प्रियंका रेड्डी के “बलात्कारियों” का “गैर-न्यायिक” “एनकाउंटर” हो या विकास दुबे का घनघोर “फर्जी एनकाउंटर”, समाज के बौद्धिक वर्गों के द्वारा इसका विरोध किया गया था; इनके द्वारा ही नहीं, बल्कि जिनमें भी बेहद मामूली राजनीतिक और सामाजिक दूरदर्शिता है और जो समाज और राष्ट्र को एक सुरक्षित और ‘लोक-केन्द्रित’ तंत्र के रूप में देखना चाहते हैं उन्होंने भी इसका विरोध किया था। विरोध का कारण आरोपितों को बचाना नहीं था, बल्कि उन न्यायिक और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को बचाना था जिसके बगैर आम आदमी का अस्तित्व सत्ता के सामने कुछ भी नहीं, चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या जाति का हो। कानून और नियमों की अनुपस्थिति या मनमाने प्रयोग से जिसे जब चाहे कुचला जा सकता है, और उनमें हम और आप में से कोई भी हो सकता है। यह समझने की जरूरत है कि आज इनकी बारी है, कल सरकार और सत्ता बदलेगी और उनकी भी बारी आएगी। फिर यही सब दुहराया जाएगा।
फिर भी आश्चर्यजनक रूप से जनतंत्र में जन से बड़ा तंत्र और इसके शागिर्द हो गए हैं। दुखद है कि देश के एक बड़े वर्ग ने सत्ता के ऐसे जघन्य कृत्य पर जोरदार जश्न मनाया। वर्षों से तमाम राजनीतिक दलों द्वारा छली जाती आ रही असहाय और विपन्न जनता की बेचैनी और उसके उतावलेपन को समझा जा सकता है- उसका धैर्य अब जवाब दे चुका है, उनमें अब और सहनशीलता नहीं रही। लेकिन अगर ऐसे “सनकी” और न्यायप्रणाली को अंगूठा दिखाने वाले कार्य सरकारी तंत्र ही करने लगा तो यह सम्पूर्ण व्यवस्था की संवैधानिकता और सार्थकता पर सवाल खड़े कर देता है। और ऐसी स्थिति में अंतिम रूप से जो क्षति होगी वह आम आदमी की ही होगी- वह अपना अधिकार, बची-खुची गरिमा और स्वतंत्रता सबकुछ धीरे-धीरे खो देगा।
हाल-फ़िलहाल में जो ‘बुलडोजर की संस्कृति’ विकसित हुई है वह वास्तव में ‘एनकाउंटर की संस्कृति’ का ही एक विकसित रूप है। इसमें कोई मूलभूत अंतर नहीं है। दोनों में ही संवैधानिक मूल्यों की तो हत्या की ही गयी, साथ ही दोनों में ही सर्वोच्च-सत्ता ने आम लोगों, बौद्धिक वर्गों और विपक्ष आदि को उनकी ‘औकात’ में रखे रहने की एक शानदार व सफल ‘सांकेतिक-तकनीक’ का प्रयोग किया है। कुछ पत्रकारों, लेखकों ने इसे ‘भीड़-तंत्र का न्याय” बताया, लेकिन यह भीड़-तंत्र से किसी भी मामले में अधिक जघन्य और असंवैधानिक है। भीड़-तंत्र का उदाहरण ‘मॉब-लिंचिंग’ है, सरकार द्वारा एनकाउंटर और बुलडोजर चलाना नहीं। ‘मॉब-लिंचिंग’ और इस तरह के मामलों में एक गंभीर अंतर है। ‘मॉब-लिंचिंग’ अनधिकारिक अपराध है, जबकि जहाँगीरपुरी जैसे बुलडोजर कांड और उपरोक्त एनकाउंटर आधिकारिक। ‘मॉब-लिंचिंग’ के बाद न्याय की आशा सरकार और सत्ता से बची रह जाती है, लेकिन एनकाउंटर और बुलडोजर चलने के बाद सत्ता अपना विश्वास खोती है। जब सरकारी मशीनरी ही ऐसे काले कारनामे करने लगे तो फिर क्या कुछ बचा रह जाता है?
यह जन-मन में अराजकता के भाव का संचार करता है और धीरे-धीरे यह लोक-संस्कृति का भी हिस्सा बन सकता है। ऐसी घटनाओं से सबसे अधिक न्यायतंत्र ही घायल होता है। भारत में पहले से ही क्षतिग्रस्त न्यायप्रणाली पर यह एक और बड़े वज्रपात के समान है। साथ ही यह भयावह तरीके से संवेदनशून्य हो चुकी समकालीन सामाजिक-राजनीतिक कार्यप्रणाली का भी चरम रूप है।
महाराष्ट्र में कंगना रानावत और उत्तर-प्रदेश में संभवतः विकास दुबे प्रकरण से प्रारम्भ हुई बुलडोजर की संस्कृति ने आज मध्य प्रदेश होते-होते अब राजधानी दिल्ली में भी अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करा दी है। बेशक, दंगों में शामिल लोगों पर कठोरतम कार्रवाई की जानी चाहिए थी, लेकिन जो कुछ भी किया जाना था उसमें वैधानिक सीमाओं और प्रक्रियाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए था। जैसा कि आरोप है और दिखता भी है कि बुलडोजर “दमन” के कार्यों के दौरान बहुत ही “सेलेक्टिव” था, इसने मनमाने और अमानवीय तरीके से “अतिक्रमण” को हटाया या फिर “दंगे को नियंत्रित” करने का प्रयास किया।
यह मानना कि बुलडोजर ने केवल “दंगाइयों” के मकानों और दुकानों को तोड़ा है इस घटना को बेहद कम करके आंकना होगा क्योंकि इसने मकानों और दुकानों के साथ न्यायपालिका और इसकी उपयोगिता को भी कमोबेश ध्वस्त किया या फिर इसके “वास्तविक स्वरूप” को ही उजागर कर दिया है। सत्ता के मतान्ध समर्थकों का मानना है कि अगर यह मामला न्यायालय में जाता तो सुनवाई में वर्षों लग सकते थे और हो सकता है “दंगाई” बच निकलते या फिर जमानत पर आसानी से रिहा हो जाते, और इस तरह उनका मनोबल बना रहता। सच्चाई भी यही है कि आम तौर पर अनगिनत मामलों में यही होता आ रहा है। अक्सर हत्या, बलात्कार, नरसंहार जैसे मामलों के भी आरोपित जमानत पर छूट कर राजनीतिक और सामाजिक जीवन का सर्वोच्च सुख पा रहे होते हैं, जिसे अभी हाल ही में “बाबा” रामरहीम जैसों की जमानत से समझा जा सकता है। हजारों-लाखों अपराधी तो ऐसे हैं जिन्हें अब तक सजा भी नहीं मिली है। जनता कहीं न कहीं न्यायप्रणाली से त्रस्त है और फिर इसने कभी स्वयं से ‘मॉब-लिंचिंग’ का सहारा लिया या फिर अपनी-अपनी पसंद की पार्टियों या सरकारों या राजनेताओं को यह मध्यकालीन सोच वाला अघोषित अधिकार दे दिया कि ‘फैसला ऑन द स्पॉट’ किया जाय। सरकारों ने भी जनता के इस बेचैन मनोविज्ञान का भरपूर फायदा अपने राजनीतिक हितों को साधने में किया। एनकाउंटर और बुलडोजर की संस्कृति ऐसे ही उदाहरण हैं।
टीवी पर और सभाओं में जिस तरीके से कई खूंखार राजनेता बुलडोजर के पक्ष में बहस कर रहे हैं उससे यह साफ-साफ दिखता है कि ये सब कानून और विधान से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। इन्हें न तो न्यायालय का भय है और न ही सामाजिक व राजनीतिक नैतिकता का। ये अब मात्र चतुर और धूर्त राजनेता भर नहीं, बल्कि आदमखोर भेड़िये की भूमिका में हैं जो कब किनका शिकार कर लें कहना कठिन है। एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में न तो कोई राजनेता बड़ा होता है, न कोई न्यायाधीश और न ही कोई अधिकारी, न कोई पत्रकार- बड़ा अगर कुछ होता है तो वह है संवैधानिक नियम और कानून, लेकिन दुर्भाग्य से अब ‘पद-विशेष’ तेजी से बड़े होते जा रहे हैं, कानून और नियम तो बस आम जनता को डराने-धमकाने वाले ‘टूल’ बनकर रह गए हैं। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र में लोक-विवेक का तेजी से पतन हो रहा है। जो विवेकी हैं वे हाशिये पर हैं। पक्ष-विपक्ष सभी को मिलकर सोचने की जरुरत है कि हम किस तरह के राजनीतिक विमर्शों को जन्म दे रहे हैं!
क्या हम संवैधानिक संरक्षण के नाम पर मजहबी तुष्टिकरण कर रहे हैं या फिर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में धार्मिक मतान्धता को बढ़ावा दे रहे हैं। देश का संविधान अपने स्वरूप में पूरी तरह से “राष्ट्रवादी” है जिसके पालन में ही देश का भविष्य है। किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक या विरोधी हुआ जा सकता है, लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि जनता से राजनीतिक पार्टियों का वजूद तय होता है, न कि राजनीतिक पार्टियों से जनता का अस्तित्व।
एक बेहतर लोकतंत्र संवेदनशीलता और आत्मालोचना से प्रारम्भ होता है, लेकिन अब यह नदारद है। संवेदनशून्य- आत्ममुग्धता और अहंकार इसकी जगह ले चुका है। इन सब बातों के अलावा जो चिंतित करने वाली बात है कि आम जनता तो छोड़िए, अच्छे-अच्छे लेखक, कवि, साहित्यकार, प्रोफेसर, अधिकारी, अपनी लोकतान्त्रिक चेतना और जन-पक्षधरता को बुलडोजर के सामने टूटने-बिखरने को डाल चुके हैं। लगता है बुलडोजर की चोट इनके मस्तिष्क पर गंभीर रूप से पड़ी है। इन्होंने सोचना ही बंद कर दिया है या फिर बुलडोजर के भय ने इनके मस्तिष्क पर ताले लगा दिए हैं। बौद्धिक वर्गों की ऐसी कीर्तन मण्डली एक त्रासदी की तरह है।
सुदामा पाण्डेय की एक कविता इस सन्दर्भ में अक्सर याद आ जाती है। इसे कोई हास्यबोध की कविता न समझे, बल्कि वर्तमान समय का सम्पूर्ण-सत्य समझा जाय:
वे सब के सब तिजोरिये के दुभाषिये हैं / वे वकील हैं, वैज्ञानिक हैं, अध्यापक हैं, नेता हैं, दार्शनिक हैं, लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं / यानि की कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है…
(दीप्ति श्री पाठक बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से पत्रकारिता में परास्नातक हैं और केयूर पाठक सीएसडी, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं)