जैंजि़बार के दिन और रातें: सातवीं किस्‍त


प्रो. विद्यार्थी चटर्जी 

यदि आप अश्वेत अफ्रीकियों से बात करें तो कई बार आपको यह अहसास होगा कि वे अफ्रीका में बसे भारतीयों को पसंद नहीं करते। वे अकसर आपसे भारतीय कारोबारियों और व्यापारियों के कुकृत्यों को गिनाएंगे, लेकिन अपनी आज़ादी के संघर्ष में एशियाई समुदाय के योगदान को भी वे उतनी ही सहजता से छुपा ले जाते हैं। ऐसे लोगों का इकलौता जवाब माखन सिंह का जीवन है जिन्होंने सभी धर्मों और नस्लों की बेहतरी के लिए संघर्ष किया और जीवन जिया। 


”अनक्वाइट” की प्रस्तावना में केनियाई मानवाधिकार आयोग के स्टीव ऊमा और मकाउ मुटुआ ने लिखा हैः ‘‘माखन सिंह भारत से आकर यहां बसने वाले उन चुनिंदा लोगों में थे जिन्होंने न सिर्फ अफ्रीका को अपना घर बनाया, बल्कि उपनिवेशवाद विरोधी आजादी की लड़ाई का भी नेतृत्व किया। लेकिन एक बात जो सिंह को तमाम महान नेताओं से अलग करती थी- यहां तक कि इसमें महात्मा गांधी भी शामिल हैं- वो यह थी कि उनकी राजनीति में बहुनस्लवाद का विचार सचेतन रूप से शामिल था। वे ऐसा मजदूर आंदोलन स्वीकार करने से इनकार करते थे जो नस्ली आधार पर खड़ा हो, जिसमें औपनिवेशिक रंगभेद का जहर घुला हो और जो अश्वेत अफ्रीकियों व एशियाइयों को अलग-अलग मर्यादा क्रम में रख कर उन्हें शर्मसार करता हो।” 

केनियाई स्‍वतंत्रता संग्राम के नेता जोमो केन्‍याटा के साथ माखन सिंह 


”माखन सिंह ने औपनिवेशिक केनिया में पहली बार यह दिखाया कि एशियाइयों और अश्वेत अफ्रीकियों की नियति समान है, एक दूसरे से बंधी है और उनकी मुक्ति इसी वजह से परस्पर जुड़ी हुई है। इस ताकतवर उदाहरण के माध्यम से उन्होंने समझाया कि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद दोनों ही जनता के दुश्मन हैं। यही कारण है कि सिंह की यह मजबूत विरासत केनिया में शोषण और नस्ली भेदभाव से मुक्त एक समाज के गठन का आधार हमेशा बनी रहेगी।’’
हमने पढ़ा या सुना होगा कि कैसे पिछली सदी के आखिरी दशकों में केनिया या उगांडा में रेलवे पटरी बिछाने के काम में लगे सिख मजदूरों को आधी रात उनके तंबुओं से बाघ खींच कर ले जाते थे। ऐसे खौफ के सामने ब्रिटिश नियोक्ताओं द्वारा किया जाने वाला दुर्व्‍यवहार भी हल्का ही पड़ता था। ऐसे मजदूरों के शरीर के टुकड़े बाद में खेतों या झाडि़यों में पाए जाते थे। दरअसल, माखन सिंह ने जैसा निस्वार्थ सेवा भरा जीवन केनिया में जिया, बिल्कुल वैसा ही साहस और उत्साह उन मजदूरों ने भी दिखाया था जो एक बार यहां आने के बाद कभी लौट कर अपने वतन नहीं जा पाए। वे अश्वेत आलोचक, जो एशियाई समुदाय के वास्तविक या काल्पनिक कुकृत्यों के बारे में बोलते रहते हैं, यदि वे प्रवासी सिख, गुजराती और गोवा से आकर अफ्रीका में बस गए आरंभिक भारतीयों के योगदान को याद करने का प्रयास करें, तो शायद इस मसले पर कहीं ज्यादा निष्पक्ष व समग्र आकलन सामने आ सकेगा।

इस संदर्भ में यह ध्यान दिलाए जाने वाली बात होगी कि मजदूर आंदोलन के विशेषज्ञ और नैरोबी विश्ववि़द्यालय में इतिहास विभाग से संबद्ध जॉर्ज गोना के सहयोग के बगैर शायद ज़रीना पटेल अपनी माखन सिंह पर लिखी किताब सामने नहीं ला पातीं। दो भिन्न नस्ली समुदायों से आने वाले दो शोधकर्ताओं ने कैसे एक गुमनाम इतिहास में जान फूंक दी, खुद पटेल के शब्द उसका उदाहरण हैं: ‘‘मैं जिससे पूछती थी वह कहता था कि वे तो महान शख्स थे, उनका बलिदान महान था। और इसके बाद सब चुप…।” 

”उनकी लिखी दो किताबों में ट्रेड यूनियन आंदोलन के बारे में एक-एक विवरण था, लेकिन खुद उनके बारे में कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उनके परिवार को भी उनके विचारों और दैनिक जीवन के बारे में बेहद मामूली ज्ञान था। मैंने तो यह काम लगभग छोड़ ही दिया था… कि आखिरी रास्ता मैंने यह अपनाया कि मैं डॉ. गोना से मिली। वे युनिवर्सिटी के अभिलेखागार में 25 बक्सों में बंद माखन सिंह के दस्तावेजों तक मुझे ले गए। मेरे हाथ तो जैसे सोने की एक खदान लग गई थी।’’ (क्रमश:) 

पहली किस्‍त 

Read more

One Comment on “जैंजि़बार के दिन और रातें: सातवीं किस्‍त”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *