जैंजि़बार के दिन और रातें: दूसरी किस्‍त


प्रो. विद्यार्थी चटर्जी 
बहरहाल, पिछले छह साल से मैं चाह रहा था कि अपनी जैंजि़बार यात्रा का संस्मरण लिखूं, लेकिन किसी न किसी वजह से या अकारण ही अब तक मैं इसे टालता रहा। अब जबकि मैंने दिमाग बना लिया है, तो इसे खत्म करने में मुझे देर नहीं करनी चाहिए। नौजवान पीढ़ी के लिए छह साल बहुत लंबा वक्त नहीं होता, लेकिन मेरे जैसे बुढ़ाते व्यक्ति की याददाश्त के लिहाज से यह लंबा है और इसके अलावा छह साल के भीतर कई अनोखी चीजें भी घट सकती हैं। खासकर एक बात तो है ही कि जो घटनाएं मेरे साथ हुईं या जिन लोगों से मैं मिला, मेरी स्मृति में उनकी अब वैसी वास्तविक छवियां नहीं रह गई हैं। छोटे-छोटे विवरण भी इतने लंबे वक्त में बिखर जाते हैं, चीजों का सार कहीं ज्यादा वृहद आकार ले लेता है और लिखने के दौरान कभी-कभार ऐसा लगता है कि कलम जैसे जाम हो गई हो। उस वक्त जो अनुभव हुआ था, उसे जस का तस जाहिर करने में लेखक गोया खुद को असमर्थ पा रहा हो। तो क्या मुझे भारत लौटते ही इस यात्रा के बारे में लिख देना चाहिए था? या फिर, बेहतर तरीका यह हो कि चीजों का शांत या स्थिर होने का वक्त दिया जाए और दिमाग के किसी कोने में इन्हें पकने के लिए छोड़ दिया जाए? जो भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि कलम उठाने में छह साल की देरी खुद की याददाश्त से ढेर सारी छूट लेने जैसी बात है।
बिल्कुल शुरुआत से लिखना बेहतर होगा। तो हुआ यूं कि जुलाई की एक रात मैं केन्या एयरवेज के विमान से बंबई से नैरोबी की यात्रा पर देर रात निकला। फ्लाइट में ज़ायकेदार नाश्ते और लगातार मिल रहे सेब के रस के अलावा एक अजीब किस्म की फलियों का पैकेट भी मिल रहा था जिसे मैंने पहले न कभी देखा था, न ही खाया था। इसके अलावा मुझे यह याद है कि विमान में परिचारिका और उसके पुरुष सहयोगी काफी विनम्र और स्वागत की मुद्रा में थे और हर बार कोई सेवा देते वक्त एक मुस्कान छोड़ जाते थे। नैरोबी एयरपोर्ट पर मुझे कुछ देर इंतजार करना पड़ा जिसके बाद अलग-अलग जगहों से वहां जूरी के सभी सदस्य एक साथ पहुंच गए। हम सब को एक छोटे से विमान में बैठाया गया और जहां तक मुझे याद है, जैंजि़बार पहुंचने में हमें तकरीबन घंटा भर लगा होगा। ऊपर से जैंजि़बार हिंद महासागर के नीले विस्तार में तैरता एक मोती सा दिखता था। जितने दिनों मैं वहां ठहरा, मुझे वहां के बाशिंदों से एक नहीं, बल्कि कई बार एक खूबसूरत कहानी सुननी को मिली कि यह द्वीप कैसे बना। किंवदंती यह है कि इस दुनिया-जहान को बनाने के बाद अल्लाह ने अपनी रचना को वक्त निकाल कर गौर से देखा। रचना इतनी खूबसूरत बन पड़ी थी कि खुशी में अल्लाह की आंख से आंसू की एक बूंद छलक गई। जैंजि़बार के लोगों का मानना है कि यह ईश्वरीय अश्रुकण जहां गिरा, वहीं पर उनका जज़ीरा समुद्र में से बाहर निकल आया।

