लॉकडाउन का ‘मरदाना’ सौंदर्यशास्त्र और बालकनी में गौरैया


कोरोना है, लॉकडाउन है, तबलीगी हैं, थूक है, हिंदुत्व है, नेटफ्लिक्स है और इन सबके बीच है फेसबुक और ट्विटर या कि सोशल मीडिया।

लॉकडाउन-1 के दौरान, बाद और अब लॉकडाउन-2 में नॉस्टैल्जिया की ख़तरनाक इबारतें लिखी जा रही हैं! उदासी भरे अफ़साने रचे जा रहे हैं। बेहद ओवर-रेटेड, ओवर-प्राइस्ड और ख़तरनाक तरीके से उबाऊ रोमैंटिक गल्प रचे जा रहे हैं। ठीक केरला (सनद रहे, केरल नहीं) के बैकवाटर्स की तरह या रूसी समोवार, वोदका और गुलूबंद की तरह। या फिर आज की भाषा में कहें तो मोहक अटल बिहारी, नानाजी देशमुख और गोविंदाचार्य के स्वदेशी या भारतीय जनता पार्टी की ही तरह।

लॉकडाउन के रूमान का आलम यह है कि मेरे वैसे मित्र जो वर्षों से बेरोजगारी की वजह से  लगातार घर पर ही जमे हैं, वे भी अपनी फोटू चेंपकर लिख दे रहे हैं- फीलिंग ग्रेट विद फैमिली, वर्किंग फ्रॉम होम। हैशटैग- हैप्पी फैमिली

पहले वाले गॉडफादर डॉन कोर्लियोन यानी मार्लेन ब्रान्डो होते तो कहते कि इस लॉकडाउन में पूरा हिंदुस्तान ही मरदाना हो गया है। याद करिए सन् 72 में आयी गॉडफादर में उनका डायलॉग- “जो आदमी अपने परिवार के साथ वक्त बिताता है वही सच्चा मर्द होता है।”

आइए, इन सच्चे मर्दों नज़र से दुनिया को देखते हैं। मेरे एक मित्र परसों फोन पर भावरुद्ध कंठ से बोले, ‘बॉस, मेरी बालकनी में गौरैया आयी है। मैंने उसके लिए चना और पानी रखा है।’ मैंने कहा- हे गर्दभराज, गौरैया को चना देने वाले आप महापुरुष ही जीवंत डिवाइन कॉमेडी हैं।

वैसे, इसका बेचारी चिड़िया से कोई लेना-देना भी नहीं है। वह तो वहीं थी, मित्र वहां नहीं थे। अब, घर पर रहते हुए बीवी की सूरत से बोर हो गए, तो बालकनी में भी ठहर गए। चीजों को देखने लगे। ओशो के शब्दों को उधार लें तो उन्हें ‘दृष्टि’ मिल गयी। दृष्टि मिली तो बालकनी में अचानक गौरैया आ गयी!

इतने तक तो फिर भी ठीक था। गौरैया को देखकर अहा-अहा करने में दिक्कत नहीं है। कोरोना के बाद दुनिया चाहे कितनी ही बदल जाए लेकिन गौरैया, घोड़ा नहीं बन जाएगी। घोड़ा, घोड़ा है। गौरैया, गौरैया। नॉस्टैल्जिया का मारा वह मित्र क्या करे। उसकी तो आंख ही चालीस वर्षों में पहली बार खुली है कि गौरैया की चोंच में उसे घोड़े का मुंह दिख रहा है।

ऐसे मित्रों को देखकर पत्रकारिता का अपना अतीत याद आता है। तमाम लोग ऐसे थे, जो काम का रोना ही रोते रहते थे- ‘बहुत काम है यार, एकदम जीवन बर्बाद हो गया।’ उन्हीं के बीच हम जैसे कुछ थे, जिनके पास खास काम नहीं था क्योंकि दफ्तर में काम के बोझ के मुकाबले मिलने वाला समय दोगुना होता था। ऑफिस में दो-तीन घंटे हम काम करते थे, बाकी पांच-छह घंटे कैसे बिताएं, यह संकट हो जाता था।

दूसरी तरफ काम के बोझ के जो मारे थे, वे टाइम्स जैसे ग्रुप तक में काम कर के खुश नहीं थे। एक तो हिंदी के नाम पर आधी अंग्रेजी लिखनी थी। न भाषा की चिकचिक, न अनुवाद की झिकझिक। फिर भी दोस्त आते ही रोने लगते थे। कई शामों की शराब का मजा ऐसे ही मजनुओं ने किरकिरा किया है, जो अब सच्चे मरद बनकर गौरैयों को निहार रहे हैं।

भाई लोग जालंधर से धौलाधार पहाड़ियों की फोटू चेंप रहे हैं। बिहारी भाई लोग गंगा नदी में सोंस की फोटो भेज दे रहे हैं। तथाकथित न्यूज चैनल वाले हरिद्वार में गंगा के पानी से आचमन हो सकता है, यह बता रहे हैं।

मेरे एक दोस्त ने बहुत सही काम किया। उसने जालंधर वाली फोटो के पीछे शायद थाइलैंड या कनाडा की फोटू लगा दी औऱ लिख दिया- एक महीने में आसमान इतना साफ है कि अब तो दूसरा देश भी दिख जा रहा है।

इस लॉकडाउन में लोग किन चीजों का जश्न मना रहे हैं? ये भारत है भाई। यहां दो बच्चों के बाप बन चुके आदमी को भी अपने बाप के सामने बोलने की हिम्मत नहीं होती। लोग लॉकडाउन के पहले भी घरेलू थे (और जो नहीं थे वे अब भी नहीं हैं) और अब भी हैं। अमेरिका में जो मेरे दोस्त हैं, वे अपने बेटे-बेटियों को जब न तब दुखहरन सिंह से भेंट करवा देते हैं, जबकि वहां शायद इस मामले पर जेल-वेल भी हो जाती है (दुखहरन सिंह जानते हैं न? छड़ी, बेंत, आदमी और कुत्ते की पूंछ को सीधी करने का परंपरागत औज़ार)।

ये कौन सी जमात है, जो ‘फीलिंग लवली विद फैमिली’ हो जा रही है? ये कौन सी प्रजाति है जो लॉकडाउन में खाना खा रही है और खाने से पहले उसकी तस्वीर फेसबुक पर चिपका रही है, गोया उससे पहले शायद हवा पीकर जिंदा थी। ये लोग कहां से आए हैं, जो लॉकडाउन के दौरान संगीत सुन रहे हैं? ये कौन से जिंदा पीर हैं जो लॉकडाउन में ही सब्जी लेने निकले हैं? सुबह सीढि़यों पर धूप देख रहे हैं और शाम की गोधूलि? रात को तारों से भरा आकाश निहार रहे हैं?

मेरे जानने वाले सैकड़ों लोगों में इन प्रजातियों का कोई नहीं है। हम जेएनयू में थे तो सूर्योदय कराकर सोने जाते थे। दोपहर को लंच के वक्त सोकर उठते थे। शादी हुई तो सुबह सात-आठ बजे उठने लगे। अब बाल-बच्चेदार हुए तो थोड़ा और जल्दी जग जाते हैं।

हमने पहले भी तारे देखे हैं। पहले भी संगीत सुना है। फिल्में भी देखी हैं। हम जानते हैं कि गौरैया दिल्ली में विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी थी, लेकिन दक्षिणी दिल्ली से लेकर एनसीआर के इलाकों में गौरैया लॉकडाउन के पहले भी बालकनियों में सुबह आती थी। तोते भी आते थे।

लॉकडाउन में पर्यावरण साफ होता देखकर, गौरैयों को स्वच्छंद उड़ता देखकर खुशी से हम मर नहीं गए। धौलाधार देखने हम धरमशाला जाते थे। हमने कभी कामना नहीं की कि दिल्ली से ही शिवालिक दिख जाए।

जिस दौर में रोज़ हजारों लोग मर रहे हैं− बीमारी से लेकर भूख से− उस बीच महामारी के कारण मजबूरी में किए गए सरकारी लॉकडाउन को अपने सौंदर्यशास्त्रीय बोध के भौंडे प्रदर्शन से इतना ग्लोरिफाइ, ग्लैमराइज करने की जरूरत ही क्या है?


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2 Comments on “लॉकडाउन का ‘मरदाना’ सौंदर्यशास्त्र और बालकनी में गौरैया”

  1. ऐसी पारखी नज़र वालों का क्या कहना.. आपने इनकी नज़र को ठीक से परखा है. बेहतरीन.

  2. बेजोड़ तरीके से आप सबको धूल चटा देते हैं। बात सही है कि इस शोक के समय में सबका शौक उभर रहा है। दिक्कत तब होती है जब मेरे जैसा बेरोजगारी में बैठा लड़का शोशल मीडिया पर तरह – तरह के व्यंजन को देखता है तो दबी कुंठा और दुःखी कर देती है।
    वैसे, कभी खूब सकारात्मक हुआ करते थे आज भी हैं पर बेरोजगारों को जो गाली भत्ता दी जाती है उससे मन आध्यात्मिक होने लगता है।
    धन्यवाद सर।

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