बारह साल की जमलो मकदम के परिवार को हम क्या समझा सकते हैं? क्या विवरण और स्पष्टीकरण दे सकते हैं उसके अंत का?
जमलो, एक आदिवासी बालिका, तेलंगाना में मिर्चों के खेतों में काम करती थी। मूल रूप से वह छत्तीसगढ़ की थी। जब लॉकडाउन हुआ तो उसका काम बंद पड़ गया। निर्वाह के लिए कोई रास्ता, कोई आय नहीं थी, तो कुछ सहकर्मियों के साथ वह वापिस अपने गांव को चल पड़ी। कहते हैं कि पुलिस के डर से उन्होंने मुख्य सड़क का रास्ता छोड़ कर जंगलों और ऐसी बीहड़ इलाकों से रास्ता चुना। उनके पाँव में ज़ख्म हो गए और उन्हें कुछ खाने पीने को भी ठीक प्रकार से प्राप्त न हुआ। अपने घर से करीब 50 किलोमीटर दूर जमलो ने अपना दम तोड़ दिया।
यह एक अत्यंत मार्मिक और दुखद घटना है, लेकिन हम सबको मालूम है कि ऐसे किस्से बहुत घटित हुए जब प्रवासी मेहनकश लोग वापिस अपने घरों को जा रहे थे। कुछ को हाइवे किनारे ट्रकों ने कुचल दिया। कई बस-ट्रक चढ़ते-चढ़ते ही गिर पड़े। कोई ट्रेन की पटरियों पर, जहाँ क्षण भर को थक-हार कर सर रखा था, वहीँ शहीद हो गए।
देश का नागरिक इन त्रासदी के उदाहरणों का कैसे मूल्यांकन करे? कैसे अपने-अपने ज़मीर से एक वार्तालाप करे? किस प्रकार से किसी बृहत् व्याख्या और रूपरेखा में इन किस्सों के मायने को खोजे?
किसी ने इन हादसों की ज़िम्मेदारी अभी तक नहीं ली है। तकनीकी रूप से लॉकडाउन चल रहा था और आदेश यह थे कि सारे नागरिक लॉकडाउन के नियमों का पालन करें – यानी अपने अपने इलाके में रहें। तो इस बिंदु के मुताबिक जो लोग हाइवे पर या किसी अन्य रास्ते पर चल रहे थे वह उन नियमों का उल्लंघन कर रहे थे। जो जोख़िम था वह उन्होंने ख़ुद जानते हुए उठाया था। तो उन ‘गैर-कानूनी’ कदमों के लिए वे निजी रूप से ही जिम्मेदार थे।
ऐसे कानूनी अतिक्रमण के लिए सरकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं है- ऐसा इंगित किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी टिपण्णी में कहा कि अगर लोग ऐसे ही पैदल चलते रहेंगे तो उनको कैसे रोका जाये। यानी जोखिम उन्हीं के सर पर मढ़ा जायेगा और इसमें सरकार का क्या दोष?
क्या इसी प्रकार से, एक तकनीकी बारीकी और एक छल की आड़ में, सब अपनी जिम्मेदारी से मुकर जायेंगे? और हमें यह सोचने पर मजबूर कर देंगे कि जमलो जैसे नागरिकों ने स्वयं ही अपनी लापरवाही से अपनी जान गंवा दी?
क्या हम कम से कम पारिस्थितिक शक्तियों को और मजबूर-करने वाले हालात की भूमिका को अपने आकलन में ला सकते हैं ? क्या हम कम से कम जो तात्कालिक और निकटतम आरोप लगाया गया है- लोगों द्वारा लॉकडाउन उल्लंघन- उससे दो कदम पीछे हटकर उसकी पृष्ठभूमि को नहीं देख सकते हैं? एक आपद स्थिति की घोषणा हुई एवं उसके कदमों पर एक कठघरे-समान लॉकडाउन घोषित किया गया। इस लॉकडाउन का कार्यान्वन बिना आम लोगों से सलाह-मशविरे के हुआ।
तो उन प्रशासनिक अंशों और एक्शन्स को कैसे एक ढांचे में लगाएं जो एक अकेले नागरिक से बड़ा हो लेकिन उसके जीवन को अस्त-व्यस्त करने की अपार शक्ति रखता हो? उस ढाँचे को क्या हम उसके नाम से पुकार सकते हैं? जैसे रोहित वेमुला की हत्या को संस्थागत हत्या कहा गया था? क्या हम एक बड़ी राजनैतिक और आर्थिक संरचना- स्ट्रक्चरल कारणों- को किसी कठघरे में बुला सकते हैं?
विकल्प क्या है? क्या हम भी अन्य लोगों की तरह और खासकर सरकारी पदधारियों की तरह इसे भूलकर, नज़अंदाज़ कर, एक कृत्रिम उपेक्षा-भाव धारण कर आगे बढ़ जाएँ? तो किस तरह के समाज का उदहारण होंगे हम, जो अपने सर्वहारा बहनों और भाइयों के साथ नाइंसाफी को अनदेखा कर देता है? जब इस देश के कई महानुभवों ने करुणा और मैत्री की शिक्षा दी, तो हम सब कुछ ठुकराते हुए एक स्वार्थपूर्ण समाज में फिर से जा मिलें?
इतने मेहनतकश नागरिकों को एकदम से अपनी ज़िन्दगी में भूचाल प्रतीत हुआ और उनकी बसी-बसाई ज़िन्दगी- छह महीने की या फिर छह साल की – रातो-रात उजड़ गयी एक बाहरी कारण और निर्देश से। क्या आपातकालीन स्थिति में किसी की ज़िन्दगी इस प्रकार से अस्थिर की जा सकती है? खासकर एक मुक़म्मल चेतावनी व जानकारी के बिना? यह खासकर तब, जब आपातस्थिति में भी काफी गुंजाइश थी कि लोगों के साथ कुछ विमर्श किया जाये। आखिरकार एक ट्रायल के रूप में एक दिन के कर्फ्यू से पहले तो चार दिनों का नोटिस दिया गया था।
उसी क्षण कोई बाढ़ तो आने नहीं वाली थी जिसका सरकार को तभी ज्ञात हुआ! तो हमारे प्रवासी मेहनकश वर्ग पर क्या बीतेगी- उस जानकारी की अवहेलना यह एक प्रकार की प्रशासनिक अवज्ञा थी जो मात्र निंदनीय या अफ़सोसनायक बात नहीं बल्कि लोगों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ जैसा आपराधिक कृत्य भी है।
एक वैधानिक विश्लेषण से जैसे-जैसे हम जूझें, साथ में हमें यह भी सोचना होगा कि क्या हम नैतिकता के सवाल पर भी अमल कर सकते हैं? कानूनी तौर पर तो अभी तक इन सब मुद्दों पर बात ही नहीं छिड़ी है। हाँ, कुछ राजनीतिक नेताओं ने ज़रूर सरकार पर इन मौतों के आरोप लगाए थे और कहा था कि लोगों के जीवन में अफरा-तफरी पर सरकार ही जवाबदेह है। लेकिन किसी ने इसके आगे कोई ठोस कदम नहीं सुझाये।
नैतिकता की बात छेड़ी जाय तो मसला मानो एक अवैज्ञानिक, अस्पष्ट से इलाके में चला जाता है। फिर भी हरेक समाज में नैतिकता, भलमनसाहत, उसूलों का एक ताना-बना होता है। अधिकतर यह अलिखित होता है, यह व्यावहारिक ज़्यादा होता है।
इन्साफ की सामाजिक अवधारणा के भीतर सामाजिक धारणाएं, आम समझ एवं रीतियाँ; लोगों का आचरण (सदाचार); और एक आत्मतुष्टि- यानी अपने अंतःकरण में तृप्ति, संतोष और संतुलन की भावना का होना एक आदर्श माना गया है। इस तकनीकी परिभाषा के परे नैतिकता एक समाज में जिम्मेदारी, ईमानदारी, संवेदनशीलता और एक मौलिक मनुष्यता के लक्षणों और गुणों का प्रतीक और प्रतिरूप भी है।
किसी भी वारदात या स्थिति के सन्दर्भ में निम्न प्रश्न हम खुद से पूछ सकते हैं या यह प्रश्न स्वयं ही उभर सकते हैं- क्या यह वारदात समरसतापूर्ण और सामंजस्य से संपन्न हुई या नहीं? क्या इसमें मेरा, मेरे महकमे का या मेरी अवस्था या मेरे ओहदे की कोई भूमिका और दायित्व है? क्या मैं किसी भी तरह से इस प्रसंग का भागीदार हूँ? प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से? इस प्रकार के प्रश्न एक नैतिक विचारधारा या फिर साधारण से मनन-चिंतन का उद्भव हो सकते हैं।
पर ऐसा लग नहीं रहा है की किसी के ज़हन में ये सवाल पैदा हुए हैं, खासकर उन लोगों के जिनकी प्रसाशनिक जिम्मेदारियाँ देश की जनता के प्रति हैं।
कई लोगों ने सुना होगा कि एक ज़माना था कि कोई रेल दुर्घटना होती तो रेल मंत्री नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया करते थे। अभी हाल में एक IAS अफसर कन्नन गोपीनाथन ने अपने पद से इस्तीफा दिया, कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने को लेकर। उन्हें सरकार का वह कदम सही नहीं लगा; अपनी अंतरात्मा में उन्हें बेचैनी हुई कि वे उसी सरकार के मुलाज़िम हैं जिसने आम कश्मीरियों को एक और यातना दी है। वह एक कथित आततायी से अपना सम्बन्ध तोड़ना चाहते थे और उन्होंने वह सम्बन्ध इस्तीफे के माध्यम से विच्छेद किया। उनके लिए सरकारी सम्बन्ध कायम रखना एक नैतिक सवाल था।
डॉकटरों को जो “हिप्पोक्रेटिक ओथ” दिलवाई जाती है- उनके सर्विस में जाने से पहले लिया जाने वाला संकल्प जिसके अंतर्गत डॉक्टर दुनिया में जाकर मरीजों का इलाज करते हैं- वह एक नैतिक शपथ और समझ है कि वे किस प्रकार से अपना महत्वपूर्ण जीवन-रक्षात्मक काम निभाएंगे। इसी तरह जनता द्वारा चुन कर विधायिका में भेजे गए जन प्रतिनिधि भी जनता के प्रति एक शपथ लेते हैं। वह भी एक नैतिक अभिव्यक्ति है उनकी ज़िम्मेदारी की। हमारा समाज ऐसी कई नैतिक मूल्यों, भरोसों और विश्वासों की नीव पर खड़ा है। इसमें इंसानियत की स्वाभाविक परस्परता है।
प्रासिद्ध पत्रकार पी साइनाथ ने हाल में लिखा है कि प्रवासी मेहनतकश वर्ग को हमारी सहानुभूति नहीं, न्याय चाहिए। पर यह भी एक तथ्य है कि बिना संवेदनशीलता के न्याय की लड़ाई माक़ूल जोश और रोष से नहीं लड़ी जा सकती।
अंग्रेजी में जब कोई किसी घटना पर कहता है कि ‘नॉट ऑन माय वॉच’ (not on my watch) तो उसका तात्पर्य होता है कि मेरी देखरेख में, मेरी निगरानी में, मेरे जिम्मे कोई प्रतिकूल घटना नहीं होगी या मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। अगर कोई दुखद घटना हुई तो एक स्वाभाविक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है, ‘ऑन हूज वॉच’? किसकी निगरानी में यह हुआ? किसके जिम्मे के अंतर्गत? किसकी चौकीदारी के वक्त?
क्या हमारा समाज यह नैतिक सवाल पूछेगा? क्या समाज के चौकीदार इस सवाल का नैतिक जवाब देंगे?
उमंग कुमार दिल्ली एनसीआर स्थित लेखक हैं
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