामीण।
दूसरी ओर, 51 प्रतिशत ऐसे दिहाड़ी श्रमिक हैं जिन्हें या तो कम मजदूरी मिली या बिलकुल भी नहीं मिली। ऐसे दिहाड़ी श्रमिकों में 57 फीसदी शहरी हैं, जबकि 43 फीसदी ग्रामीण हैं। स्व-रोजगार करने वाले (जिनके पास रोजगार था) की औसतन साप्ताहिक आय 2240 रुपये से गिर कर 218 रुपये हो चुकी है, जो लगभग 90 फीसदी की गिरावट है। कैज़ुअल श्रमिकों (जिनको रोजगार मिला) की औसत साप्ताहिक आय 940 रुपये से गिर कर 495 रुपये हो चुकी है। यह 47 प्रतिशत की गिरावट है।
लॉकडाउन की वजह से परिवारों पर पड़े प्रभाव को देखें तो सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग आधे यानी 49 फीसदी परिवारों ने बताया कि उनके पास एक सप्ताह के लिए आवश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं। 74 फीसदी ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने पैसों के अभाव में पहले की तुलना में कम खाद्य पदार्थों की खरीदारी की है, जिसमें 80 फीसदी शहरी परिवार हैं जबकि 70 फीसदी ग्रामीण परिवार।
इसी सर्वेक्षण के अनुसार, कुल 77 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके पास अगले महीने का किराया देने तक का पैसा नहीं है, जिसमें 86 फीसदी शहरी और 54 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग हैं। जबकि 34 फीसदी (जिसमें 43 फीसदी शहरी और 34 फीसदी ग्रामीण) ऐसे लोगों को भी चिह्नित किया गया जिन्होंने अपने आवश्यक खर्चों के लिए दूसरों से पैसे उधार लिए।
यह सर्वेक्षण अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट ने 13 अप्रैल से 9 मई के बीच में किया है, जो 12 मई को सार्वजनिक किया गया।
इसके साथ ही, टीम ने वर्तमान स्थिति से उबरने के लिए कई उपाय भी सुझाये हैं। इसमें पीडीएस प्रणाली को सार्वभौमिक बनाये जाने और विस्तारित राशन को कम-से-कम अगले छह महीनों के लिए बांटने के साथ दो महीने के लिए कम से कम 7000 रुपये प्रतिमाह का कैश ट्रान्सफर किये जाने के सुझाव शामिल हैं। अर्थव्यवस्था में मांग (डिमांड) को वापस लाने के लिए इ न कदमों की आवश्यकता है। सुझावों में मनरेगा का विस्तार तथा शहरी रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत भी शामिल हैं।
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