स्कूली शिक्षा के विशेष संदर्भ में नयी शिक्षा नीति की एक अनुभवजन्य समीक्षा


आखिरकार नयी शिक्षा नीति लागू हो ही गयी। एन.डी.ए. सरकार के घोषणापत्र की प्रमुख घोषणाओं में से एक नयी शिक्षा नीति को लागू करना भी था। 2014 से सरकार बनने के बाद करीबन 6 साल और तीन कैबिनेट मंत्रियों के बदल जाने के बाद आखिरकार 2020 में सरकार ने इसे लागू कर ही दिया। इसकी कवायद 2015 से ही शुरू हो गयी थी, शुरुआत जिस हो-हल्ले के साथ हुई थी, उसे देखकर लगता था कि पहले कार्यकाल में ही नयी शिक्षा नीति लागू कर दी जायेगी पर ऐसा हो नहीं पाया।

स्मृति ईरानी, प्रकाश जावडेकर के हरकुलियन प्रयासों के बाद अब रमेश पोखरियाल निःशंक की अगुवाई में यह लागू हुई है। साथ ही निःशंक अब मानव संसाधन विकास मंत्री न होकर शिक्षा मंत्री होंगे। यह सरकार नाम बदलने के लिए भी जानी जाती है तो इसने मंत्रालय का नाम भी बदल दिया। वैसे तो पहले इसका नाम शिक्षा मंत्रालय ही था जिसे उदारीकरण से कुछ साल पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया गया था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाम पर काफ़ी सवाल भी खड़े होते रहे हैं, प्रथम दृष्टया देखने में नाम बदलना सही लग रहा है पर देखना है कि अब भी इसका ध्येय मानव को संसाधन में बदलने मात्र का ही रहता है या फिर जागरूक नागरिक बनाने का काम किया जाने वाला है।

करीबन आधा दशक से ज्यादा समय हो गया मुझे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हुए और मैं एक शिक्षक प्रशिक्षक के तौर पर इस नयी शिक्षा नीति पर शुरू से ही नजर बनाये हुआ हूँ। मैं जिस संस्थान से जुड़कर काम करता था उसने भी इस नीति के विकास में काफ़ी योगदान दिया है। ऐसे में शुरूआती दौर से ड्राफ्ट वर्जन को देखना, उस पर फीडबैक देना, जैसे काम भी मैंने किये हैं ।

वैसे शिक्षा नीति में यह बदलाव करीबन 34 साल बाद हुआ है। 1986 में इसके पहले वाली शिक्षा नीति बनी थी और किंचित फेरबदल के साथ अबतक चल रही थी। इन 34 वर्षों में देश और दुनिया काफ़ी बदल गयी थी और हम उसी पुराने नीति पर लोगों को शिक्षित किये जा रहे थे। खैर, देर आये दुरुस्त आये। अब जाकर यह नीति आई है, दुर्भाग्य से यह नयी शिक्षा नीति ऐसे समय में आई है जब पूरी दुनिया एक महामारी के कारण भय से दुबकी हुई है और हमारे देश में सारे शिक्षण संस्थान बंद पड़े हैं। महामारी में भी जिस तरह से सरकारों ने, तमाम नागरिक समूहों ने, कारपोरेट घरानों ने असंवेदनशील रवैया दिखाया है उसे देखकर यह लगता भी है कि हमें अपनी शिक्षा नीति में आमूल-चूल बदलाव करने की जरूरत है।

शिक्षा पर काम करने वाले एक जागरूक नागरिक के तौर पर इस शिक्षा नीति पर मेरे भी कुछ विचार हैं जिन्हें मैं क्रमबद्ध तरीके से यहाँ रखना चाहता हूँ।

स्कूल शिक्षा

स्कूली शिक्षा के तमाम प्रावधानों में जो मुझे सबसे बेहतर लगता है वह यह कि अब प्री-स्कूलों के विकास पर जोर दिया जाने वाला है। यह एक बेहतरीन कदम है क्योंकि हमारे सरकारी स्कूलों में आने वाले अधिकांश बच्चे ऐसी पृष्ठभूमि से आते हैं जिनके घर पर या आस-पास के माहौल में पढ़ने का उचित वातावरण नहीं मिल पाता है। ऐसे में वे जब सीधे कक्षा एक में आते हैं तो उन चुनिन्दा बच्चों से पिछड़ जाते हैं जिनके पास घर पर थोड़ा ही सही पर प्रिंट सामग्री देखने के मौके मिलते हैं। आंगनबाड़ी को मजबूत किये जाने से एक तरफ जहां शुरूआती दौर से बच्चों को पोषण मिल सकेगा वहीं वे स्कूलों में आने के पहले ही प्रिंट की अवधारणा से परिचित हो पाएंगे, थोड़ा अपनी बात कहना सीख पाएंगे जो उनके आगे के शैक्षिक विकास में मददगार होगा।

स्कूली समय में परीक्षाओं का बोझ भी कम हो सकेगा जिससे बच्चों को शुरूआती दौर में मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी।

नब्बे के दशक के बाद स्कूलों में इनरोलमेंट में काफ़ी वृद्धि आई है, हालाँकि ड्रॉपआउट अब भी एक बड़ी समस्या है पर सरकार ने 2030 तक सकल नामांकन अनुपात को 100 फीसदी करने का जो लक्ष्य बनाया है वह काबिलेतारीफ है । बस ध्यान इस बात का रखना होगा की ड्रॉपआउट में भी कमी लानी होगी ।

घरेलू भाषा/मातृभाषा का शिक्षा में उपयोग

शिक्षा में हुए तमाम शोध यह बताते हैं कि अगर बच्चों के शुरुआत की पढ़ाई उनकी खुद की भाषा में हो तो वे बेहतर तरीके से सीखना शुरू कर पाते हैं। अगर बच्चों की घरेलू भाषा का कक्षा-कक्ष में उपयोग किया जाये तो उन में आत्मविश्वास बढ़ता है और वे सहज तरीके से अपनी बात रख पाते हैं। अच्छी बात यह है कि नयी शिक्षा नीति इस बात को ध्यान में रखती है। शायद यही कारण है कि इस बार की शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर की पढ़ाई को घरेलू भाषा में कराने का निश्चय किया गया है, हालाँकि कक्षा 1 से उसे दूसरी अन्य भाषाओं का एक्सपोजर भी दिया जाएगा पर पढ़ाई का मुख्य माध्यम मातृभाषा या घरेलू भाषा ही होगी।

इस नियम को लागू करना इतना आसान नहीं होगा । भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में घरेलू या मातृभाषाओं की संख्या बहुत ज्यादा है और ऐसी तमाम भाषाओं में शिक्षण सामग्री लगभग नहीं के बराबर है। शिक्षक भी ऐसे नियुक्त होते रहे हैं जिन्हें स्थानीय भाषा से कोई ख़ास सारोकार नहीं होता। कई बार शिक्षक भर्ती में एक क्षेत्र का शिक्षक जब किसी दूसरे क्षेत्र में जाता है तो वह भी उस क्षेत्र विशेष की भाषा को जानता-समझता नहीं है। ऐसे में सबसे पहली और विकट समस्या यह है कि इतनी सारी भाषाओं के शिक्षक कहाँ से आयेंगे? (ऐसे में जब पहले से ही स्थानीय भाषाओं की पढ़ाई न होती रही हो) और कैसे अलग-अलग भाषाओं में पठन सामग्री का निर्माण होगा? अभी जब पूरे राज्य के लिए एक ही भाषा में किताबें बनती हैं तब भी उनकी गुणवत्ता पर तमाम सवाल खड़े होते रहे हैं । ऐसे में यह सोचना लाजिमी हो जाता है कि आखिर यह सब कैसे होगा। शिक्षा नीति में लिख देना और उसे लागू करना दोनों में जमीं-आसमान का अंतर दिखता है। खैर, यह लागू हो जाए तो बेहतर ही होगा।

