गोवा में गणपति विसर्जन की छुट्टियों के बीच वह एक ऊंघती हुई दोपहर थी। प्रवासी मज़दूरों के बीच काम करने वाली संस्था ‘दिशा फाउंडेशन’ के कुछ साथियों के साथ मैं एक थोक मछली बाज़ार में खड़ा था। बाज़ार बंद था। इलेक्ट्रॉनिक तराजुओं की लाल बत्तियां गुल थीं। मछलियाँ नहीं आयी थीं। ग्राहक ग़ायब थे। मालिक नदारद। अलबत्ता उनके मुलाज़िम मोबाइल की नशीली दुनिया में खोये हुए थे। तभी किसी के मोबाइल में झारखंड के छोटानागपुर इलाके में बोली जाने वाली सदरी भाषा में लोकप्रिय गीत बजा, “साइकल से आया सनम साइकिल से रे… राँची से राउरकेला तेरे लिए…!” बीस-बाईस साल के दो युवक प्लास्टिक की चादर पर लेटे हुए इस गाने का वीडियो देख रहे थे।
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, ये दृश्य आम होते गए। यह नज़ारा था राँची से क़रीब 2000 किलोमीटर दूर गोवा की मलिम जेट्टी का, जहां झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के कोई पांच हजार आदिवासी मजदूर बड़ी नावों में मछली पकड़ने का काम करते हैं।
गोवा अपने आकर्षक समुद्री किनारों, आधुनिक जुआघरों और उन्मुक्त जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध है। इसकी इन लोकप्रिय ख़ासियतों से दूर हम मलिम जेट्टी नाम की ऐसी जगह पर थे जो फिशिंग की गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। समुद्र से लौटी नावें यहां पनाह पाती हैं। यहां मछलियों का एक थोक बाज़ार है, जहां इन नावों से उतारी गयी मछलियाँ बेचने के लिए लायी जाती हैं। कुछ दिनों बाद वापस ये नावें यहां से ज़रूरी ईंधन, बर्फ, पानी और राशन लेकर हफ़्ते-दो हफ़्तों की फिशिंग यात्रा पर गहरे समुद्र की ओर निकल जाती हैं। वे जब लौटती हैं, तो कई क़िस्म की मछलियों से भरी होती हैं।
‘डायरेक्टरेट ऑफ़ फिशरीज़, गोवा-2015’ के एक आंकड़े के मुताबिक़ 2015 में यहां से क़रीब 89,230 मीट्रिक टन मछलियाँ पकड़ी गयी थीं। यहां फिशिंग के कारोबार में करीब 350 बोट शामिल हैं और मछलियों से भरे 15 से 20 बोट रोज़ डॉक पर पहुँचते हैं। इस जेट्टी की अपनी एक सोसाइटी है। सोसाइटी का अपना डीजल पम्प है जहां से सारे ट्रॉलर को डीजल मिलता है। बर्फ की एक फैक्ट्री भी है। समुद्र में 10-15 दिनों तक मछलियों को ताज़ा रखने के लिए ज़रूरी बर्फ की आपूर्ति यहीं से होती है। एक वर्कशॉप है, जहां बोट में आयी दिक्कतों को दुरुस्त किया जाता है। मजदूरों के राशन के वास्ते एक ग्रोसरी शॉप है, जहां से समुद्र में उतरने से पहले राशन लिया जाता है।
ताज़ा मछली के प्रेमियों के लिए जेट्टी जैसी जगहें जन्नत सरीखी होती हैं। 2018 में मछलियों में हानिकारक फार्मलीन रसायन पाये जाने की ख़बर के बाद गोवा के कई बाशिंदे सीधे जेट्टी पर आकर मछलियाँ ख़रीदने लगे थे। उनके अनुसार बोट से उतारी गयी मछलियाँ ताज़ा और किसी किस्म की छेड़छाड़ से मुक्त होती हैं, हालांकि गोवा की स्थानीय आबादी यहां पकड़ी जाने वाली सभी प्रजाति की मछलियाँ खाना पसंद नहीं करती। यहां ज्यादातर लोग मुलेट, सोल, सुरमई, रावस खाते हैं। ग्रे मुलेट को गोवा की स्टेट फिश का दर्ज़ा हासिल है। गोवा में मैकरेल, टूना, लेदर जैकेट जैसी मछलियाँ भारी मात्रा में पकड़ी जाती हैं, लेकिन इनका बाज़ार केरल में हैं। गोवा के लोग इन मछलियों को पसंद नहीं करते।
जेट्टी के मजदूरों की दुनिया
मुझे रात की ‘गोवन थाली’ की सुरमई मछली के एक कुरकुरे तले टुकड़े की याद हो आती है और मैं अपने प्लेट तक की उसकी यात्रा को समझना चाहता हूं। नावों से उतरकर डॉक की तरफ आते मज़दूर मुझे यह बताने के लिए सबसे उचित पात्र लगते हैं। यहां एक मिश्रित गंध है, डॉक से सटे पानी की। एक-दो रोज़ पहले उतारी गयी मछलियों की। समुद्र से निकले जालों की और अधजले डीजल की। सामने रंग-बिरंगे जालों से बने क़रीब छह फुट ऊँचे ढेर पर कई मज़दूर बैठे सुस्ता रहे हैं। यह किसी टीले पर बैठने की तरह है। ऐसा लगता है जैसे यह ढेर कई जालों से मिलकर बना है पर आश्चर्य! यह महज़ एक जाल का इतना ऊँचा ढेर है।
“यह जाल इतना बड़ा होता है कि फेंकने पर पानी में दूर तक फ़ैल जाता है। फिर सब जन मिलकर उसको खींचते हैं”, बीच में बैठा 21 साल का सुनील सोरेन जाल को लेकर मेरी अनभिज्ञता पर मुस्कुराता है। वह झारखंड में राँची से सटे खूंटी जिले के रनिया गाँव का है। दो साल पहले अपने ही गाँव के ‘संगी लोग’ के कहने पर गोवा आया है। ‘इस तरह ऊपर क्यों बैठे हो’ के जवाब में सुनील हँसता है। मैं आसपास देखता हूं। बैठने की कोई दूसरी जगह नहीं दिखती। क़रीब 120 मीटर फैले जेट्टी में महज़ दस मीटर का एक शेड है। बाक़ी हिस्से में चमकीली धूप फैली है। कहीं कोई बेंच नहीं है। मज़दूर या तो लंगर पड़े अपने ट्रॉलर पर बैठे नज़र आ रहे हैं या जाल के ऊँचे ढेर पर।
मलिम जेट्टी में ट्रॉलर मालिकों की एक सोसाइटी है जो यहां के विकास और फिशिंग से जुड़ी समस्याओं पर काम करती है। जनवरी 1984 में बने इस ‘मोंडोवी फिशरीज़ मार्केटिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटी’ ने 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के सामने मलिम जेट्टी की कई समस्याओं के बीच छोटे शेड की समस्या भी रखी थी, लेकिन इस चिंता में मज़दूरों के बैठने-सुस्ताने का सवाल नहीं था। शेड बढ़ाने की माँग मछलियों के ऑक्शन वाली जगह बढ़ाने से जुड़ी थी।
मेरे इस सवाल पर कि दिन तो यहां गुजार लोगे पर रात में कहाँ सोओगे, उसके साथ बैठे कर्मा नाम के लड़के ने सामने लंगर पड़े ट्रॉलर की ओर इशारा किया- “दामोदर ही हम सबका घर-दुआर है।”
सामने डॉक से सटा दामोदर ट्रॉलर पानी में अविचल खड़ा है। दामोदर के ठीक बगल में गंगा नाम का ट्रॉलर खड़ा है। फिशिंग के लिए तीन साइज के ट्रॉलर इस्तेमाल किये जाते हैं। इन्हें बोट, ट्रॉलर, वेसल कुछ भी कहा जाता है। इनमें इंजन लगे होते हैं जिन्हें डीजल से चलाया जाता है। सबसे छोटे साइज का ट्रॉलर 9-10 मीटर का होता है जिसमें पांच से आठ लोग मछली मारने जाते हैं। मध्यम आकार के ट्रॉलर 15-16 मीटर लम्बे होते हैं जिसकी क्षमता 11-12 लोगों की होती है। दामोदर एक बड़ा ट्रॉलर है जो 20 से 23 मीटर लम्बा है। इसमें ड्राइवर और मजदूरों को मिलाकर कुल 30-35 लोग सवार हो सकते हैं।
दामोदर के खुले ट्रॉलर में ड्राइवर के केबिननुमा कमरे को छोड़कर सोने लायक कोई जगह नहीं दिख रही है। कमरा बीच से दो खंड में बंटा है। एक खंड ऊपर, दूसरा नीचे। इनमें ट्रेन के बर्थ की तरह बिल्कुल सटाकर सोने की जगहें बनायी गयी हैं। कुछ लोग लेटे हुए हैं। मैं चकित हूं। इतनी कम जगह में 30-35 लोग कैसे रह सकते हैं। मेरे इस सवाल पर जाल के ढेर पर बैठे मज़दूर मुझे देख मुस्कुरा रहे हैं।
वहां मौज़ूद सभी लोगों के बीच महज़ 37 साल के छोटे कद और सिकुड़ी देह वाले रामअधेड़ सबसे बड़े दिख रहे हैं। वे भी झारखंड के खूंटी जिले से हैं। वे पिछले नौ साल से यहां हैं। वे बताते हैं, “नीचे भी जगह है।” सब हँस देते हैं। “नीचे बरफ रहता है”– किसी ने धीरे से कहा। ‘इतनी जगह में इतने लोग कैसे’? जिज्ञासा और आश्चर्य से भरा अपना सवाल मैं दुहराता हूं। मुझे अमिताभ घोष की ‘सी ऑफ पॉपीज़’ के जहाज ‘आइबिस’ की याद आ जाती है, जिसके तहखाने की अँधेरी कोठरी में सैकड़ों मज़दूरों के ढोये जाने का वर्णन है। ऊँचे ढेर पर बिल्कुल चिपककर बैठे लोग किसी परिवार सरीखे दिख रहे हैं। ‘आइबिस’ के जहाज भाइयों की तरह। अलग-अलग राज्यों, बोली-भाषाओं और संस्कृतियों के बावज़ूद समान नियति के कारण एक ही ट्रॉलर पर इकट्ठे ठाठें मारते समुद्र में मिलकर जाल खींचते हुए!
शौचालय की व्यवस्था के बारे में पूछने पर सब मुस्कुराते हैं, जैसे पुरुषों के लिए इस सवाल का कोई मतलब ही न हो। मज़दूरों की रिहाइश के संदर्भ में मोंडोवी फिशरीज़ मार्केटिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटी के चेयरमैन फ्रांसिस्को डिसूजा बताते हैं:
हम जान-बूझ कर मज़दूरों को ज़मीन से दूर रखते हैं क्योंकि मज़दूर इधर आते हैं तो अपने पैसे शराब में ख़त्म कर देते हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि ये पानी में ही रहें। हम अपने ट्रॉलर को लंगर लगाकर पानी में ही रखते हैं। ज़रूरी सामान और राशन उन्हें ट्रॉलर पर ही पहुँचा दिया जाता है। गणपति विसर्जन के कारण बोट ड्राइवर छुट्टियों पर हैं इसलिए मज़दूर फ़िलहाल इधर घूम रहे हैं। हमें उनकी सुरक्षा की चिंता होती है। शराब पीकर समुद्र में जाना ख़तरनाक है। कई बार ऐसी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं।
गजानंद भोई इस ढेर पर बैठे लोगों में अकेले ओडिशा (जिला सुंदरगढ़) से हैं जो दामोदर बोट पर ही काम करते हैं। वे धीमे से कहते हैं, “बात सही है। पीने में पैसा बर्बाद तो होता है।” गजानंद 2018 से फिशिंग के काम में हैं और अब 33 साल के हो चले हैं। बीच में कोई उनकी बात काट कर कहता है, “गोवा में पीने में बहुत कम पैसा खर्च होता है।” ये सुनकर सब धीमे से मुस्कुराते हैं। हारो नाम का 27 साल का झारखंड के लोहरदगा का युवक जो ढेर पर किनारे बैठा है और नशे की अधिकता में मुस्कुरा रहा है, कहता है, “हम लोग तरफ से इधर दारू सस्ता है। सब फेनी बोलते उसको लेकिन हंड़िया जितना सस्ता नहीं है। हंड़िया की बात अलग है।”
भोजन मतलब भात
यह दोपहर के भोजन का वक्त है। ट्रॉलर पर हलचल दिख रही है। मज़दूर खुले आसमान में डेक पर हाथ में थाली लिए भात और मसालेदार सूखी मछली खा रहे हैं। यहां ढेर पर बैठे लोगों ने पहले ही खाना खा लिया है। भोजन के बारे पूछने पर प्रकाश बेसरा, जिनकी उम्र शायद 28 साल के आसपास है और जो हम लोगों के अचानक आ जाने से लिहाज में अपनी हथेलियों के बीच तम्बाकू दबाये खड़े है, कहते हैं, “खाना में जो चाहिए सब मिलता है। बोट खुलने के पहले हम लोगों को राशन दिया जाता है। यही राशन अगले 14-15 दिन चलता है।” मैं उनसे ‘सब मिलता है’ का मतलब जानना चाहता हूं।
सब मतलब सब्जी, लेकिन अधिकतर सूखा मछली और भात खाते हैं।
मैं झारखंड में स्थानीय स्तर पर मिलने वाली मीठे पानी की पोठिया, पहाड़ी जैसी कुछ लोकप्रिय मछलियों का नाम लेता हूं और पूछता हूं कि समुद्री मछली उन्हें कैसी लगती है। सब हँसते हैं। “अब इधर का मछली खाने का आदत हो गया है।” 18 से भी कम उम्र का जान पड़ रहा कर्मा, जिसे राँची से आए हुए महज़ दो साल हुए हैं, कहता है, “पहाड़ी, पोठिया यहां कहाँ मिलेगा? रोटी मिलता नहीं है। भात के साथ जो मिल जाता है, खा लेते हैं। किसी तरह समय गुजारना है बस।”
सोसाइटी के चेयरमैन फ्रांसिस्को डिसूजा मज़दूरों की बात निकलने पर कहते हैं, “हम उन्हें पूरा राशन देते हैं। हमें उनका खयाल रखना पड़ता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर मज़दूर अपने गाँव लौटने लगते हैं। अब काम की कमी नहीं है। उनको प्रॉब्लम होने से वे कहीं और काम करने चले जाएंगे इसलिए सारे बोट मालिक एक मैनेजर रखते हैं। ये मजदूरों के साथ डील करते हैं।”
डिसूजा बताते हैं कि मजदूरों को लाने के लिए एजेंट रखे गये हैं। ये एजेंट इन्हीं मजदूरों के बीच का कोई तेज-तर्रार आदमी होता है। वह अपने आसपास के जिलों, गाँवों से लोगों को लाता है। मज़दूर कई बार एक-दूसरे से सुनकर भी यहां काम करने आते हैं। यह चलता रहता है। कुछ नये आते हैं। कुछ वापस चले जाते हैं।
“एजेंट लोग यहां लाने के बदले थोड़ा-बहुत पैसा हम लोग से लेता है। बाकी मालिक लोग से लेता है।” कर्मा कहता है- “हम लोग से हज़ार-पाँच सौ जो मिल जाये। और मालिक लोगों से कितना लेता मालूम नहीं।”
“लेकिन इतने सारे लोग खूँटी जिले से ही क्यों?”
कर्मा कहता है, “लोहरदगा, सिमडेगा, पलामू से भी ढेर जन आए हैं, लेकिन खूँटी से ज्यादा जन हैं।”
बीच से किसी की आवाज़ आती है, “खूँटी में गोवा फेमस है। यहां के बारे में सब जन को पता है कि इधर मछली पकड़ने का काम है। ईंट-सीमेंट या फैक्ट्री का काम किसी को अच्छा नहीं लगता। सब ये मज़बूरी में करते हैं। मछली मारना ठीक लगता है। इधर का दोस्त लोग बोला आ जाओ तो आ गये। अब चार-पाँच साल इधर ही रहेंगे। उधर राँची तरफ कोई काम भी नहीं है।” इकहरी देह वाला नयी उमर का सुशील सांगा जो खूँटी से महज़ चार महीने पहले आया है तंबाकू थूकते हुए कहता है।
“ज़रूरी थोड़ी न है, सब जन दिल्ली, गुजरात में काम करेगा। उधर के काम में भी मज़ा नहीं है।”
बेफ़िक्री में तंबाकू चबाता सुशील हमें ‘आदिवासियत’ का एक सूत्र पकड़ा देता है। अपने जल, जंगल, ज़मीन के बीच पले-बढ़े एक आदिवासी के लिए कंस्ट्रक्शन या फैक्ट्री के बजाय फिशिंग का काम चुनना उसकी प्रकृतिपूजक संस्कृति के ज़्यादा क़रीब है।
“हफ़्ते भर इस तरह समुद्र में रहने में दिक्कत नहीं होती? डर नहीं लगता?”
“डर नहीं, समुद्र में शांति लगती है। इधर आने पर बहुत हल्ला होता है। शुरू में बोट में उल्टी जैसा लगता है। दिन भर चक्कर आता रहता है। फिर आदत हो जाता है।” कंधे उचकाता सुशील कहता है।
“मछली पकड़ना सीख गए?” मैं जिज्ञासावश पूछता हूं।
सुशील कहता है, “हमें दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता। हमें सिर्फ जाल फेंकना और बाद में उसे खींचना होता है। खींचने का काम बहुत भारी काम है। जाल दूर तक फ़ैला होता है। खींचते-खींचते हाथ दर्द करने लगता है। अगर कोई बड़ी मछली जाल में आ गयी तो उसे छोड़ना पड़ता है, नहीं तो भारी होने के कारण उससे बोट पलट जाएगी।”
डिसूजा बताते हैं:
हर ट्रॉलर पर दो ड्राइवर और दो फिशिंग के जानकार मछुआरे होते हैं। मछुआरे तय करते हैं, जाल कैसे-कहाँ गिराना है, कब समेटना है। मजदूरों का काम बस जाल खींचना है। वैसे जाल खींचने के लिए बोट में मशीन लगी है लेकिन इससे जाल को नुकसान पहुँचता है इसलिए यह काम मज़दूरों को करना पड़ता है। फिर जब ट्रॉलर डॉक पर आकर लगता है तो मछलियों को उतारने, उन्हें अलग-अलग छाँटने और गाड़ियों में लादने का काम भी मज़दूरों का होता है। इसी तरह जब वापस समुद्र में जाने की बारी आती है तो मज़दूर ट्रॉलर में बर्फ, जाल, पानी आदि लोड करते हैं। इसी क्रम में नये मज़दूर अनुभवी मज़दूरों से ये सब सीखते जाते हैं।
अब मैं पलामू के 25 साल के सुंदर बेसरा से वह सवाल पूछता हूं जिसे पूछना आम तौर पर पुरुषों के लिए निषेध माना जाता है। “तो ये लोग इन सब कामों के लिए कितना पैसा देते हैं?”
ढेर पर एक चुप्पी देखने को मिलती है। “जो जितना मोल-भाव कर सके। किसी को बारह हज़ार, किसी को पंद्रह हज़ार रुपया महीना”- राम बताते हैं।
सोसाइटी के चेयरमैन फ्रांसिस्को डिसूजा के मुताबिक कुछ मज़दूर मंथली पैसे चाहते हैं तो कुछ साल में एकमुश्त। बोट मालिक उन्हें मैनेजर के जरिये पैसे देते हैं। सारा हिसाब मैनेजर के जिम्मे होता है। मैनेजर ही इनके राशन का इंतज़ाम करता है। मज़दूर पैसे शराब आदि में न उड़ा दें या घर ले जाते वक्त छिनतई के शिकार न हो जाएं, इससे बचने के लिए कैश के बजाय इनके अकाउंट में पैसे डाले जाते हैं। बहुत सारे मजदूरों का अपना बैंक अकाउंट नहीं होता, इस स्थिति में पैसे उनके एजेंट के अकाउंट में भेज दिये जाते हैं। एजेंट कुछ सर्विस चार्ज लेकर पैसे उनके परिवार तक पहुँचा देता है। तयशुदा रकम के अलावा अतिरिक्त ख़र्च के लिए प्रत्येक मजदूर को क़रीब 100-200 सौ रुपये अलग से हर ट्रिप पर मिलते हैं। ये रुपये समुद्र से बाहर आने पर नाश्ता-पानी, बीड़ी-तंबाकू, हाफ पैंट, बनियान, शराब आदि में खर्च होते हैं।
भोई इसकी तसदीक करते हैं, “जब ज्यादा मछली पकड़ा जाता है, तो बोट मालिक ख़ुश होकर 100-200 रुपया एक्स्ट्रा देता है। इसी से हम लोगों का खर्चा-पानी निकलता है।”
पैसे में गड़बड़ी के सवाल पर डिसूजा कहते हैं, “गड़बड़ी का कोई मामला ही नहीं है। पैसा नहीं मिलेगा तो ये अगले दिन बैग उठाकर चल देंगे। उधर जाकर ये इधर का प्रॉब्लम बताएंगे तो फिर यहां कोई आएगा ही नहीं। इसलिए हम कोशिश करते हैं इनका पूरा पैसा इनके परिवार तक पहुँचता रहे। ये ख़ुश रहेंगे तभी काम करेंगे।”
“और छुट्टियाँ?” मेरे इस सवाल पर राम कहते हैं, “बरसात में जब समुद्र उफनाता है तो मछली पकड़ना मना हो जाता है। 15 जुलाई तक हम लोग घर निकल जाते हैं। फिर दो महीना रहकर 15 सितम्बर तक वापस आ जाते हैं।”
मैं उनसे जानना चाहता हूं कि घर लौटते समय वे यहां से क्या लेकर जाते हैं? एक लड़का जो उस ढेर पर मेरे आने के समय से ही बैठा है और कम से कम तीन पान मसाला फाड़ चुका है, अचानक नीचे कूदता है और पीक उगलकर कहता है, “सूखा मछली और फेनी ले जाते हैं।” वह इतनी देर में पहली बार हँसता है और नाम बताये बगैर चला जाता है। वहां बैठे सभी लोगों में उस अकेले लड़के के पास स्मार्टफोन है। बाद में राम बताते हैं, “और कुछ जन के पास मोबाइल है पर सब बोट पर चार्ज में लगा है।”
मैं उनसे अगले हफ़्ते आने वाले उनके प्रमुख त्योहार सरहुल पर उनकी योजना के बारे में पूछता हूं। सरहुल की बात सुनकर वहां बैठे सभी जैसे निराश हो उठते हैं।
“यहां कहां सरहुल?” नये लड़के कर्मा की आवाज़ में सचमुच निराशा है। मैं कर्मा को छेड़ता हूं, “करमा परब भी आ रहा है।” सब उसकी ओर देखकर मजे लेने की तरह हँसते हैं। सरहुल और करमा आदिवासियों का बड़ा पर्व है जिसका साल भर शिद्दत से इंतज़ार किया जाता है। सुंदर कहता है, “मैनेजर को बोलेंगे, मुर्गा बनवाओ। फेनी साथ मुर्गा भात खाएंगे।”
दामोदर के पास ही गंगा ट्रॉलर खड़ा है। ट्रॉलर में रखे बड़े ड्रम के पानी से कुछ लोग सामूहिक स्नान कर रहे हैं। यही बड़े ड्रम पानी की आपूर्ति के माध्यम हैं जिन्हें खाली होने पर फिर से भरा जाता है। कुछ मज़दूर हाथ में थाली पकड़े भात और मछली खा रहे हैं। वहीं मुझे रोशन सोरेन मिला। 22 साल का जवान लड़का। हाथों पर टैटू और स्टाइलिश हेयर कट। वह झारखंड के सिमडेगा का है। उसने अभी-अभी खाना निपटाया है और थाली रखकर पान की गुमटी की तरफ जाने की हड़बड़ी में है। उसने बताया, वह 17 की उम्र में ही यहां चला आया था। वह हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। उसका चयन दानापुर आर्मी हॉकी टीम के लिए हुआ था, लेकिन कोच ने बदमाशी कर किसी और का नाम आगे कर दिया। उसके बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और काम करने गोवा आ गया।
‘अब आगे क्या’ के जवाब में रोशन कहता है, उसे गोवा बहुत पसंद है। वह आगे भी यहीं रहेगा। उसके संगी उसे बुलाते हैं और वह ‘बाय’ बोलकर तेजी से दौड़ता हुआ चला जाता है। उसके दौड़ने-चलने में अब भी किसी हॉकी खिलाड़ी सरीखे ऊर्जा और चपलता दिखती है।
हम सोसाइटी द्वारा संचालित बर्फ की फैक्ट्री देखने जाते हैं। भीतर अमोनिया की गंध भरी है। अपने रौ में होने पर फैक्ट्री से 35-40 टन बर्फ प्रतिदिन निकलती है। मछलियों से भरे ट्रॉलर का दो हफ़्तों तक समुद्र में रहने का मतलब है ख़ूब सारी बर्फ़ का इंतज़ाम। जब तक बर्फ़ है, आप समुद्र में रहते हैं। एक बार बर्फ़ पिघलनी शुरू हुई, आपको लौटना होता है अन्यथा सारी मछलियाँ ख़राब हो जाएंगी।
“मतलब समुद्र की जो मछली हम फ्रेश कहकर खाते हैं, वह हफ़्ते-दस दिन भी पुरानी हो सकती है?” डिसूजा हँसते हुए जवाब देते हैं, “हाँ, लेकिन उसे फ्रेश ही कहा जाएगा। बर्फ़ का यही तो काम है।”
बर्फ़ बनाने की फैक्ट्री में भी तीन-चार मज़दूर दिखते है। बंद पड़ी मशीनों पर और आसपास उनके गीले कपड़े सूख रहे हैं। बोट के मज़दूरों की तरह यहां के लोगों को ट्रॉलर में सोने की मज़बूरी नहीं है। उनके पास 8 बटे 10 का एक छोटा सा कमरा है जिसमें अभी छोटे गैस पर दोपहर का खाना बन रहा है।
अहाते में ही एक सरकारी कार्यालय दिखता है। यहां समुद्र में उतरने वाले सारे ट्रॉलर का रिकॉर्ड रहता है। इसी कार्यालय से समुद्र में जाने का पास बनता है। बड़े ट्रॉलर को अधिकतम 15 दिनों तक समुद्र में रहने की इज़ाज़त है। 15 दिनों बाद उन्हें आकर बताना होता है कि वो आ गए। छोटे बोट के लिए यह अवधि 3-4 दिनों की होती है। देर करने पर अगली फिशिंग यात्रा के लिए पास मिलने में मुश्किल आती है। वहां के अधिकारी मुझे एक पुराना पास दिखाते हैं जिसमें कई बातें दर्ज़ हैं। मसलन ट्रॉलर का मालिक कौन है? ट्रॉलर किस साइज का है? कितना डीजल भरा गया है? उसमें कितने मज़दूर सवार होंगे? आपातकालीन स्थितियों में ये रिकॉर्ड काफी मददगार साबित होते हैं। लॉकडाउन हटने और समुद्र में जाने की इज़ाज़त मिलने के बाद इस कार्यालय में वापस चहल-पहल दिख रही है।
लॉकडाउन में समूचे देश की तरह मलिम जेट्टी की दुनिया भी उजड़ गयी थी। मज़दूर जैसे-तैसे घर पहुँचे थे। लॉकडाउन की बात निकलने पर मजदूरों के बीच एक उदासी छा जाती है। कोई उस दौर को नहीं याद करना चाहता है पर डिसूजा याद करते हैं, “बहुत बुरा समय था। फिशिंग बिजनेस अब भी उसकी मार का सामना कर रहा है। लॉकडाउन के बाद स्थिति अच्छी नहीं है। मज़दूर पूरी संख्या में नहीं लौटे हैं। जितने ट्रॉलर समुद्र में उतरने चाहिए, नहीं उतर पा रहे। जिनके पास चार-पाँच ट्रॉलर हैं, वो समुद्र में एक-दो ट्रॉलर ही उतार पा रहे हैं। ऊपर से डीजल की कीमतों ने पूरे फिशिंग बिजनेस को पीछे धकेल दिया है। एक बड़़े ट्रॉलर को 15 दिनों के लिए समुद्र में भेजने का ख़र्च क़रीब तीन लाख बैठता है। इसमें डीजल, बर्फ, मज़दूरी, राशन और पानी का खर्च शामिल है लेकिन तीन लाख लगाकर मात्र 70 से 90 हज़ार की मछलियाँ हम पकड़ पा रहे हैं। यह एक बड़ा नुकसान है। गोवा सरकार की तरफ से भी कोई राहत नहीं है। यहां के फिशरीज मिनिस्टर जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं, उनके अपने बोट भी चलते हैं लेकिन चूँकि ये सरकार में शामिल हैं तो डीजल की कीमतों पर कुछ नहीं बोलते।”
फरवरी 2021 में केंद्रीय मत्स्यपालन मंत्री गिरिराज सिंह ने गोवा को मत्स्यपालन का केंद्र बनाने के लिए 400 करोड़ रुपये के निवेश की घोषणा की है। इसमें मलिम जेट्टी की तरह गोवा में 30 और नये जेट्टी बनाये जाने की योजना है। जेट्टी बढ़ेंगे तो ट्रॉलर बढ़ेंगे। ट्रॉलर बढ़ेंगे तो मज़दूरों की जरूरत बढ़ेगी।
“उससे क्या होगा? हम लोगों का मज़दूरी बढ़ाएगा तब न…?” राम यह कहकर मुस्कुराने लगते हैं।
सहयोग : निशा भारती, विनीत कुंडइकर, वैभव भिड़े (दिशा फाउंडेशन)
(तस्वीरें : निशा भारती)