जैंजि़बार की आय के बुनियादी स्रोतों में पर्यटन है, इसलिए वहां के एयरपोर्ट की खूबसूरती को लेकर अलग से प्रशंसा क्या की जाए। फिल्म महोत्सव के आयोजकों ने हमें होटल ले जाने के लिए कुछ कारें भेजी थीं और उनके साथ एकाध गाइड भी थे। रहने और खाने के अलावा हर आमंत्रित व्यक्ति को निश्चित दैनिक भत्ता दिए जाने की भी व्यवस्था थी जिसे इसी द्वीप पर मौजूद कई विनिमय केन्द्रों में जाकर डॉलर से तंजानियन शिलिंग में बदला जा सकता था (जैंजि़बार तंजानिया का एक हिस्सा है जिसे कुछ हद तक स्वायत्तता मिली हुई है)। यह पूरी तरह एक मुस्लिम राष्ट्र है जहां धार्मिक कानून और रवायतें कड़ाई से लागू हैं, लेकिन महिलाओं को आप विनिमय केन्द्रों और दूसरी जगहों पर भी काम करता देख सकते हैं। यहां एक छोटा सा कैथोलिक ईसाई समुदाय भी है जिसकी जड़ें गोवा में हैं। उसके अलावा एक हिंदू आबादी भी यहां है जो मुख्यतः गुजराती बोलती है, लेकिन गुजराती भाषी मुस्लिम आबादी यहां काफी ज्यादा संख्या में और प्रभावशाली भी है। ये सभी हर किस्म के कारोबार में लगे हैं और भारत के साथ इनके करीबी संपर्क बने हुए हैं, लेकिन मुझे ऐसा जान पड़ा कि अफ्रीकी मूल के मुस्लिमों से वे एक दूरी बना कर रहते हैं। भारत के पश्चिमी तट से कभी भारी संख्या में हिंदुओं और मुस्लिमों का पलायन हुआ था। उनके वंशज तंजानिया की राजधानी दार-एस-सलाम में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। होटल के पास स्थित विनिमय केन्द्र में मुझे स्थानीय मुद्रा के जो नोट दिए गए, उन पर तंजानिया के पहले राष्ट्रपति जूलियस नरेरे की तस्वीर बनी थी। तंजानिया का जन्म पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश तंगानिका और जैंजि़बार की सल्तनत के विलय से हुआ था।
होटल में आए मुझे कुछ ही वक्त हुआ था कि रिसेप्शन पर चंद्रेश शाह नाम का एक स्थानीय गुजराती युवक मुझसे मिलने के लिए आया। उसका नाम सुनकर मैं चौंका क्योंकि इस नाम के किसी व्यक्ति को मैं नहीं जानता था, और वैसे भी जैंजि़बार में ही कहां मैं किसी को जानता था। मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि उसे मेरे आने का या मेरे रुकने की जगह का पता कैसे चला। बहरहाल, जब हमारी मुलाकात हुई, तब उसने बताया कि भारत से कोई भी सैलानी वहां आता है, तो उसकी सेवा में पेश होना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं इस द्वीप के ऐतिहासिक और रमणीक स्थलों को देखना चाहूंगा। जब मैंने हां में जवाब दिया, तो उन्होंने कहा कि ठीक है कि वे मुझे अपनी टोयोटा पिक-अप में ले जाकर घुमाएंगे और लोगों से मिलवाएंगे। इसके बाद से मेरे पास जब कभी खाली वक्त रहा, मैं चंद्रेश को घुमाने के लिए बुला लेता। कभी-कभार उसके साथ उसकी बहन भी आ जाती थी जिसने पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में निर्देशन का कोर्स किया था। फिर हम तीनों तब तक घूमते रहते, जब तक हमारे शरीर में दर्द नहीं हो जाता और अगले दिन की छुट्टी! इसके बाद पूरे दिन फिर वही घूमना-फिरना।
जरथ्रुस्‍त की पवित्र आग 
हमारा पहला ठिकाना था एक पुराना पारसी अग्नि-मंदिर यानी अगियारी। बहुत दिन नहीं बीते जब जैंजि़बार में मुंबई, सूरत और पश्चिमी तट पर बसी अन्य जगहों से पलायन कर के आए पारसियों का एक सक्रिय समुदाय रहा करता था। अधिकतर कारोबारी थे, लेकिन कुछ नौकरीपेशा भी थे। चंद्रेश के मुताबिक 2003 में इस जज़ीरे पर सिर्फ तीन पारसी बचे रह गए थे- एक वृद्ध दंपती और उनकी अधेड़ उम्र की एक बेटी। हालांकि दार-एस-सलाम में इनकी संख्या कुछ ज्यादा थी। मेरे यहां पहुंचने से काफी पहले ही जरथ्रुस्त की आग ने इस जज़ीरे का दामन छोड़ दिया था। मुझे वहां जो कुछ दिखा, उससे मेरा दिल उदास हो गया। बंद अगियारी के कांच के शीशों से भीतर झांकने पर कुछ बड़े आकार के तैलचित्र मुझे दिखाई दिए जो ज़मीन पर पड़े धूल खा रहे थे। सब बंद पड़ा था और वहां तक पहुंच पाना संभव नहीं था। चंद्रेश ने बताया कि यह ज़मीन एक लोकल डेवलपर को बेच दी गई थी जो जल्द ही इस ऐतिहासिक इमारत को ढहा देगा। एक बार मलबा साफ हो जाने पर यहां आवासीय फ्लैट बनाए जाने की योजना है।
फारुख बलसारा उर्फ फ्रेडी
(बचपन की तस्‍वीर) 
पारसी समुदाय की ही एक और कहानी से मेरा साक्षात्कार तब हुआ जब एक शाम मैं अकेले टहलने के लिए निकल पड़ा। अचानक मेरी नज़र एक सार्वजनिक नोटिस जैसी चीज़ पर जाकर टिक गई। उसमें लिखा था कि आप मशहूर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी के जन्मस्थल के सामने खड़े हैं। फ्रेडी मर्करी भी पारसी थे और रॉक संगीत की दुनिया के बादशाह माने जाते थे। फ्रेडी के शुरुआती वर्ष जैंजि़बार में ही गुज़रे थे, जिसके बाद वे पढ़ाई-लिखाई के लिए भारत चले गए थे और बाद में इंग्लैंड को उन्होंने अपना ठिकाना बना लिया जहां उन्हें प्रसिद्धि मिली। जैंजि़बार में फारुख बलसारा के नाम से 5 सितम्बर 1946 को पैदा हुए फ्रेडी की मौत लंदन के केनसिंगटन में महज 45साल की अवस्था में एड्स से हो गई (मौत से एक दिन पहले ही उजागर हुआ था कि वे समलैंगिक थे)। पश्चिमी संगीत की दुनिया में एक बार अपनी जगह बना लेने के बाद एक रॉक संगीतकार, गायक, गीतकार और रिकॉर्ड प्रोड्यूसर के तौर पर फ्रेडी का कोई जोड़ नहीं था। उन्हें कई वाद्य यंत्र बजाने आते थे, लेकिन वे पियानो और गिटार के विशेषज्ञ थे। अपने सक्रिय वर्षों में यानी 1969 से 1991 के बीच वे कई समूहों से जुड़े रहे, लेकिन क्वीनके साथ उनका रिश्ता उन्हें संगीत की ऊंचाई पर ले गया। ब्रिटेन में 2005 में आयोजित एक सर्वेक्षण में मर्करी को सर्वकालिक महान गायक घोषित किया गया।


फ्रेडी मर्करी (1946-1991) 

मर्करी का बचपन अधिकांश भारत में गुज़रा। आठ साल की उम्र में उन्हें बंबई के नज़दीक पंचगनी के सेंट पीटर्स स्कूल में पढ़ने भेज दिया गया। बाद में उनका नाम बंबई के सेंट मेरीज़ में लिखवाया गया जहां वे अपनी दादी और चाची के साथ रहने लगे थे। जैंजि़बार में 1964 में क्रांति हुई जिसमें हज़ारों अरब और भारतीय वहां की अश्वेत आबादी के हाथों मारे गए। इस वजह से बलसारा परिवार जैंजि़बार छोड़ कर इंग्लैंड चला गया। बमुश्किल दो दशक से ज्यादा के अपने करियर में मर्करी ने दुनिया भर के देशों में घूम-घूम कर अपने समूह क्वीनके साथ 700 के आसपास कंसर्ट किए। इस मशहूरियत के बावजूद उनके अपने देश जैंजि़बार में मर्करी के लैंगिक आचार पर उंगलियां उठती रही हैं।  
सर्वकालिक महान गायक, जिसे जैंजि़बार ने ठुकरा दिया 
अगस्त 2006 में तो बाकायदे विवाद खड़ा हो गया जब मर्करी के साठवें जन्मदिवस आयोजन को रोकने के लिए इस्लामिक मोबिलाइज़ेशन एंड प्रोपेगेशन नाम के एक संगठन ने जैंजि़बार के संस्कृति मंत्रालय पर दबाव बना दिया। संगठन का कहना था कि मर्करी सच्चे जैंजि़बारी नहीं थे और उनका समलैंगिक आचार शरिया के खिलाफ जाता है। संगठन ने कहा था, ‘‘मर्करी का नाम जैंजि़बार से जोड़े जाने पर इस्लामिक धरती के तौर पर हमारे द्वीप का अपमान होता है।’’(क्रमश:)

(अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव)


पहली किस्‍त 

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