एक और बात जो इस मामले की गंभीरता को बढ़ा सकती है वह यह कि अगर सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू में नहीं होती तो सरकारी स्कूल के बच्चे, प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से काफ़ी पीछे हो जायेंगे। अब तक का अनुभव यह बताता है कि शुरू का यह अंतर अधिकांश लोग जन्म भर नहीं पाट पाते। जब तक यह नियम सार्वभौम तरीके से लागू नहीं होता तब तक इसके सफल होने पर सवालिया निशान उठते रहेंगे और ऐसा भी हो सकता है कि यह नियम आगे चलकर सामाजिक और आर्थिक खाई को बढ़ाने का काम भी करे। ऐसे में स्थानीय भाषा का उपयोग और उस पर गर्व करना तो ठीक है पर अगर इसके पीछे के सवालों को ठीक ढंग से एड्रेस नहीं किया गया तो मामला बिगड़ भी सकता है।

स्कूलों में तमिल, तेलुगु, कन्नड़,मलयालम, ओडिया, फ़ारसी, पाली, प्राकृत जैसी भाषाओं और उनके साहित्य को पढाये जाने का भी विचार है, पर यहां भी वही सवाल है कि ये पढ़ाई आगे जाकर रोजगार सृजन में कितना मददगार साबित होने वाली है। या तो बड़े स्तर पर कुछ सामाजिक बदलाव किये जायें, अंग्रेजी के साथ-साथ अन्य भाषाओं को भी सरकारी काम-काज का हिस्सा बनाया जाए अन्यथा ऐसी पढ़ाई लोगों को आकर्षित नहीं कर पायेगी । दूसरा, यहां भी ऐसी भाषाओं के शिक्षकों की कमी तो खलेगी ही। आखिर त्रिभाषा फार्मूले के पिट जाने के पीछे भी कुछ यही वजहें रही हैं।

स्कूल परिसर

यह संकल्पना मुझे काफ़ी ठीक लगती है। राजस्थान में नोडल स्तर पर विद्यालयों के प्रबन्धन का मामला पिछले दो वर्षों से चल रहा है और इस व्यवस्था के तहत काफ़ी कुछ सकारात्मक बदलाव होते हुए मैंने देखा है। इस नियम के तहत करीबन 25-30 स्कूलों का एक क्लस्टर बनाया जायेगा जिसमे माध्यमिक विद्यालय के प्रिंसिपल की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर यह व्यवस्था ठीक ढंग से लागू हो जाये तो बहुत कुछ बदल सकता है । स्कूल परिसर की इस नयी संकल्पना से ना केवल भौतिक संसाधनों को एक दूसरे से साझा करते हुए बेहतर तरीके से उपयोग किया जा सकेगा वरन शिक्षण में आ रही चुनौतियों से भी बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है। इसमें अलग-अलग स्कूलों के शिक्षक जब मिलकर अपनी शिक्षण योजनाये साझा करेंगे, उन पर चर्चा करेंगे तो यह काफ़ी फायदेमंद होने वाला है।

स्कूल की एस.एम.सी. सदस्यों,  कार्यक्षेत्र के अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं का समन्वयन करके मदद लेने की भी योजना है जिससे फायदा ही होने वाला है।

शिक्षक भर्ती और शिक्षक प्रशिक्षण

शिक्षा में शिक्षक, बच्चे और समुदाय का एक त्रिकोण बनता है। अगर इसमें कोई भी सिरा कमजोर होगा तो शिक्षा को कभी भी बेहतर नहीं किया जा सकता है। मेरा यह व्यक्तिगत रूप से मानना है कि इन तीनों में शिक्षक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। अगर शिक्षक सक्षम नहीं है, उसे समय-समय पर उचित प्रशिक्षण नहीं मिलता है तो फिर सरकार चाहे जो नियम बना ले यथोचित लक्ष्य मिलना लगभग नामुमकिन है।

शिक्षक प्रशिक्षण के अब तक के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि शिक्षक चयन प्रक्रिया, उनके प्रशिक्षण आदि  में काफ़ी जगह सुधार की जरूरत है।

सबसे पहले तो यही लगता है कि आज के समय में प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक होना शायद ही कोई चाहता है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षक होना ज्यादातर लोग मज़बूरी में चुनते हैं खासकर ऐसे लोग जिनके पास कैरियर में कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं है, अथवा जो लोग महंगी रोजगारपरक डिग्री नहीं ले सकते वे अंत में शिक्षक बन जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बेहद कम है जो सच में पढ़ना-पढ़ाना पसंद करते हैं और कैरियर गोल में शिक्षक की नौकरी रखते हैं। मैंने तमाम ऐसे शिक्षकों को देखा है जो ज्वाइन तो कर लेते हैं पर राज्य या देश की सिविल सेवाओं की तैयारी करते रहते हैं अथवा प्राथमिक स्तर पर शिक्षक होने के बाद माध्यमिक स्तर के शिक्षक बनने में जुट जाते हैं। ऐसे शिक्षकों के चलते बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित होती है।

शिक्षक तैयार करने में जिन संस्थाओं, मसलन डायट आदि की भूमिका है उनकी हालत बहुत खस्ता है। अब तक जितने भी डायट मैंने देखे हैं ज्यादातर सुविधाविहीन होते हैं और वहां के शिक्षक प्रशिक्षकों को बहुधा यह नहीं पता होता कि उन्हें कैसे शिक्षक तैयार करने हैं।

शिक्षकों का पाठ्यक्रम भी बदलने की जरूरत है जिससे वे आधुनिक समय में हो रहे बदलावों से परिचित हो सकें। बेहतर नौकरी के दौरान अलग-अलग शिक्षकों के काम के आकलन का कोई वैज्ञानिक तरीका ने होने से भी बहुत से बेहतर शिक्षक धीरे-धीरे शेष जैसे हो जाते हैं और शिक्षण बस खाना-पूर्ति बनकर रह जाता है।

इसी तरह सेवारत शिक्षक प्रशिक्षणों का हाल भी बहुत बुरा है। देश के अलग-अलग राज्यों के 100 से ज्यादा प्रशिक्षणों में शामिल होने के बाद मै यह कह सकता हूं कि उनमें कुछ नया सीखने-सिखाने का काम बेहद कम होता है। प्रशिक्षण अमूमन चाय-पानी और प्रवचन में सिमट कर रह जाते हैं। ऐसे में प्रशिक्षण नीरस और निरर्थक हो जाते हैं। ज्यादातर शिक्षक यह शिकायत करते मिलते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में इतने प्रशिक्षण कर लिए हैं कि अब नए प्रशिक्षण की जरूरत ही नहीं। कुछ शिक्षकों का यह भी मानना है कि सरकारी विद्यालयों को सरकारी नीतियों की प्रयोगशाला बनाकर छोड़ दिया गया है।

शिक्षकों को शिक्षण से इतर भी ढेरों काम करने होते हैं जिसके चलते भी शिक्षण कार्य बाधित होता है। साथ ही पैरा शिक्षक, शिक्षामित्र, संविदाकर्मी शिक्षकों की भर्ती ने भी काफ़ी कुछ गड़बड़ ही किया है।

अच्छी बात यह है कि नयी शिक्षा नीति में इनमें से ज्यादातर बातों को ध्यान में रखा गया है और उसी के आधार पर नियम बनाये गए हैं। शिक्षक छात्र अनुपात को 1:30 से कम करने, संविदा शिक्षकों की भर्ती बंद करने, गृह जिले में पोस्टिंग जैसे नियम निसंदेह काफ़ी कुछ बेहतर कर सकते हैं।

शिक्षक प्रशिक्षणों को भी आधुनिक बनाये जाने का विचार है, साथ ही निरंतर प्रोफेशन डेवलपमेंट और ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर नौकरी में प्रमोशन और वेतन वृद्धि जैसे उपाय भी बेहतर शिक्षकों को कुछ नया करने के लिए प्रेरित करेंगे। शिक्षकों को स्थानीय स्तर पर स्वायत्तता देने की भी बात की गयी है जो बेहतर शिक्षकों को कुछ नया करने के लिए प्रेरित करेगी। अगर ये सब कुछ लागू हो जाये तो यकीनन प्राथमिक स्तर की शिक्षा व्यवस्था में काफ़ी कुछ बदलाव आ सकता है।

