हरियाणा सरकार के वाटर कैनन झेलने के बाद 25 नवंबर की आधी रात सोनीपत के एक पड़ाव पर जब हज़ारों किसान सुस्ता रहे थे, जाने किस उत्कंठा में इधर नींद गायब थी। रात में कोई दो या तीन बार मनदीप से फोन पर बात हुई। आखिरी बात सुबह सवा चार बजे हुई। उसने बताया कि सुबह नौ बजे कूच करेंगे यहां से दिल्ली के लिए। मैंने कहा समय क्यों खराब करना, उजाला होते ही निकल लो, दिल्ली दूर है, शाम हो जाएगी पहुंचते-पहुंचते। उसका कहना था कि किसान यूनियनों के बुजुर्ग प्रधान लोग मानें तब न! उनका कहना है कि आराम से खा पीकर निकलेंगे दिल्ली के लिए।
इस बात से बचपन में बुजुर्गों का कहा याद आया, जब बाहर निकलते वक्त अकसर कहा जाता था कि घर से खाकर निकलो। अपने बुजुर्गों की मानकर जब जत्था 26 नवंबर की सुबह पेट भर के दिल्ली के लिए निकला, तो नौजवानों ने हरियाणा सरकार के लगाये बैरिकेड गिरा दिए। दिल्ली पहुंचते ही स्वागत में सिंघू बॉर्डर पर पुलिस के दागे सौ से ज्यादा आंसू गैस के गोले भी झेल लिए। केवल इसलिए, कि वे खा पी कर निकले थे। उन्हें पेट भरने की चिंता नहीं थी। इत्मीनान, राशन की तरह ट्रालियों-ट्रैक्टरों में भरा पड़ा था अगले छह महीने के लिए।
आज दिल्ली पहुंचे उन्हें हफ्ता हो रहा है, तो यह इत्मीनान नेशनल हाइवे 44 पर कायदे से पसर कर लेट गया है। ये किसान इतनी जल्दी जाने के मूड में नहीं हैं, इस बात की ताकीद कोई भी कर सकता है जो सिंघू बॉर्डर होकर आया है। पिछले 18 साल के अपने दिल्ली प्रवास में किसी आंदोलन का ऐसा इत्मीनान, ऐसा ठहराव, मैंने नहीं देखा गोकि ऐसा कोई आंदोलन नहीं रहा जिसे अपनी आंखों से मैंने न देखा हो।
एक सड़क फैल कर मैदान हो गयी है। वो मैदान सिमट कर घर बन गया है। इस घर में कोई लाख रहवासी हैं। सबके घरों से धुआंं उठ रहा है। धुएं के नीचे आग सुलग रही है। तवों पर सामूहिक इत्मीनान रोटी की शक्ल में सिंक रहा है, बेचैनी की शक्ल में पलट रहा है। लोहिया ने कहा था कि लोकतंत्र के तवे पर सत्ता की रोटी पलटती रहनी चाहिए वरना एक तरफ़ से जल जाती है।
निरंकारी मैदान का रहस्य
कुछ लोग ठहरने के लिए छांव खोजते हैं। कुछ और लोग होते हैं जो जहां रुक जाते हैं वहीं आसमान ओढ़ लेते हैं। पंजाब के किसान और उनके रहनुमा दूसरी प्रजाति के जीव हैं। फतेहगढ़ से आये बुजुर्ग हरनाम सिंह कहते हैं कि उन्हें क्या पता दिल्ली क्या है और रामलीला ग्राउंड या जंतर-मंतर कहां है। 1983 के पहले की बात है जब वे गुरद्वारा बंगला साहेब आए थे, लेकिन दिल्ली का कुछ नहीं पता। उन्हें कोई दिखा कर कह देता कि यही रामलीला ग्राउंड है तो वे वहीं रुक जाते। वो तो…
ये ‘वो तो’ एक रहस्य है। पंजाब से आये किसान आखिर सरकार के दिये निरंकारी मैदान में बुराड़ी क्यों नहीं गये? यह सवाल टीवी के बनाये किसान नेता योगेंद्र यादव, कारोबारी सह पूर्व विधायक सह किसान नेता सरदार वीएम सिंह से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक सबको परेशान कर रहा होगा। शायद किसानों को भी यह सवाल परेशान कर रहा होगा कि जब संयुक्त किसान मंच ने रामलीला ग्राउंड की दरख्वास्त प्रधानमंत्री से लगायी थी तो दिल्ली पुलिस ने निरंकारी मैदान क्या सोच कर दिया?
इस दोतरफा जिज्ञासा की कई परतें हो सकती हैं। एक तथ्य तो ये है कि निरंकारी मैदान में मेरी जानकारी में बीते दो दशक में कोई आंदोलन, सभा, प्रदर्शन नहीं हुआ। शायद कोई राजनीतिक रैली या सभा भी वहां नहीं होती। वह मैदान निरंकारी संत के समागम की जगह है जहां साल में कुछ मौकों पर भारी भीड़ जुटती है और बाकी वक्त लोग गाड़ी चलाना सीखते हैं। कमोबेश रेडलाइट मुक्त हो चुके दिल्ली के रिंग रोड से बुराड़ी का यह विशाल मैदान किसी उल्कापिंड से बने गड्ढे की तरह नज़र आता है जिसमें एक बार फंस गये तो यह पता करना मुश्किल हो जाय कि निकलना कहां से है।
यह संकट कुछ किसानों ने दूसरी ही सुबह भांप लिया था जो जाने अनजाने वहां पहुंच गए थे। किसी ने बुराड़ी के मैदान को खुली जेल कहा, तो किसी ने हाउस अरेस्ट का नाम दिया।
28 नवंबर बीता भी नहीं कि अपनी ट्रालियों और ट्रैक्टरों के साथ वहां फंसे किसान बेचैन हो उठे। यह तब था, जबकि वहां मौजूद उनके नेता सिंघू बॉर्डर और टीकरी बॉर्डर पर जाकर अपील कर रहे थे कि सारे किसान मैदान में चलो। संदेश साफ़ था: कुछ नेता किसानों को खुली जेल में ले जाना चाहते थे खुले आकाश से निकाल कर। क्यों? आखिर आंदोलन करने आया किसान सरकारी राशन, पानी और आश्रय पर क्यों टिके? सवाल तो वाजिब था।
पहली शाम सिंघू बॉर्डर पर डटे किसान नेताओं ने योगेंद्र यादव और वीएम सिंह को ना कह दिया। दूसरी शाम मेधा पाटकर, कक्काजी और सुनीलम आदि के आग्रह पर इनकार कर दिया। आखिरकार देश के गृहमंत्री को शर्त रखनी पड़ी कि मैदान में आओ, तभी बात करेंगे। इस शर्त को भी किसानों ने हवा में उड़ा दिया। ऐसा क्या था उस मैदान में कि सरकार से लेकर सिविल सोसायटी के रहनुमा तक सब के सब एक स्वर में किसानों को निरंकारी मैदान में खींचने को आतुर थे जबकि किसानों का वहाँ दम घुट रहा था?
बंगलुरु में रहने वाले पंजाब के गंभीर अध्येता और ‘’पंजाब: जर्नीज़ थ्रू फॉल्टलाइंस’’ के लेखक अमनदीप संधू से मैंने 29 नवंबर की शाम बात की। क्या इसके पीछे कुछ धार्मिक एंगल है कि सिक्ख किसान निरंकारी के मैदान में नहीं आना चाहते? उन्होंने एक पल ठहर कर कहा कि यह विशुद्ध राजनीतिक निर्णय है किसानों का, यह बात दूसरी है कि निरंकारी और सिक्ख पंथ के बीच का इतिहास रंजिश भरा रहा है लेकिन यहां उसका कोई मतलब नहीं दिखता। उनसे बातचीत के बाद इस थ्योरी को मैंने फिलहाल के लिए ताखे पर उठा कर रख दिया।
निरंकारी मैदान को सिक्खों के पड़ाव के लिए चुना जाना किसके दिमाग की उपज थी, यह तो नहीं पता लेकिन इतिहास के आईने में झांकने पर जाने क्यों ऐसा आभास होता है कि कहीं किसी गहरी साजिश की स्क्रिप्ट रची जा रही थी जिस पर किसानों ने पानी फेर दिया। एक स्वर में किसानों ने राजनीतिक सूझबूझ भरा फ़रमान सुनाया, ‘’हम दिल्ली में घिर कर नहीं बैठेंगे, दिल्ली को घेर कर बैठेंगे।‘’
इस फरमान की अनुगूंज यूपी बॉर्डर तक गयी। 28 नवंबर की शाम अपने जत्थे के साथ गाजि़याबाद-दिल्ली की सीमा पर यूपी गेट पहुंचे भारतीय किसान यूनियन (अराजनैतिक) के अध्यक्ष राकेश टिकैत ने भी वहीं डेरा डाल दिया।
इतना ही नहीं, एक अद्भुत नज़ारा वहां पेश हुआ। आम तौर से पुलिस धारा 144 लगाती है किसी क्षेत्र में पर यहां भाकियू ने बैरिकेड पर अपनी धारा 288 लगा दी और किसानों के अलावा किसी अन्य का प्रवेश वर्जित कर दिया। भाकियू की धारा 288 का तो पता नहीं कि ये क्या है, लेकिन सुनने में सेर पर सवा सेर जैसा कुछ अहसास होता है।
बैरिकेड वहां भी तोड़े गये। पुलिस के साथ झड़प भी हुई। किसानों ने दो साल पहले अपने ही बनाये किसान क्रांति गेट पर पड़ाव डाला और इसी के साथ दिल्ली तीन तरफ़ से घिर गयी।
मीडियाबाज़ी से इनकार की ताकत
अब तक मीडिया ने यह नैरेटिव स्थापित कर दिया था कि यह आंदोलन प्रमुखत: पंजाब के किसानों का है। सरकार ने 30 नवंबर की रात जब वार्ता का न्योता भेजा, तो उसमें भी पूरे 32 नेता पंजाब से ही थे। आधिकारिक रूप से यह धारणा बनाने की आखिरी कोशिश की गयी थी कि मामला अकेले पंजाब से जुड़ा है और चूंकि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है, इसलिए सारा बखेड़ा कांग्रेस का खड़ा किया हुआ है।
किसान कांग्रेस की सच्चाई कुछ और ही बताते हैं। हरियाणा में जब किसानों ने पड़ाव डाला था, तो कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला कम्बल बांटने किसानों के बीच आये थे। जत्थे में शामिल एक युवा बताते हैं कि किसानों ने कम्बल लेने से इनकार कर दिया था और उन्हें लौटा दिया था।
इनकार करने की ताकत सबसे बड़ी होती है। यह ताकत भरे पेट से आती है। यह ताकत उसके पास होती है जिसे पता है कि उसके अगले जून की रोटी का कोई संकट नहीं है। जाहिर है, यह ताकत पंजाब के किसानों के पास ही है। बेशक इस आंदोलन में आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों के किसानों की शिरकत है, लेकिन मुकम्मल इनकार तो पंजाब के किसानों ने ही किया- सुरजेवाला से लेकर योगेंद्र यादव, वीएम सिंह और अमित शाह तक सभी को।
मीडिया को इनकार करना सबसे कठिन काम होता है। लाउडस्पीकर और एंप्लीफायर की ज़रूरत सबको होती है। पंजाब के किसानों ने दिल्ली के टीवी चैनलों को भी मुकम्मल इनकार कर दिया। उन्हें अपनी बुलंद आवाज़ पर भरोसा था। दो ऐसे वीडियो सामने आये हैं जहां किसानों ने आज तक के रिपोर्टर को बाइट देने से मना कर के उलटे पांव लौटा दिया।
अब चाहे जितने हिम्मती हों, लेकिन हैं तो किसान ही। शहरी कायदों से अनजान, सभ्यता की चालों से अनभिज्ञ। इन किसानों को नहीं पता था कि जिन्हें वे लौटा रहे हैं, इनकार कर रहे हैं, वहां उनकी जगह कोई और घेर रहा है। आंदोलनों के दौरान ऐसा अकसर होता है। मीडिया में आंदोलन का चेहरा कोई और होता है, ज़मीन पर कोई और।
सबसे पहले दीप सिंधू नाम के एक अभिनेता को मीडिया ने लाखों की भीड़ में से चुन कर उठाया। वो अंग्रेज़ी बोल रहा था पुलिसवालों से, तो कैमरों की जीभ उसकी ओर खुद-ब-खुद लंबी हो गयी। दीप सिंधू के कंधे पर चढ़कर टीवी चैनलों ने आंदोलन को खालिस्तानी कह कर बदनाम करना शुरू किया।
तीन दिन तक यह अभियान धड़ल्ले से चला। बरखा दत्त के लिए इंटरव्यू ने इस आग में घी का काम किया। बरखा ने कहा कि दीप के शब्दों ने किसानों के सरोकारों को गहरी चोट पहुंचायी है। इस बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने दीप से कुछ और शब्द बोलवा लिए।
खालिस्तानी नैरेटिव सेट होने की प्रक्रिया में जब टीवी रिपोर्टरों को किसानों ने भगाना शुरू किया, तो हमेशा की तरह मीडिया ने एक लिबरल चेहरा खोज निकाला। खोजने की भी जरूरत नहीं थी, आदमी तैयार था। मीडिया का ही तैयार किया हुआ था।
दरअसल, ठीक दो साल पहले कृषि पर केंद्रित संसद के एक सत्र की मांग को लेकर आयोजित किसानों के ‘’दिल्ली चलो’’ मार्च के पहले ही दिन योगेंद्र यादव प्राइम टाइम पर रामलीला मैदान पहुंचने में देरी कर गये थे। चैनलों की ओबी वैनें उनके इंतजार में खड़ी रह गयीं लेकिन हरियाणा बॉर्डर से किसानों का जत्था लेकर आने में उन्हें देरी हो गयी। दिल्ली चलो मार्च के सैद्धांतिक शिल्पकार पत्रकार पी. साइनाथ दिल्ली में ही थे, सो उस रात हर चैनल ने उन्हें लाइन अप कर लिया। योगेंद्र रह गये। इस बार उन्होंने मीडियाबाजी के मामले में कोई चूक या देरी नहीं की। वे पहले ही दिन से सक्रिय थे।
यहां तक कि 1 दिसंबर को जब 35 किसान नेताओं के साथ सरकार की वार्ता घंटों चली, तो एनडीटीवी को इन 35 में से एक भी नेता अपने स्टूडियो में बैठाने को नहीं मिला। अकेले योगेंद्र यादव ही मिले, और ऐसे मिले कि दिन भर से अपने संगठन द्वारा चलाये जा रहे एक प्रचार को उन्होंने खुद अपने मुंह से पुष्ट कर दिया। दिन भर उनका स्वराज संगठन और उसके लोग इस बात को फैलाते रहे थे कि न्योते के अतिरिक्त जिन किसान नेताओं का नाम गृहमंत्री को सुझाया गया मिलने के लिए, उनमें अकेले योगेंद्र के नाम पर अमित शाह ने एतराज़ जताया था।
बिलकुल यही बात योगेंद्र यादव ने 1 दिसंबर की रात एनडीटीवी पर कही। बावजूद इसके कि चर्चा शुरू होने से पहले ही ऐंकर संकेत उपाध्याय ने कह दिया कि इस प्रकरण में योगेंद्र यादव का व्यक्तिगत मसला अलहदा है, योगेंद्र आत्मप्रचार का लोभ संवरण नहीं कर सके। उन्होंने कहा कि इसमें कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है, यह सार्वजनिक होना चाहिए कि सरकार उनके नाम से डर गयी है।
अगले दिन यानी 2 दिसंबर को दि हिंदू ने योगेंद्र यादव के बयान के आधार पर यही खबर चला दी। बीबीसी हिंदी प्रेस रिव्यू में इस खबर को ले उड़ा। दोनों खबरों में कहा गया था कि संयुक्त किसान मंच ने सभी नेताओं को बुलाने का प्रस्ताव रखा था लेकिन पंजाब के किसान संगठनों को योगेंद्र के नाम से परहेज़ था। इसमें सरकारी साजि़श कहां से आ गयी? जब किसान खुद ही योगेंद्र यादव को अपना नेता नहीं मान रहे, तो योगेंद्र के कहने से क्या होता है कि सरकार ने उनसे डर कर उन्हें छांट दिया? दिल्ली में खबरें ऐसे ही बनती हैं, आंदोलन ऐसे ही कब्ज़ाये जाते हैं। यह पुरानी रीत है।
बिलकुल इसी कार्यक्रम में मीडिया का चुना एक और चेहरा उभर कर आया- शाहीन बाग की दादी। पहले दिन से ही शाहीन बाग के साथ किसान आंदोलन को जोड़ने की कोशिश मीडिया में चल रही थी। आखिरकार 1 दिसंबर को शाहीन बाग की मशहूर दादी बिलकीस बानो किसानों के बीच जाती हैं और वहां से उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। रात में वे एनडीटीवी पर बैठती हैं और अपना पक्ष रखती हैं। इस तरह शाहीन बाग वाला नैरेटिव और पुष्ट हो जाता है।
बरखा दत्त और एनडीटीवी की पत्रकारिता की शैली एक है। दोनों बाकी मीडिया के सेट किए एजेंडे के विपरीत धारणा बनाने के लिए उसी एजेंडे का सहारा लेते हैं। बिलकुल वैसे ही कि किसी ने नग्न तस्वीर दिखायी और दूसरे ने वही नग्न तस्वीर दिखाकर बताया कि उसने नग्न तस्वीर दिखायी है जो कि गलत है। रवीश कुमार के प्राइम टाइम में इस पत्रकारिता शैली की निशानदेही आप तकरीबन हर रोज़ कर सकते हैं जब वे अपने गढ़े ‘’गोदी मीडिया’’ की निंदा करने के नाम पर वही दिखाने की छूट ले लेते हैं जो दूसरे खेमे ने दिखाया था।
बहरहाल, किसान इतनी महीन बातों को पकड़ पाते तो वे किसान न रहते। अज्ञेय की कविता के सांप बन जाते। किसान शहर में बसे नहीं, सभ्य नहीं हुए, इसलिए न उनमें ज़हर भरा है और न ही उन्हें काटना आया है। वे सीधी बात कर रहे हैं और कट मरने को तैयार हैं। उस तैयारी का बस उन्हें इंतज़ार है। सिंघू बॉर्डर इसी इंतज़ार का दूसरा नाम है।
किसान आंदोलन का मुकम्मल राजनीतिकरण
बरसों पहले एक वो दिन था जब आनंदपुर साहिब में बैसाखी के दिन मैंने लंगर का खीर चखा था। बरसों बाद 30 नवंबर का गुरु पर्व आया जब सिंघू बॉर्डर पर लगे दिल्ली के पांच गुरद्वारों के लंगर चखने का मौका मिला। कोई साढ़े चार के आसपास का वक्त रहा होगा जब हम बैरिकेडों को पार कर के किसानों के बीच पहुंचे। सूरज ढल रहा था, पूर्णिमा का चांद अपनी बारी के इंतज़ार में था।
नेशनल हाइवे पर अभी-अभी बसे इस विशाल लम्बवत् गांव में लोहे के घर थे- ट्रैक्टर और ट्राले। किसी खबर में पढ़ा था कि इनकी संख्या 96000 है। रोपड़ के एक किसान ने बताया कि यह रेला 35 किलोमीटर लंबा है। दूसरे ने 15 किलोमीटर बताया। तीसरे ने आठ-दस किलोमीटर कहा। इस तरह समझ में आया कि अब भी पंजाब के किसानों का यह गांव बसने की प्रक्रिया में है। इस गांव में हरियाणा और राजस्थान के किसानों की बस्तियां बसने वाली हैं।
छह दिन से किसानों के साथ दिन-रात रहने के बाद मनदीप 1 दिसंबर की रात अपने गांव झज्जर चला गया था। उसने 2 दिसंबर की सुबह हरियाणा से दिल्ली की ओर कूच कर रहे जत्थों को कवर किया है। इसका मतलब है कि अभी तक हमने जो देखा, वो सिर्फ ट्रेलर है। पिक्चर अभी बाकी है।
बसा कैसे जाता है, उसकी अब तक हुई तैयारियां देखिए- एक ट्रैक्टर, उसके भीतर, नीचे, ऊपर बिछे गद्दे, गद्दों पर पुआल, भीतर सारी घरेलू सामग्री। सिलिंडर से लेकर राशन तक, अचार से लेकर मसाले तक, पानी से लेकर दूध तक, बाजे से लेकर डीजे तक- जीवन का हर रंग इन ट्रैक्टरों में समाहित।
हर कदम पर चूल्हा लगा हुआ है। कहीं दूध फाड़ के पनीर बनाया जा रहा है। कहीं खीर। कहीं लड्डू बंट रहे हैं। कहीं ब्रेड पकौडे और चाय। सैकड़ों रसोइयों से एक साथ धुआं उठ रहा है। धुएं में उठती सोंधी गंध ने प्रदूषण के मामले में दिल्ली की सबसे खराब सीमाओं में एक सिंघू बॉर्डर के इलाके को पंजाब का देहात बना डाला है। यह दृश्य अद्भुत है। अभूतपूर्व भी। दिल्ली में ऐसा पहले नहीं देखा गया।
क्या प्लान है? पूछने पर एक युवा ने बताया कि यहीं रहना है। कब तक? जब तक सरकार मान नहीं जाती। नहीं मानी तो? यहीं बैठे रहेंगे। अजीब बात है। दिल्ली में लोग अपनी आवाज़ सुनाने आते हैं और लौट जाते हैं। यहां लौटने की बात ही नहीं कोई कर रहा। हरनाम सिंह बताते हैं कि अकेले पंजाबी ही हैं जो कच्छ के भूकंप से लेकर कश्मीर की बाढ़ और सुनामी तक राशन पानी लेकर मदद करने निकल पड़ते हैं। उनके साथी बताते हैं कि पंजाबी किसी में भेदभाव नहीं करता। यहां भी नहीं करेगा। पूरी तैयारी है।
ऐसी क्या वजह है? केवल किसान बिल या कुछ और भी? इसके बाद मामला राजनीतिक मोड़ ले लेता है। बुजुर्ग 15 लाख के जुमले से शुरू कर के बीएसएनएल की बिक्री तक आते हैं और मूर्त से अमूर्तन का सैद्धांतिक सफ़र करते हुए विचारों को देशद्रोही ठहराये जाने की बात पर पहुंच जाते हैं।
एकबारगी साईबाबा का नाम पंजाब के किसान के मुंह से सुनकर विश्वास नहीं होता। यह किसान कवि वरवरा राव का नाम ले रहा है। उसी कड़ी में ये सुधा भारद्वाज और मेधा पाटकर को भी गिनवाता है। उसे नहीं पता कि मेधा कल यहीं से होकर गयी हैं और उनके आंदोलन का हिस्सा हैं। वह एक स्वर में इन सब के नाम लेकर बताता है कि आज तो बोलना भी देशद्रोह बना दिया गया है।
यह किसी भी सामान्य पत्रकार को चौंकाने वाली बात हो सकती है, लेकिन पंजाब के किसान आंदोलन से परिचित लोगों के लिए नहीं। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में डॉ. दर्शनपाल से मुलाकात और लंबी बात हुई थी। डॉ. दर्शनपाल क्रांतिकारी किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं और सरकार से वार्ता कर रहे प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं। उस वक्त उन्होंने एक काम की बात कही थी, जिसका मतलब सिंघू बॉर्डर पर किसानों से बात कर के समझ आता है। उन्होंने कहा था कि पंजाब का किसान मूवमेंट बहुत मज़बूत है, लेकिन वह राजनीतिक मूवमेंट नहीं बन पा रहा है। किसानों की चेतना को उनकी ज़मीन से विस्तारित कर के व्यापक राजनीतिक सवालों तक ले जाने का कार्यभार अभी अधूरा है।
क्या यह कार्यभार अब पूरा हो चुका?
इसका एक जवाब हमें विक्की से मिलता है। विक्की पंजाब युनिवर्सिटी के छात्र हैं। ट्रैक्टरों के बीच खाली जगह में बैठकर उनका समूह पोस्टर बना रहा है। विक्की ‘’जय जवान, जय किसान’’ के नारे को अपने तरीके से परिभाषित करते हुए बताते हैं कि कैसे आज नौजवानों के रोजगार का सवाल और किसानों का सवाल आपस में जुड़ चुका है।
किसान आंदोलन और रोजगार आंदोलन का संगम बाप-बेटे की लड़ाई का साझा हो जाना है। यह समझदारी पूरे आंदोलन में साफ़ दिखती है जिसकी अगुवाई तो बुजुर्ग कर रहे हैं, लेकिन कार्रवाई की कमान उन्होंने नौजवानों की अगली पीढ़ी को दे रखी है। नौजवान अपने बुजुर्गों की बात का सम्मान करना जानता है। उसे अपनी सीमाएं पता हैं और आंदोलन में अपनी भूमिका भी मालूम है।
इनमें सिर्फ लड़के नहीं, लड़कियां भी शामिल हैं। इसमें सिर्फ छात्र ही नहीं, कलाकार और कवि भी शामिल हैं। यह लड़ाई पुरुष सत्ता के खिलाफ़ है। यह लड़ाई रचनात्मकता के पक्ष में है। आम तौर से किसान सोचते ही पुरुष किसान की छवि दिमाग में आती है, लेकिन महिला खेतिहर की भूमिका खेतीबाड़ी में कहीं ज्यादा अहम होती है। यहीं पैदा होता है जेंडर का सवाल। यह आंदोलन इस सवाल को भी संबोधित कर रहा है।
कह सकते हैं कि जो आंदोलन हमें ऊपर से पंजाब के किसानों का दिख रहा है, उसकी राजनीतिक चेतना का प्रसार इतना हो चुका है कि परिवार की बुनियादी इकाई उसमें पूरी तरह शामिल है। बाप की लड़ाई, बेटे की लड़ाई, बेटी की लड़ाई और उसके माध्यम से मां की लड़ाई सब एक संग गुंथी हुई हैं। इसीलिए पंजाब का किसान अकेले नहीं, उसका पूरा परिवार इस आंदोलन के मोर्चे पर है।
फगवाड़े से आये एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘’गांव में हम बोलकर आये हैं कि इंतज़ार मत करना। हम जा रहे हैं।‘’ पठानकोट से आये एक युवा कहते हैं, ‘’बड़े-बूढ़े जब साथ हैं तो हमें किस बात का डर। जैसा वे कहेंगे वैसा हम करेंगे।‘’ जसमीत ने 26 नवंबर को कई बैरिकेड अपने ट्रैक्टर से तोड़े थे। उनकी हिम्मत उनके शब्दों में झलकती है, लेकिन इस हिम्मत की सीमा यह है कि अपनी ओर से कोई वार नहीं करना है।
संपन्नता में छुपी बग़ावत की ताकत
खेती-किसानी को बचाने के लिए पंजाब में परिवारों के साथ होने के पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं, जो यूपी-बिहार के टूटते परिवारों और समाजों में नहीं दिखते। एक बुनियादी कारण है औसत संपन्नता का ज्यादा होना। यह संपन्नता औसतन हिंदी पट्टी के राज्यों से ज्यादा क्यों है, इसे सुखजीत सिंह अच्छे से समझाते हैं:
वर्तमान में भारत में केवल 6 परसेंट किसानों को एमएसपी मिलता है और यह भी उनके कुल उत्पदों के 35 परसेंट के लिए ही। इस तरह से देखें तो केवल 2 परसेंट उत्पादों को एमएसपी हासिल है। यानी न तो एमएसपी किसान आयोग की सिफारिशों के हिसाब सेदिया गया और न ही सभी फसलों के लिए दिया गया (वैसे भी एमएसपी की आधिकारिक सूची में केवल 23 फीसदी फसलें शामिल हैं लेकिन ज्यादातर क्रियान्वयन केवल गेहूं और धान के लिए ही होता है)। स्वामिनाथन रिपोर्ट मंडी के लिए प्रति वर्ग किलोमीटर की परिभाषा सुझाती है। फिलहाल हम इसके मुताबिक निकलने वाली संख्या के 25-30 फीसदी संख्या पर हैं। यानी हमने अभी तक मंडी ही उपलब्ध नहीं करायी है किसानों को। फिर सवाल उठता है कि किसानों को मंडी कहां उपलब्ध है? इसका जवाब है- केवल वहीं जहां एमएसपी तक किसानों की पहुंच है। यानी मोटे तौर पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी।
सुखजीत सिंह, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं? बुनियादी सवाल का आसान जवाब
पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार का सामान्य निवासी इस संपन्नता को नहीं समझ पाता। उसे स्कॉर्पियो, एसयूवी, ट्रैक्टर आदि का दृश्य एकबारगी डराता है। किसान की अपनी मानसिक परिभाषा में वह इस दृश्य को फिट नहीं कर पाता। कई साल पहले पहली बार पंजाब के एक गांव में पहुंचने पर खिड़की के बाहर लगे एसी के कम्प्रेसर को देखकर मैं खुद चौंका था। यह सच है कि इस संपन्नता की अपनी जाति है और वर्ग भी, जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने इशारा किया है।
पंजाब में मालवा की बेल्ट में ऐसी संपन्नता कम दिखती है। वहां के किसान आंदोलन की प्रकृति दूसरी है। संगरूर, बरनाला, बठिंडा, फिरोज़पुर, फरीदकोट आदि जिले हरित क्रांति के दुष्परिणामों के चलते डार्क ज़ोन बन चुके हैं। वहां की दलित भूमिहीन आबादी बहुत बड़ी है। उसकी लड़ाई के तरीके अलग हैं। उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या मंडी की परवाह नहीं क्योंकि उसके पास ज़मीन ही नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में संगरूर से उठे ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के आंदोलन की कामयाबी के पीछे पंजाब का बेहद विभाजक जातिगत चरित्र है, जिस पर मैंने कुछ साल पहले लंबी रिपोर्ट लिखी थी।
इसके बावजूद मंडी और एमएसपी के सवालों को सिर्फ इसलिए नहीं अनदेखा किया जा सकता कि इसके साथ संपन्न किसानों की समस्या जुड़ी है। भारत के किसान आंदोलनों का चरित्र देखें तो पश्चिमी यूपी से लेकर कर्नाटक तक ऐतिहासिक रूप से सबसे सफल आंदोलन संपन्न किसानों के ही रहे हैं। ऐसे आंदोलनों ने अतीत में देश की सत्ताओं को बनाने-बिगाड़ने का काम भी किया है। किसान आंदोलन का राजनीतिक आंदोलन बन जाना एक ऐसा स्वप्न है जो बरसों पहले इस देश में विभाजनकारी और अस्मितावादी राजनीति के चक्कर में पीछे चला गया था। मौजूदा किसान आंदोलन इस बात का संकेत है कि वह दौर एक बार फिर लौट सकता है। दशकों खेती किसानी को कवर करने वाले पत्रकार पी. साइनाथ भी मान रहे हैं कि यह आंदोलन केवल किसानों का नहीं, पूरे समाज का है। इसके साथ पूरे समाज को खड़ा होना होगा।
इसी समझदारी को लेकर हम गुरु पूर्णिमा की देर शाम सिंघू बॉर्डर से रवाना हो रहे थे। बत्तियां जल गयी थीं। गुरु पर्व मनाने के लिए किसानों ने उन बैरिकेडों पर भी मोमबत्तियां जलायी थीं जिन्होंने उन्हें रोका था और जिन्हें उन्होंने अपने ट्रैक्टरों से तोड़ा था। बिलकुल यही दृश्य यूपी के बॉर्डर पर भी था। बैरिकेड के उस पार जवान और इस पार किसान, बीच में प्रकाश और आकाश में पूर्णिमा का दमकता चांद!
वापसी में रिंग रोड से हमने दायीं तरफ़ नीचे की ओर बुराड़ी के विशाल मैदान पर नज़र डाली। वहां अंधेरा था। तने हुए सफेद सरकारी तम्बुओं के बीच घना अंधेरा। इसी अंधेरे से भागकर योगेंद्र यादव बार-बार सिंघू बॉर्डर की ओर जा रहे हैं। उधर सरदार वीएम सिंह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के किसानों का इस अंधेरे में आह्वान करने के बाद इस बात से नाराज हैं कि सरकार ने उन्हें बातचीत के लिए नहीं बुलाया।
रामलीला ग्राउंड के प्रेत की वापसी
फिलहाल सरकार और किसानों के बीच तीसरे दौर की बातचीत नाकाम रही है। चौथे दौर की कल यानी 3 दिसंबर को होने वाली है। कितने ही दौर की बातचीत क्यों न हो, बॉर्डर पर जमे किसानों को गिनती करने में कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि वे दौर गिनने नहीं, दौर-ए-निज़ाम को बदलने आये हैं। उन्हें इस दौर के खत्म होने का इंतज़ार है। उनके ट्रैक्टर-ट्रालों में राशन और डीज़ल फुल है। ऐसे ऐतिहासिक पल का केवल दो ही तरह से अंत हो सकता है- घात या विश्वासघात।
घात के लिए अलीपुर थाने में सरकार की ओर से एक एफआइआर हो चुकी है। दिल्ली पुलिस के पटकथा लेखक की दक्षता पर भला किसे शक़ होगा? हमने दिसंबर 2019 में शुरू हुए नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन को फरवरी 2020 में दिल्ली दंगे में बदलते देखा है। यादें ताज़ा हैं।
विश्वासघात का सबक बहुत पुराना नहीं पड़ा है। केवल आठ साल पहले जेपी आंदोलन के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन कही जाने वाली एक परिघटना ने जन्म लिया था। वादा था कि भ्रष्टाचार खत्म होगा। आज एक मुल्क के रूप में हम सभ्यता के रिवर्स गियर में चलते-चलते जहां पहुंचे हैं, यह उसी आंदोलन की देन है। उस सबक के बाद अब इस देश में शायद अगले तीस साल तक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई गुबार न उठे, लेकिन खतरा अब भी बाकी है।
रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार विरोध का गुबार उठाने वाले चेहरों में से कुछ को अपनी मंजिल मिल गयी, कुछ प्यासे रहे गये थे। ये अतृप्त प्रेत अब निरंकारी हो चुके हैं। जिस तरीके से 1 दिसंबर को किये आत्मप्रचार के बाद मीडिया में कवरेज से दबाव बनवाकर योगेंद्र यादव 2 दिसंबर की शाम सिंघू बॉर्डर वापस लौटे हैं, अब तक इत्मीनान से बैठे किसानों की बेचैनी अचानक बढ़ गयी है।
दरअसल, योगेंद्र यादव के दावे का जो अर्थ निकल कर किसानों के बीच जा रहा है, वह गंभीर है। NDTV पर उन्हें फिर से सुनिए: योगेंद्र का कहना है कि उनके नाम पर एतराज़ जताते हुए सरकार ने शर्त रखी थी कि बातचीत तभी होगी जब यादव प्रतिनिधिमंडल में नहीं होंगे। यह बात सच है या झूठ, इसमें न जाते हुए बस इतना समझें कि किसानों का जो प्रतिनिधिमंडल सरकार से बात करने गया उसमें यादव नहीं थे। यानी योगेंद्र यादव के कहने का अर्थ यह है कि किसान संगठनों ने बातचीत के लिए अमित शाह की रखी शर्त मान ली!
इस तरह यादव ने दो काम किये: एक, किसानों द्वारा किये गये अपने शुरुआती नरम बहिष्कार के बाद मीडिया प्रचार के माध्यम से आंदोलन की लीडरशिप में अपनी वापसी का रास्ता साफ़ करना। दूसरे, किसान नेतृत्व पर इस बात का नैतिक दबाव कायम करना कि वह उनके बगैर कोई फैसला न ले। इसी का नतीजा रहा 2 दिसंबर की शाम संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस कॉन्फ्रेंस में योगेंद्र यादव की मौजूदगी।
आंदोलन आगे भी ले जाते हैं, पीछे भी। ऊपर भी ले जाते हैं, नीचे भी। मौजूदा आंदोलन केवल किसानों का आंदोलन नहीं है, इस मुल्क के मुस्तकबिल को तय करने का आंदोलन है। अब खतरा इस बात का है कि इसे किसानों की एक अदद मांग तक लाकर न पटक दिया जाय। मान लीजिए कि कल को सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी देने को तैयार हो जाय और योगेंद्र यादव सहित उनके तमाम समाजवादी हितैशियों ने पंजाब के किसानों को दबाव में लेकर इसे स्वीकार करने को राज़ी कर लिया, तब? आप कितने साल बाद उम्मीद करते हैं कि किसानों का जत्था दोबारा राशन पानी लेकर दिल्ली आएगा?
अभिषेक श्रीवास्तव उत्तर प्रदेश के पत्रकार हैं, ज्यादातर जन आंदोलनों पर केंद्रित जमीनी रिपोर्ट करते हैं और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर एक अप्रकाशित पुस्तक के लेखक हैं। सभी तस्वीरें और वीडियो अभिषेक श्रीवास्तव व मनदीप पुनिया ने ली हैं। सारे लाइव मनदीप पुनिया ने किए हैं।