जैंजि़बार के दिन और रातें – 6


प्रो. विद्यार्थी चटर्जी 

आइए, ऐसी ही एक और जि़ंदगी से आपको मिलवाते हैं। मेरे जैंजि़बार आने से कुछ माह पहले यहां एक किताब का लोकार्पण हुआ था। उससे पहले नैरोबी में भी हो चुका था। किताब थी ”अनक्वाइटः दी लाइफ एंड टाइम्स ऑफ माखन सिंह”। यह 563पृष्ठों की विशाल पुस्तक है जिसे लेखिका और शोधकर्ता ज़रीना पटेल ने लिखा है। पुस्तक केनिया के प्रवासी सिख समुदाय के उस शख्स के संघर्ष और बलिदान को गुमनामी के अंधेरे से निकाल कर प्रकाश में लाने की कोशिश है, जिसे कुछ केनियाई अपने यहां मजदूर आंदोलन की नींव रखने का श्रेय देते हैं। 

माखन सिंह आज जीवित होते तो सौ साल के होते। उनका जन्म 27दिसम्बर 1913 को गुजरांवाला जिले (पाकिस्तान में) के घरजख गांव में हुआ था। तेरह साल की उम्र में वे अपने परिवार के साथ नैरोबी चले आए। पढ़ने में वे अच्छे थे, लेकिन पैसे की दिक्कत के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी और खालसा प्रिंटिंग प्रेस नाम से अपने पिता के पारिवारिक कारोबार में साथ लग गए। उन्होंने 1935 में लेबर ट्रेड यूनियन ऑफ केनिया का गठन किया और 1949में इन्होंने फ्रेड कुबाई के साथ मिलकर ईस्ट अफ्रीकन ट्रेड यूनियन कांग्रेस की नींव रखी। यह केनिया में मजदूर यूनियनों का पहला केंद्रीय संगठन था। 

उपनिवेश विरोधी विचारों और मजदूर आंदोलन की गतिविधियों के चलते उन्हें अंग्रेज़ शासकों ने 1950 के दशक में गिरफ्तार कर दस साल के लिए उत्तरी केनिया के रेगिस्तानी कैदी शिविर में डाल दिया। बगैर किसी मुकदमे और आरोप के वे दस साल बाद 20अक्टूबर 1961 को रिहा हुए। नैरोबी में 59साल की उम्र में दिल का दौरान पड़ने से उनकी मौत हो गई। केनिया में लोग उन्हें आम तौर पर याद नहीं करते जबकि अपने जन्म के देश में तो उन्हें कोई जानता तक नहीं। अब ज़रीना पटेल की किताब आने के बाद केनिया और पूर्वी अफ्रीका के अन्य हिस्सों में लोगों की आंख धीरे-धीरे खुल रही है कि केनिया की आज़ादी और मजदूर वर्ग को संगठित करने के लिए माखन सिंह ने जीवनपर्यंत कितना संघर्ष किया था। एक महान योद्धा जिसे उसकी मौत से पहले ही भुला दिया गया, ज़रीना पटेल के शब्द उसे दोबारा जिंदा करने का काम करते हैं: ‘‘उनकी अंत्येष्टि में कुछ दोस्त, रिश्तेदार, मजदूर और मुट्ठी भर ट्रेड यूनियन के लोग ही आए; इस महान केनियाई योद्धा के चले जाने पर सरकार की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया…।” 

ज़रीना पटेल 
”माखन सिंह ने नस्ली अवरोधों के पार जाकर अफ्रीकी और एशियाई मजदूरों को एक मंच पर लाने का काम किया था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए इससे बुरा दु:स्वप्न और कोई नहीं हो सकता था- भारत के राजनीतिक अनुभव और अफ्रीका के जनसंघर्ष का मिश्रण। इसी वजह से अंग्रेज़ों ने उन्हें केनिया के उत्तरी सीमांत जिले और दूसरी जगहों पर 15 साल तक कैद कर के रखा। माखन सिंह के सामने अंग्रेज़ों ने रिहाई के लिए शर्त रखी कि वे हमेशा के लिए केनिया छोड़ कर चले जाएंगे, लेकिन उन्होंने इसे नहीं माना। एक बार उनके वकीलों ने रिहाई के लिए याचिका डालते वक्त फैसला अपने पक्ष में करने के लिए भाषा में हेरफेर करते हुए माखन सिंह को ‘‘भटका हुआ आदमी’’ लिख डाला। माखन सिंह ने इसका कड़ा विरोध किया और तुरंत जवाब दिया कि भटके हुए वे नहीं, बल्कि औपनिवेशिक शासक हैं।”
बताया जाता है कि पटेल ने पुस्तक के लोकार्पण के वक्त इस बात का जि़क्र किया था कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद जिन्होंने सत्ता पर ‘‘कब्ज़ा’’ जमाया, वे उन स्वतंत्रता सेनानियों से दूरी बनाए रखने की नीति पर चलते रहे जिन्हें चैन से बैठना मंजूर नहीं था और जो व्यापक हित में लोकप्रिय संघर्ष का नया चरण संगठित करना चाहते थे। 

पटेल के शब्दों में: ‘‘माखन सिंह को नाचना नहीं आता था, वे सिर्फ कदमताल करना जानते थे। यही वजह थी कि स्वातंत्र्योत्तर शासकों से उनका तालमेल जल्द ही बिगड़ गया। ऐसे वे इकलौते नहीं थे। पियो गामा पिंटो की हत्या करवा दी गई, जारामोगी ओगिंगा ओडिंगा को हिरासत में ले लिया गया, प्रणालाल सेठ का प्रत्यर्पण कर बाहर भेज दिया गया और बिलदाद कागिया जैसे कई महान नेताओं को हाशिये पर डाल दिया गया। भूमि सुधार, संपत्ति का न्यायपूर्ण बंटवारा और अधिसंख्या के लिए लोकतंत्र का आह्वान नव-औपनिवेशिक सत्ता को नहीं भाया जिसने ‘‘आज़ादी’’ पर कब्ज़ा किया हुआ था।’’ 


पटेल के लिखे शब्द पढ़ कर आप आसानी से समझ सकते हैं कि 1947 के बाद भारत के अपने अनुभव केनिया से कितने समान हैं। (क्रमश:) 


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