अन्य जरूरी बातें

शिक्षा के बजट को कुल जी.डी.पी. का 6% किये जाने का प्रावधान है, हालाँकि 1986 की शिक्षा नीति में इसे 10% करने की अनुशंसा की गयी थी पर वर्तमान में 3-4% के आस-पास ही खर्च हो पाता है। निसंदेह अगर बजट बढ़ता है तो भौतिक अवसंरचना, शिक्षकों की पे स्केल, अन्य शिक्षण सामग्रियों के लिए ज्यादा धन मुहैया हो पायेगा।

सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों को चिन्हित करके कुछ वंचित क्षेत्रों में विशेष शिक्षा ज़ोन बनाये जाने की भी योजना है। यह भी हाशिये पर चले गए लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने का एक बेहतर प्रयास हो सकता है। महिला और ट्रांसजेंडर, मुस्लिमों एवं अन्य शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ अच्छे नियम बनाये गए हैं जो अगर ईमानदारी से लागू किये गए तो देश का शैक्षिक परिदृश्य काफ़ी कुछ बदल सकता है।

अभी तक स्कूली स्तर पर यह नीति अपने सैद्धांतिक रूप में काफ़ी बेहतर दिखती है, जिसमे कई सारी चुनौतियों को एड्रेस करने की कोशिश की गयी है। अगर ये सारी चीजें लागू होती हैं तो काफी कुछ बदलाव लाया जा सकता है, पर जैसा कि अबतक की सरकारों का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है (एन.डी.ए. के अबतक के 6 साल भी जोड़ लें) तो उसमें शिक्षा निचले पायदान पर ही रही है।

शिक्षा नीतियों में अब तक लिखी गई बहुत सी बेहतर बातों पर ध्यान लगभग ना के बराबर दिया गया है। ऐसे में नियम तो अच्छे बनते हैं पर उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाता। अधिकांश जगहों पर शिक्षकों की कमी, बच्चों का गिरता शैक्षिक स्तर, परीक्षा प्रणाली में अंक लाने पर ज़ोर जैसी चीज़ें आज समस्या बनकर खड़ी हैं जो तमाम सरकारों की नीयत पर सवाल खड़ा करती हैं। इस मामले में एन.डी.ए. सरकार का रवैया तो और भी खतरनाक रहा है। अलग-अलग मामलों में किये गए तमाम वायदे पूरे होने की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में यह शिक्षा नीति कितनी कारगर सिद्ध होगी इस पर एक सचेत नागरिक होने के नाते मन में संदेह तो बना ही हुआ है। इस शिक्षा नीति की सफलता-असफलता का परिणाम तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर इस सरकार को नयी शिक्षा नीति लाने की बधाई तो बनती है।



About बिपिन पांडेय

पढ़ाई लिखाई गोरखपुर विश्वविद्यालय से, देश के अलग-अलग शैक्षिक संगठनों के साथ काम करने का अनुभव, यायावरी का शौक, देखना,समझना,लिखना-पढ़ना मुख्य काम । रहनवारी लखनऊ में...

View all posts by बिपिन पांडेय →

One Comment on “स्कूली शिक्षा के विशेष संदर्भ में नयी शिक्षा नीति की एक अनुभवजन्य समीक्षा”

  1. बहुत सही फरमाया है आपने,
    शिक्षक की , भाषा और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षण में कई समस्या का आना लाजमी है। क्योंकि कोई ड्राफ्ट नहीं है कि हमे किस दिशा की ओर कितना और कैसे बड़ना है।क्योंकि ड्राफ्ट मै जो बताया गया है उसको मूर्त रूप देने में कई प्रकार की समस्या जन्म लेंगी। प्रशिक्षण पर भी सही बात रकी है क्योंकि इतने वर्षों तक शिक्षकों के साथ काम कर उनकी सभी मानसिकता से परिचय है।
    बाकी सब सरकार की अच्छी मंशा के अनुसार हो जाता है तो ठीक है अन्यथा प्रयोगशाला वाली बात चरितार्थ होनी ही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *