भारतीय समाज में लड़की की शादी माता-पिता के लिए एक चुनौती होती है क्योंकि हमारे समाज में आज भी लड़की को एक बोझ के रूप में ही समझा जाता है। पितृसत्तात्मकता की परतें इतनी घनीभूत हैं कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश का लिंगानुपात गंभीर रूप से असंतुलित है; 1000 पुरूषों के मुकाबले लगभग 943 महिलाएं हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की अनगिनत योजनाओं और तमाम दावों के बावजूद लिंगानुपात में कोई बड़ा सुधार नहीं आया है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन में लड़कों को आज भी लड़कियों से अधिक महत्व दिया जाता है। संभवतः यही कारण है कि बहुत से माता-पिता लडकियों की शादी में जल्दबाजी करते हैं, वे यह भी नहीं देखते कि लड़की की उम्र अभी शादी के लायक है या नहीं क्योंकि लडकियाँ एक बोझ हैं जिसे जल्द-से जल्द हटाना अनिवार्य है।
अपने शोध के दौरान हमने तेलंगाना के अनगिनत सुदूरवर्ती क्षेत्रों को वर्षों तक भ्रमण किया और हमने इनके गाँवों में पंद्रह से सोलह वर्ष से अधिक अविवाहित लड़कियों को शायद ही कभी देखा; आमतौर पर दस से तेरह वर्षों के बीच ही उनकी शादी कर दी जाती थी।
लड़कों और लड़कियों के बीच इस भेदभाव को दूर करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने समय-समय पर कई प्रयास किए, इसके बावजूद सामाजिक जागरूकता अब तक उस स्तर तक नहीं आ पायी है जितनी अपेक्षा की गयी थी। इन्हीं स्थितियों को ध्यान में रखते हुए नवनिर्मित तेलंगाना (2014) सरकार ने एक अहम कदम उठाया और ‘कल्याण लक्ष्मी/शादी मुबारक’ योजना को वर्ष 2014 में ही प्रस्तावित किया। सरकार के इस कदम से इस नये राज्य में पिछले छह वर्षों में राज्य में बाल विवाह में कुछ हद तक कमी आयी है।
इस योजना की सफलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’, (NFHS 4th round) 2015-16 में यह दर 25।7 प्रतिशत थी और अगले सर्वेक्षण (NFHS 5th round) 2019-20 में घट कर 23।5 प्रतिशत हुई। इस योजना ने लोगों को कम से कम 18 वर्ष से उम्र तक की अपनी लड़कियों को विवाह करने से रोका और समाज को लड़कियों के बारे में अपनी धारणा बदलने को भी प्रेरित किया क्योंकि इस योजना के अंतर्गत प्रावधान है कि लड़की की उम्र शादी के लिए 18 साल की हो गयी हो या अधिक हो तभी इस योजना की राशि दी जाती है।
‘कल्याण लक्ष्मी/शादी मुबारक’ योजना उन वंचित परिवारों के लिए है जिनकी वार्षिक आय दो लाख या उस से कम हो। पिछले पांच वर्षो में सरकार द्वारा दिये जाने वाली रकम में भी वृद्धि हुई है जो 51000/- रुपये से बढ़कर वर्तमान में 1,00,116/- कर कर दी गयी है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य बाल-विवाह पर रोक और साथ ही लडकियों के शैक्षिक स्तर में भी सुधार करना है ताकि वह भी यथोचित शिक्षा प्राप्त कर समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सके। सरकारी अनुदान से दी जानी वाली यह राशि भले ही छोटी है लेकिन अपने परिणाम में बहुत ही अधिक व्यापक है।
एक सरकारी आयोजन में जहाँ पर ‘कल्याण लक्ष्मी /शादी मुबारक’ योजना के अंतर्गत निर्धारित राशि के चेक बांटे जा रहे थे वहाँ पर लोगों ने बताया कि यह चेक लड़की की माँ के नाम पर दिया जा रहा है। वहीं पर उपस्थित एक व्यक्ति ने कहा- ‘यह एक अच्छी योजना है जिससे हम जैसे गरीब लोगों को अपनी बेटियों की शादी करने में कुछ तो मद्द मिल रही है’।’
एक और महिला ने कहा- ‘मैं अपनी बेटी की शादी उसकी दसवीं कक्षा के बाद करने वाली थी, लेकिन मुझे यह कह कर रोका गया कि अगर मै अभी शादी करूंगी तो ये क़ानूनी अपराध होगा। तुम कुछ वर्ष और रुक जाती हो तो उससे कुछ मदद सरकार द्वारा भी मिल जाएगी तो मैंने उसे कॉलेज पढ़ने भेज दिया, फिर उसकी शादी 18 वर्ष होते ही कर दी।’
जिन बस्तियों में उच्च-पाठशालाएँ या कॉलेज नहीं हैं वहाँ कुछ लड़कियां आजीविका के लिए सिलाई, पेंटिंग, कपड़ों पर कारीगरी आदि सीख रही हैं जिससे वे धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होना सीख रही हैं ताकि संकट के समय अपना और अपने परिवार की सहायता कर सकें।
एक महिला ने बताया- ‘हमारे मोहल्ले में कॉलेज नहीं है, इसलिए मैंने उसे सिलाई के काम पर भेजा है ताकि वो अपने हुनर से कुछ पैसे कमा सके जो उसी के परिवार के लिए काम आएंगे’। वार्तालाप के दौरान यह भी स्पष्ट हुआ कि लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ही कम ध्यान देने के पीछे आर्थिक कारण अधिक है, जैसे जिन्होंने अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा दी है उनका मानना है कि अगर लड़की को ज्यादा पढ़ाएं तो लड़का मिलना मुश्किल हो जाता है और दहेज की मांग भी बढ़ेगी इसलिए कम उम्र में ही शादी कर देते।
हम तो यह सुनते आ रहे हैं कि लड़की अगर शिक्षित है तो उसका घर भी शिक्षित होगा, मगर लोगों तक इस बात का पहुंचना भी आवश्यक है कि अगर लडकियाँ स्वस्थ हैं तो आने वाली पीढ़ियां भी स्वस्थ होंगी। और यह संभव तभी हो सकता है जब लड़की की शादी सही उम्र मे हो।
इस योजना की सफलता के साथ ही साथ सरकार को चाहिए कि समाज में दहेज की कुप्रथा- जो तमाम उपलब्ध निरोधी कानून के बावजूद खुलेआम चली आ रही है- पर नियंत्रण के और भी अधिक कारगर प्रबंध करे क्योंकि इस राशि को कई परिवारों ने शादी के समय दहेज में दी जाने वाली राशि के रूप में ही सरकारी सहायता मान लिया है। अतएव इस राशि के वितरण के बाद यह भी देखा जाना चाहिए कि कहीं ये शादियाँ दहेज़ के साथ तो नहीं हो रही हैं। इसलिए दहेज की परम्परा को भी अवरुद्ध किए जाने की सख्त जरूरत है अन्यथा यह सरकारी सहायता ही कालांतर में दहेज को वैधानिकता प्रदान कर सकती है।
लेखकद्वय सामाजिक विकास परिषद, हैदराबाद से सम्बद्ध हैं