देश में पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव समाप्त हो गए। जनता ने अपने जनादेश से किसी को अर्श तथा किसी को फर्श पर पहुंचा दिया, लेकिन जनता अपने जनादेश से कहाँ पहुंची और आगामी पांच वर्षों में कहाँ तक पहुंचेगी यही सवाल सबसे महत्वपूर्ण और विचारणीय है।
संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्यों को इस बात की आशंका थी कि राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना कभी मूर्त रूप धारण नहीं कर सकती तथा व्यक्ति की सच्ची आजादी आर्थिक सुरक्षा तथा स्वतंत्रता के बिना संभव नहीं हो सकती। अभावों से घिरे लोग कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकते। संविधान का नीति निर्देशक सिद्धांत आर्थिक स्वतंत्रता की घोषणा करता है। यह घोषणा कहती है कि औपनिवेशिक युग के विशेषाधिकार समाप्त हो चुके हैं। भारत की आर्थिक और राजनैतिक बागडोर भारत की जनता के हाथ में आ गयी है और भारत के पूंजीपतियों को उपनिवेशवादियों के साम्राज्य का वारिस बनने के बारे में नहीं सोचना चाहिए।
संविधान निर्माताओं की आशंका और चेतवानी को ध्यान में रखते हुए देश के संसदीय चुनाव को इसी नजरिये से देखना चाहिए कि क्या आर्थिक रूप से विपन्न समाज राजनैतिक निर्णय लेने में स्वतंत्र है? या कुछ आर्थिक मदद करके उसकी राजनैतिक स्वतंत्रता को छीना अथवा प्रभावित किया जा सकता है? दूसरी बात, क्या भारतीय पूंजीपति वर्ग ब्रिटिश पूंजीपतियों का वारिस बन गया? मामला साफ़ है देश में होने वाले गाँव के वार्ड सदस्य से लेकर सांसद तक के चुनाव में मतदाताओं को जो रूपये, साड़ी, शराब, मांस बांटे जाते हैं वह क्या है? कुछ आर्थिक मदद करके मतदाताओं की राजनैतिक आजादी खरीद ली जा रही है।
दूसरी ओर भारतीय संसदीय प्रणाली पर पूंजी ने अपना पूरा वर्चस्व कायम कर लिया है। देश के जनप्रतिनिधि ही नहीं पार्टियों को भी इस पूंजी ने खरीद-फरोख्त की वस्तु बना दिया है। संसद और विधानसभा में विश्वास मत जीतने और सरकार बनाने के लिए पूंजी का खेल कैसे होता है यह 22 जुलाई 2008 में संसद भवन में एक करोड़ रूपए के लहराते नोटों ने पूंजी के वर्चस्व को नग्न रूप में दिखाया। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत काण्ड, सांसदों को पेट्रोल पम्प आवंटित करने वाला काण्ड। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार बनाने के लिए विधायक खरीद कांड, राजस्थान में बसपा का कांग्रेस में विलय कांड, मणिपुर, गोवा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में कांग्रेस की बहुमत की सरकार को गिराया जाना और भाजपा की सरकार बनना, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी विधायकों की बाड़े बंदी की घटनाएं दर्शाती हैं कि भारत की संसदीय प्रणाली पर पूंजी (पूंजीपतियों) का आधिपत्य स्थापित हो गया है।
अब हम सीधे-सीधे कह सकते हैं कि चुनाव में किसको जिताना है, किसको हराना है, किसे हाशिये पर डाल देना है, किसी पार्टी की सरकार बनानी है, किस पार्टी की सरकार गिरानी है, किस विधायक या सांसद को पैसे से खरीदना है, किसे मंत्री पद देकर खरीदना है, यह सभी कार्य पूंजी (पूंजीपतियों) के नियंत्रण में हो गया है।
पहले दो मंडिया- गल्ला मंडी और सब्जी मंडी मशहूर थी। आजादी के बाद वंचित समुदाय की मजदूर मंडी बनी जहां मजदूर अपने श्रम बेचते हैं। आगे चल कर पूंजी ने एक नई मंडी खड़ी कर दी जनप्रतिनिधि मंडी- ब्लॉक पंचायत मुख्यालय, जिला पंचायत मुख्यालय, विधान भवन और संसद भवन भवन लोकतंत्र के मंदिर नहीं रहे, यह मंडी मुख्यालय हो गए हैं जहां जनप्रतिनिधियों की बोली लगती है। जिस मंडी में करोड़पति सांसद महाराज बिकते हों वहां गंगू की क्या औकात? पूंजी के इस वर्चस्व को तोड़ पाना असम्भव नहीं तो कठिन जरूर हो गया है। पूंजी के इस आधिपत्य को चुनौती देने वाले लोगों को देशद्रोह, जेल, सजा, अपनी हत्या तक हो जाने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। इस पूंजी के खेल में पूंजी का स्वार्थ इतना ही है कि वह लगातार बेरोकटोक बढती रहे। इस पूंजी के खेल में मोहरा बने मतदाता किस आधार पर चुनाव में हिस्सा लेते हैं और कैसे पूंजी से पिट जाते हैं यही इन राज्यों के चुनाव में देखने वाली बात है।
पांचों राज्यों के चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश और पंजाब की है। उत्तर प्रदेश देश के सबसे बड़े प्रान्तों में से एक है और पंजाब एक समय भारत का सबसे समृद्ध राज्य रहा था। यह अलग बात है कि अब 19वें नम्बर पर खिसक गया है। उत्तर प्रदेश में हार जीत के बहुत से कारण हैं, इसमें मुख्य रूप से चार हैं। हिंदुत्व, लाभार्थी, विपक्ष की निष्क्रियता और ईवीएम। उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं का एक तबका ऐसा है, जिसके मन में कहीं न कहीं भाजपा का मुसलमान विरोधी चेहरा उनको एक आत्मसंतुष्टि दे रहा है। बाबरी मस्जिद के ऊपर राम मंदिर निर्माण, कश्मीर से अनुच्छेद 370 का हटना, उत्तर प्रदेश को बंगाल-कश्मीर न बनने देने का नारा, उत्तर प्रदेश में कुछ दबंग मुसलमानों के ऊपर क़ानूनी कार्यवाही, गौहत्या पर रोक- यह ऐसी घटनाएं हैं जो उनको एक ख़ुशी देती हैं। यह ख़ुशी इस स्तर तक पहुंच गयी है कि मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा मार दिये गये) की पीड़ादायक घटनाओं को तर्कों द्वारा सही साबित करने की कोशिश करते हैं। हिंदुत्व की यह पराकाष्ठा लोगों को मनोरोगी बनाने तक पहुंचा दी गयी है। उत्तर प्रदेश के पढ़े-लिखे लोग अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन करते हैं लेकिन 370 है क्या उनको पता भी नहीं है। उनको बस इतना ही लगता है कि अनुच्छेद 370 हटने से मुसलमानों का नुकसान हुआ है। मुसलमानों का नुकसान मतलब हिन्दुओं का फायदा। यह फायदा क्या है पता नहीं।
इस स्तर तक सवर्ण ही नहीं पिछड़े और दलित भी पहुँच चुके है। उनका मुकाबला करने की जिससे अपेक्षा थी वह फेसबुकिया क्रांतिकारी में बदल चुके हैं। फेसबुक पर पोस्टर पोस्ट करके वे अपने क्रांतिकारी होने का प्रमाण पत्र समय-समय पर जारी करते रहते हैं।
दूसरा, भाजपा ने देश के नागरिकों को लाभार्थी बना दिया है। जब किसी नागरिक को लाभार्थी (दया का पात्र) बना दिया जाता है तब उसका आत्मसम्मान, मर्यादा से जीने की भूख, नागरिक होने का अधिकार सब कुछ भूल जाता है। यह लाभार्थी पांच किलो गेहूं और मुफ्त के टीके को ही सब कुछ समझ बैठता है। ऐसा नहीं है कि यह सुविधा भाजपा की देन है। यह पहले भी उनको मिलता था, कुछ ज्यादा ही। भाजपा से पहले सरकारी सस्ते राशन की दुकानों पर गेहूं, चावल, मिट्टी का तेल, चीनी, कपड़ा, जूता, चप्पल आदि सस्ते दर पर मिलते थे। टीके भी मुफ्त लगते थे। चेचक का उन्मूलन भी मुफ्त के टीके लगाकर किया गया था। गाँवों में विद्युतीकरण, विद्युत् कनेक्शन भी लोगों को मुफ्त दिया गया। सीमांत किसानों को बीज, खाद भी मुफ्त दी गयी। उस समय यह लोग लाभार्थी नहीं भारत के नागरिक थे। कोई भी सरकार यह जताने के हिम्मत नहीं कर सकी कि वह देश के नागरिक के ऊपर कोई एहसान कर रही है। उसकी आर्थिक कमजोरी का कभी मजाक नहीं बनाया गया।
जिस समय चेचक की वैक्सीन पूरे देश में लोगों को लगायी जा रही थी तो तत्कालीन सरकार ने यह प्रचार नहीं किया कि देश के नागरिक सरकार की दया पर जिन्दा हैं। संकट के समय दिये जाने वाली किसी भी राहत पर किसी नेता की फोटो नहीं होती थी। आज तो प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी की फोटो लगी होती है। भाजपा ने देश के नागरिकों को लाभार्थी बना कर यह एहसास करा दिया कि तुम अगर जिन्दा हो तो प्रधानमंत्री मोदी की दया से। इस दया, बेचारगी, लाचारी के भाव ने उ.प्र. के केवल वंचित समुदाय ही नहीं माध्यम वर्ग के मन में भी गहरे तक पैठ बना ली है। उनको लगता है कि अगर मोदी नहीं रहे तो हमारे जिन्दा रहने और सुरक्षा की गारंटी नहीं है।
यह सब प्रचार किया जा रहा है मुख्यधारा की मीडिया द्वारा और इस मीडिया के मालिक कौन हैं? भारत के प्रमुख दस चैनलों में मुकेश अम्बानी का पैसा लगा है। निष्पक्ष कहे जाने वाले एनडीटीवी में भी मुकेश अम्बानी का पैसा लगा है। कुल 27 न्यूज़ चैनल के मालिक मुकेश अम्बानी हैं। कहा जा सकता है कि हर न्यूज़ चैनल अम्बानी न्यूज़ ही है। कुछ बड़े अख़बारों में भी अम्बानी का पैसा लगा है। हर अख़बार को विज्ञापन चाहिए जो अम्बानी के सामने मुंह बाए खड़े रहते हैं। अडानी 11 न्यूज़ चैनल का मालिक है। भाजपा सांसद सुभाष चंद्रा का जीटीवी और जी न्यूज़ चैनल है। लोग टीवी और समाचारपत्रों में जो भी देखते और पढ़ते हैं वह अम्बानी, अडानी (पूंजी) और भाजपा का प्रायोजित कार्यक्रम देखते और पढ़ते हैं। कार्ल मार्क्स ने कहा है कि “उत्पादन के साधनों पर जिनका नियन्त्रण होता है विचारों पर भी उनका ही नियंत्रण होता है।” उपरोक्त घटनाएं मार्क्स के विचार की सत्यता को प्रमाणित करती हैं।
2017 में बसपा को 23 प्रतिशत से ज्यादा मत मिले थे। इस 2022 के चुनाव में घटकर 12% हो गया। यह 11% प्रतिशत लाभार्थी के रूप में भाजपा की ओर चले गए। किसान आन्दोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ताकतवर था जहां भाजपा को किसानों ने कड़ी टक्कर दी। यह किसान आन्दोलन अपने साथ खेत-मजदूर को भी जोड़ पाने में अगर सफल रहता तो तस्वीर कुछ दूसरी होती। इस किसान आन्दोलन के कारण ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के हिंदुत्व चेहरे इस चुनाव में खेत रहे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां किसान आन्दोलन कमजोर था वहां का 24% जाट वोट भाजपा को चला गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन कमजोर होने से भाजपा को अपने हिंदुत्व एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद मिली। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अपेक्षा पूर्वी उत्तर प्रदेश आर्थिक रूप से कमजोर है जिसके चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश में लाभार्थियों की संख्या ज्यादा है जिसका असर चुनाव में देखने को मिला।
उत्तर प्रदेश में विपक्षी पार्टियों का जनता के जीवन से जुड़े सरोकारों से कोई वास्ता नहीं रहा। कोरोना काल में जब लोग भूखे-प्यासे हजारों किमी की पैदल यात्रा करते हुए घर वापस जा रहे थे, आक्सीजन की कमी से जब लोग सड़कों पर मर रहे थे, मृतकों की सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि भी नहीं हो पा रही थी, लोगों के रोजगार छिन गये थे, उस समय विपक्षी पार्टियों के नेता मौत के भय से अपने घरों में दुबके थे। कोरोना महामारी थी या प्रायोजित अभी भी यह विवाद का विषय है लेकिन जो चर्चा जरूरी है वह भारत का किसान आन्दोलन और अमेरिका में एक अश्वेत की हत्या के विरोध का आन्दोलन। दोनों आन्दोलन कोरोना काल में ही किये गए थे। अमेरिका में जब कोरोना अपने चरम पर था उस समय 25 मई 2020 को एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा एक अश्वेत जार्ज फ्लायड की हत्या कर दी गयी। इस हत्या के विरोध में अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में लाखों लोग सड़कों पर उतर पड़े। यह प्रदर्शन लगातार महीनों तक चलता रहा। उस आन्दोलन में कोरोना का कहीं अता पता नहीं था। कोरोना के डर से कोई अपने घरों में नहीं बैठा। अन्याय के खिलाफ अमेरिका और यूरोप की जनता सड़कों पर संघर्ष कर रही थी।
भारत में भी जब कोरोना के कारण लॉकाउन लगा था उस समय लाखों किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर डटे थे। इन दोनों आन्दोलनों में कहीं कोई ऐसी घटना का जिक्र तक नहीं है जिसमें कोई आन्दोलनकारी कोरोना से मरा हो। उत्तर प्रदेश के विपक्षी नेताओं को कोरोना महामारी का भय था या सत्ता का, जो भी हो जनता की मुसीबत के समय यह कहीं नजर नहीं आये। जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई सभी लोग बरसाती मेंढक की भांति बाहर निकल आये। जनता को उनके हाल पर छोड देने वाली विपक्षी पार्टियों को जो भी मिला वह सब बोनस है। भाजपा के सत्ता में आने के पीछे इन निष्क्रिय विपक्षी पार्टियों की भी बड़ी भूमिका रही। सपा और रालोद ने जितनी भी सीटें जीती हैं वह किसान आन्दोलन का प्रभाव था वरना इनकी हालत कांग्रेस और बसपा जैसी ही होती। भाजपा के बेलगाम घोड़े को पकड़ने का साहस अब केवल और केवल जन आन्दोलन ही कर सकता है क्योंकि पूंजी (पूंजीपति) तो अभी भाजपा पर ही दांव लगा रही है।
ईवीएम अब चुनाव करने की मशीन नहीं रही, वह अब चुनाव जीतने की मशीन में तब्दील हो गयी है। दुनिया में भारत को छोड़ कर हर देश में ईवीएम मशीन अविश्वसनीय हो गयी है। इस मशीन द्वारा किस तरह से बेईमानी की जा रही है इसकी बानगी लगभग हर चुनाव में देखने को मिल रही है। चुनाव में इस मशीन द्वारा होने वाली धांधली में सत्ताधारी पार्टी, चुनाव आयोग, प्रशासन तो लगा हुआ है ही, विपक्षी पार्टियां इसका बहिष्कार न करके इस धांधली में शामिल होने का सबूत दे रही हैं। इस मौजूदा चुनाव में बैलेट पेपर पर हुए चुनाव में बीजेपी को कम वोट मिले हैं। यह चुनाव अगर मशीन की जगह बैलेट पेपर पर होता तो भाजपा सत्ता से बाहर हो सकती थी।
ईवीएम का विरोध सबसे पहले भाजपा ने ही किया था जब 2009 में हार के बाद लालकृष्ण आडवाणी नें हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा था और पूरे देश में भारतीय और विदेशी विशेषज्ञों, एनजीओ और अपने थिंक टैंक कि मदद से ईवीएम विरोधी अभियान चलाया था। इस अभियान के तहत ही 2010 में भाजपा के प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम “Democracy At Risk, Can We Trust Our Electronic Voting Machine” जिसकी भूमिका लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी है। इस किताब में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड डिल ने बताया है कि ईवीएम का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है।
किताब के शुरू में ही लिखा गया है कि “मशीनों के साथ छेड़छाड़ हो सकती है। भारत में इस्तेमाल होने वाली ईवीएम इसका अपवाद नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब एक उम्मीदवार को दिया वोट दूसरे उम्मीदवार को मिल गया है या उम्मीदवारों को वो भी मत मिले जो डाले नहीं गये।” भाजपा नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने 2009 के चुनावी नतीजे के बाद सार्वजानिक तौर पर आरोप लगाया था कि 90 ऐसी सीटों पर कांग्रेस जीती है जो असम्भव है। ईवीएम के जरिये वोटों का होल सेल फ्रॉड सम्भव है।
पंजाब में आप पार्टी की अप्रत्याशीत जीत और कांग्रेस तथा अकाली दल का पतन पंजाब की जनता की वास्तविक स्थिति का एक दस्तावेज है। पंजाब से शुरू हुआ किसान आन्दोलन कांग्रेस, भाजपा, अकाली दल और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह का भंडाफोड़ करने में सफल रहा। इस किसान आन्दोलन ने यह दिखा दिया कि सभी पार्टियों और उद्योगपतियों (पूंजी) का एक मजबूत गठजोड़ बन गया है जिसे तोडना जरूरी हो गया है। मुफ्त बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा का आप द्वारा दिया गया नारा कारगर हथियार साबित हुआ। यह तीन नारे दर्शाते हैं कि पंजाब जो एक समय देश का सबसे समृद्ध राज्य था उसकी दशा कितनी गिर गयी है। किसानों के साथ निचले दर्जे का मजदूर जो अपने रोजमर्रा के संकट से निकलने के लिए छटपटा रहा था, वह आप के विजय से परिलक्षित होती है। पंजाब के लोगों ने भाजपा-अकाली गठबंधन और कांग्रेस को लम्बे समय तक देख लिया कि यह पार्टियां उनके गिरते जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं ला सकती हैं। कांग्रेस का दलित मुख्यमंत्री का कार्ड भी वहां के दलितों को एक धोखा लगा। उन्होंने उनको धराशायी कर दिया। सभी बड़ी-बड़ी हस्तियां इस चुनाव में खेत रहीं। आप की जीत पंजाब के किसानों मजदूरों और दलितों के जिंदगी से जुड़े मुद्दों से बाहर निकलने की व्याकुलता है।
पंजाब में किसान आंदोलन अपने चरम पर था। देशव्यापी किसान आंदोलन की सफलता में पंजाब की अग्रणी भूमिका रही। आंदोलन की सफलता से उत्साहित पंजाब के 32 किसान संगठनों में से 22 किसान संगठनों ने मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा पार्टी का गठन किया जबकि संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल सभी संगठनों की आंदोलन के समय सहमति बनी थी कि वह सीधे चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे। लेकिन पंजाब के 22 किसान संगठनों ने बलबीर सिंह राजेवाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया। समाजवादी क्रांति के जनक लेनिन को ऐसे ही युगद्रष्टा नहीं कहा जाता। उन्होंने कहा है कि ‘पूंजीवादी संसदीय चुनाव सम्मोहन का यंत्र है’। खैर, संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल पंजाब के 22 संगठनों का चुनाव लड़ने का निर्णय कितना सही, कितना गलत है इसका निर्णय तो संयुक्त किसान मोर्चा करेगा लेकिन केवल एक वर्ग के ही आन्दोलन के बल पर चुनाव नहीं जीते जा सकते जब तक कि आन्दोलन एक राजनैतिक विकल्प के रूप में न खड़ा हो जाय। किसान आन्दोलन केवल किसानों की मांग तक ही सीमित था, पंजाब का अन्य समुदाय मजदूर, खेत मजदूर, दलित, पिछड़े वह तो इस आन्दोलन में कहीं नहीं थे, उनकी कोई मांग शामिल नहीं थी। उनकी हिस्सेदारी भी नहीं थी। केवल किसानों के बल पर चुनाव जीत पाना सम्भव नहीं है। संयुक्त समाज मोर्चा के 94 प्रत्याशियों में से 93 प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। समाज के सभी वर्गों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति अगर कोई संगठन या पार्टी नहीं कर सकी तो उसका हश्र एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन) जैसा ही होगा।
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद कुछ लोग जनता को कोस रहे हैं। कुछ लोग जातियों की गणना करने में व्यस्त है कि कौन सी जाति किस पाले में चली गई। एक तबका एआईएमआईएम के प्रमुख ओवैसी को भितरघाती साबित करने में लगा है। जनता को कोसने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि बिना आर्थिक स्वतंत्रता के राजनीतिक रूप से स्वतंत्र निर्णय लेने की स्वतंत्रता संभव ही नहीं है। क्या गारंटी है कि वह विधायक नहीं बिकेंगे जिनको जिताने की बात कही जा रही है? भाजपा को अपदस्थ कर जिन पार्टियों को सत्ता में लाना चाहते हैं उन्होंने जनता के लिए क्या किया है? वह भी तो जाति आधारित पार्टियां हैं। जाति और धर्म आधारित पार्टियों के जनक ओवैसी नहीं हैं। किसी को भी अपना मत देना और किसी से भी अपने लिए मत लेना भारत के हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है। चुनाव में हार-जीत का मायने उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करना। समाज में अगर संवैधानिक मूल्यों को एक बार स्थापित कर दिया जाए तो समाज अपना रास्ता खुद-ब-खुद ढूंढ लेगा।
लेखक वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं