बीते हफ्ते महाराष्ट्र के प्रखर चिंतक विलास सोनवणे का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। जाति के सवाल पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के बाद विलास की जो बौद्धिक और राजनीतिक यात्रा रही, उसने उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक जाति व्यवस्था के खिलाफ कई प्रगतिशील आंदोलनों को खड़ा किया। प्रस्तुत लेख उन्होंने अपने वरिष्ठ कामरेड शरद पाटिल की आलोचना में लिखा था जो फरवरी 2015 में समकालीन तीसरी दुनिया में अनूदित होकर छपा। यह लेख जाति, धर्म, वर्ग और सामाजिक संरचना को समझने के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। इसे पढ़ के कम्युनिस्ट पार्टियों की जाति को लेकर ऐतिहासिक समझदारी, भारतीय समाज के संदर्भ में मार्क्सवाद और समकालीन बहुजन आंदोलन के पहचान की लड़ाई में तब्दील हो जाने की समस्याओं पर भी समझ साफ होती है।
संपादक
1917 तक मार्क्सवादी विचार-विमर्श यूरोप और अमेरिका की सीमाओं के बाहर ज्यादा नहीं गया हुआ था किन्तु मार्क्स ने अपने ग्रंथ ‘दास कैपिटल’ में जिस पूंजीवाद का विश्लेषण किया है, वह पूंजीवाद यूरोप-अमेरिका की सीमाओं के बाहर जा चुका था जिसका सबूत हम प्रथम विश्वयुद्ध में ग्रेट ब्रिटेन की ओर से हुई अनेक देशों की साम्राज्यवादी सैनिक गोलबंदी में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। इस महायुद्ध में शामिल सामंती साम्राज्यवादी जारशाही को सर्वहारा जनविद्रोह द्वारा परास्त कर रूसी सर्वहारा क्रांति का जन्म हुआ था। इस रूसी क्रांति ने मार्क्सवादी विचार-विमर्श को पहली बार पूरी दुनिया भर में विस्तार देने का काम किया। उस वक्त तक उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाइयां राष्ट्रवादी लड़ाइयां थीं और उनके पास अपना कोई स्वतंत्र दृष्टिकोण नहीं था। रूस की क्रांति ने उन उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाइयों के सामने सवाल खड़ा किया कि, ‘देश में हमारा राज होना चाहिए मगर वह राज किन लोगों की भलाई के लिए चलाया जाएगा’। इस दृष्टिकोण से विमर्श शुरू होने के बाद उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाइयां विश्व साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाइयों में तब्दील होने लगीं। साथ ही इसी दृष्टिकोण के आधार पर उन सभी देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना हुई, परंतु ऐसा होने पर भी उन देशों के स्थानीय सवाल उनके विमर्श का भाग नहीं हो पाए।
समता और स्वतंत्रता के प्रयोगधर्मी योद्धा विलास सोनवणे
वर्ष 1925 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। पार्टी के पहले घोषणापत्र में वर्गविहीन, शोषणविहीन, जातिविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य रखा गया था परंतु जातिवाद के विरोध में किसी भी तरह का स्पष्ट कार्यक्रम उनके पास नहीं था। यह कार्यक्रम न होने के कारण कम्युनिस्ट साथियों ने बड़े ही सरलीकृत शब्दों में यह घोषणा की कि ‘जाति का सवाल क्रांति के बाद अपने आप हल हो जाएगा।’
दूसरे विश्व युद्ध में रूसी लाल सेना द्वारा हिटलर की पराजय के अलावा विश्व में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुईंः यू.एन.ओ., वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ. और आई.एल.ओ. जैसे अंतर्विरोधों के सामंजस्य रूपी शिकंजे सामने आए। दुनिया के उपनिवेशों की आजादी का सिलसिला शुरू हुआ। दुनिया के बाजारों का पुनर्वितरण हुआ। भारत जैसे देश में ब्रिटेन को सत्ता का हस्तांतरण करना पड़ा क्योंकि उन्हें डर था, कहीं कम्युनिस्ट सत्ता पर कब्जा न कर लें! दूसरी बड़ी घटना थी चीनी क्रांति। यह क्रांति रूसी मॉडल के आधार पर नहीं हुई। रूसी मॉडल में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनविद्रोह हुआ था और मजदूरों ने अपने हाथ में सत्ता ले ली थी। चीनी क्रांति का मॉडल इससे अलग था।
चीन में साल 1927 से 1949 तक दीर्घकालीन जनयुद्ध लड़ा गया। इन 22 सालों के जनयुद्ध में किसानों ने प्रमुख हिस्सेदारी की। चीन में किसान जमींदारों के मातहत जोतदार थे। चीनी क्रांति में सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष एक साथ चलाया गया। इस प्रक्रिया में पार्टी ने छापामार युद्ध से लेकर जनसेना निर्माण की यात्रा पूरी की। जापान और अमेरिका द्वारा समर्थित च्यांग-काई-शेक को पराजित कर सत्ता पर कब्जा करते हुए माओ ने 1 नवंबर 1949 को चीनी जनगणराज्य की घोषणा की। इस ऐतिहासिक घटना ने यह स्थापना रखी कि किसी भी देश में क्रांति करने के लिए सिर्फ रूसी मॉडल पर ही नहीं, बल्कि क्रांति के चीनी मॉडल पर भी विचार करना जरूरी है।
भारत भी चीनी क्रांति के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। 1940 से ही चीनी क्रांति की तर्ज पर तेलंगाना में सशस्त्र सेना खड़ी करने का प्रयास आरंभ हुआ था। महाराष्ट्र में कामरेड गोदावरी परुलेकर के नेतृत्व में थाणे जिला के बारली आदिवासियों द्वारा लड़ा गया संघर्ष भी चीनी क्रांति के मॉडल पर आधारित था। साल 1951 में कम्युनिस्ट पार्टी ने खुद को इस संघर्ष से अलग कर संसदीय चुनाव के मार्ग का चयन किया। 1951-52 के आम चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। देश की संसद और विधयिकाओं में उनके सदस्य बाएं बाजू में बैठने लगे।
सत्ता हस्तांतरण के पूर्व से ही कम्युनिस्ट पार्टी ने भाषिक राष्ट्रीयताओं के आधर पर प्रांतों के निर्माण की मांग को रखना आरंभ किया था। ऐसा करते हुए उन्होंने अनजाने ही सही, वर्गेतर सामाजिक संरचनाओं के अस्तित्व को मान्यता दे दी थी। एकबारगी आप जैसे ही वर्गेतर सामाजिक संरचनाओं के अस्तित्व को मान लेते हैं वैसे ही जाति, वंश, स्त्री प्रश्न आपके सामने हल मांगने लगते हैं। 1946 में समाजवादी और शेतकरी कामगार पक्ष (किसान मजदूर पार्टी-अनुवादक) के प्रयासों से सेनापति बापट की अगुवाई में बेलगांव में संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना हुई। कम्युनिस्ट पार्टियां इसे दांवपेंच के तौर पर देख रही थीं। भले ही कम्युनिस्ट साथियों के लिए दांवपेंच का मामला हो परंतु संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में बड़ी संख्या में भागीदारी करने वाली महाराष्ट्र की जनता के लिए यह दांवपेंच का मुद्दा नहीं था, बल्कि श्री चक्रधर स्वामी की महानुभाव परंपरा, श्री ज्ञानेश्वर से लेकर श्री तुकाराम की वारकरी परंपरा द्वारा स्थापित सांस्कृतिक प्रबोधन का पुनरुत्थान था। प्रबोधन की जो बहुजन परंपरा पेशवाओं के काल में खंडित हो चुकी थी उस परंपरा से पुनः जोड़ने का यह आंदोलन था। इसी परंपरा से मराठी राष्ट्रवाद का आविष्कार हुआ था और उसके नेता थे छत्रपति शिवाजी।
पीटर दि ग्रेट जो रशियन राष्ट्रवाद के प्रणेता माने जाते हैं, जिसे लेनिन ने रूस के पहले बुर्ज्वा राष्ट्रवाद का प्रणेता कहा है उसी तरह छत्रपति शिवाजी महाराष्ट्र की जनचेतना में मराठी राष्ट्रवाद के प्रणेता के रूप में मौजूद हैं। संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के उफान के समय में खुद को गांधियन मार्क्सवादी कहलाने वाली प्रो. नलिनी पंडित की पुस्तक ‘जातवाद वर्गवाद’ प्रकाशित हुई। उसी समय प्रो. ग. बा. सरदार ने जो प्रो. पंडित के गुरु समान रहे, यह स्थापना रखना आरंभ किया था कि मराठी राष्ट्रवाद संत साहित्य का सामाजिक आविष्करण है। उसी समय डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने 5 लाख अछूतों के साथ हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में धर्मांतरण कर सामाजिक भूचाल ला दिया था। बाद में कामरेड प्रभाकर वैद्य ने 1975 में ‘संतों के द्वारा भी उपेक्षाग्रस्त संतश्रेष्ठ चक्रधर’ पुस्तक लिख कर प्रकाशित की।
संयुक्त महाराष्ट्र निर्माण आंदोलन में एक ही मंच पर जमे कम्युनिस्ट और समाजवादी तथा पहले विरोध कर बाद में शामिल हुए रिपब्लिकन पार्टी और शेतकरी कामगार पार्टी के गठबंध्न को 1962 के भारत-चीन युद्ध की घटना ने तोड़ दिया। कम्युनिस्ट खेमों में कामरेड प्रभाकर वैद्य सरीखे लोग जाति के सवाल की चर्चा कर रहे थे। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट आंदोलन तपस्या की भूमिका में रहे- वह भी अधिकृत तौर पर। समाजवादी कहने लगे थे कि कम्युनिस्टों के पास भारत का इतिहास ही नहीं है। कामरेड शरद पाटिल जैसे कार्यकर्ता के लिए यह असहज करने वाली बात थी क्योंकि वह देहाती क्षेत्र से आये, सत्यशोधक आंदोलन से नाता रखने वाले अब्राह्मण युवा कार्यकर्ता थे। कामरेड शरद पाटिल 1966 में पार्टी कार्य से पांच साल अवकाश प्राप्त कर पंडित मणिशंकर उपाध्याय के पास संस्कृत, पाली, अर्ध्मागधी आदि भाषाओं का अध्ययन करने हेतु पहुंच गए।
1966 से 1971 की पांच साल की समयावधि भारत में राजनीतिक भूचाल की अवधि है। 1967 में बंगाल में नक्सलवादी विद्रोह की शुरुआत हुई। देश के 11 राज्यों में कांग्रेस सरकार पहली बार पराजित हुई। लोहियावादी समाजवादी, कम्युनिस्ट कांग्रेसी विद्रोहियों के साथ संयुक्त सरकार में और उड़ीसा, बिहार जैसे राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकार में जनसंघ तथा स्वतंत्र पार्टी के साथ शामिल हुए। भारत-चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन होकर 1964 में सीपीएम बनी थी, उसमें भी 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद विभाजन होकर सीपीआई (एमएल) अस्तित्व में आयी। महाराष्ट्र में वसंतराव नाईक, वसंत दादा पाटिल आदि के सक्रिय सहयोग से बाल ठाकरे ने ‘शिवसेना’ बनायी। शिवसेना की स्थापना पर कॉमरेड डांगे ने मास्को से अपनी शुभकामनाएं भेजीं। 1966 में शिवसेना ने अपना पहला चुनाव मुंबई महापालिका में लड़ा। इस चुनाव में प्रो. मधु दंडवते के नेतृत्व वाली प्रजा समाजवादी पार्टी गठबंधन के लिए अग्रगामी भूमिका में रही। प्रजा समाजवादी और शिवसेना का गठबंधन टूटने के बाद प्रमोद नवलकर से लेकर दत्ता सालवी तक के प्रजा समाजवादी मरते दम तक शिवसेना में रहे। इस गठबंधन के ईनाम स्वरूप शिवसेना दंडवते जी के चुनाव में कमजोर उम्मीदवार खड़ा करती रही। इतना सब विस्तार से बताने की आवश्यकता इसलिए है कि इस स्थिति ने कॉमरेड शरद पाटिल जैसे कार्यकर्ता के सामने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया था, ‘नेतृत्व के ऊपर वर्ग संघर्ष के तत्वज्ञान का प्रभाव बड़ा कारक होता है या वे जिस जाति-वर्ग से आते हैं वह बड़ा कारक होता है?’
वर्ष 1971 में संस्कृत का अध्ययन कर कामरेड पाटिल धुलिया लौटे और सीपीएम की धुलिया जिला समिति की बागडोर हाथ में ली। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित पूर्ववर्ती सामंतशाही के प्रभाव वाला सूबा बंगाल यानी प. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और दक्षिण में निजाम की रियासत यानी तेलंगाना, कर्नाटक के कुछ इलाके, तमिलनाडु के कुछ इलाके, महाराष्ट्र के पूर्वी जिलों में नक्सलबाड़ी की प्रेरणा से सामंतवाद विरोधी लड़ाइयां चल रही थीं तो दूसरी ओर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र खासकर थाणे जिला, नासिक जिला, नंदुरबार एवं धुलिया, डांग, और दादरा नगर हवेली आदि इन सहयाद्रि एवं सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाओं के परिसर में तीनों ही राज्यों की सरकारें वारली, कोकणी, भील, पावरा जैसी आदिवासी जमातों को खदेड़ने के आक्रामक तेवर में थीं। उसके विरोध में लड़ाइयां चल भी रही थीं। धुलिया जिले में पी.के अण्णा पाटिल सरीखे लोगों ने आदिवासियों पर हमले करने के लिए निजी सेना भी खड़ी कर रखी थी। धुलिया में लौटते ही कॉमरेड शरद पाटिल ने लड़ाई का नेतृत्व संभाला और सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी। धुलिया का आदिवासी आंदोलन उस समय का सबसे बड़ा आंदोलन था। आदिवासियों में काम करते वक्त कॉमरेड शरद पाटिल के ध्यान में एक बात आयी कि आदिवासी महिलाएं सबसे कमजोर स्थिति में हैं। शहरों में रहने वाले कम्युनिस्ट और समाजवादी आंदोलन की नेतृत्वकारी महिलाओं की नजर में यह ‘स्त्री’ आजाद थी, परंतु कॉमरेड शरद पाटिल ने यह महसूस किया कि शहरी स्त्रीवादियों के जेहन में आदिवासी स्त्री की ‘आजादी’ की जो छवियां हैं वही उस ‘स्त्री’ की आजादी के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है।
1970 के दशक में आयी हरित क्रांति के बाद पूंजीवादी बाजार अपने बाजार मूल्यों के साथ अपना विस्तार कर रहा था। उस प्रक्रिया से आदिवासी स्त्री भी अछूती नहीं थी। कथित आजादी का अनुभव करने वाली आदिवासी महिला को एक बच्चा जनने के बाद छोड़ देने की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। यह छोड़ी गयी महिलाएं आजाद होने के कारण अपने पति या पिता से संपत्ति से अपना हिस्सा पाने से उपेक्षित थीं। साल 1972 में कॉमरेड शरद पाटिल ने आदिवासी महिला के लिए भी हिन्दू कोड बिल के प्रावधन लागू करने की मांग रखी। उसका विरोध कामरेड गोदावरी परुलेकर, कॉमरेड अहिल्या रांगणेकर ने किया। 1971 में महाराष्ट्र में ‘महंगाई विरोधी महिला प्रतिकार समिति’ कार्यरत थी। उस समिति के नेतृत्व में अहिल्या रांगणेकर, मृणाल गोरे, प्रमिला दंडवते और तारा रेड्डी जैसी हस्तियां थीं। कॉमरेड शरद पाटिल मुझे साथ लेकर हिन्दू कोड बिल की मांग के संदर्भ में उन सभी से मिले और अपनी बात रखनी चाही। कॉमरेड तारा रेड्डी को छोड़ कर बाकियों ने बात सुनने से ही मना कर दिया था। कॉमरेड तारा रेड्डी ने ईमानदारी से कहा, ‘मैंने इस दृष्टि से कभी विचार ही नहीं किया था।’
हिन्दू कोड बिल के प्रावधान आदिवासी महिलाओं पर भी लागू करने संबंधी अपनी मांग को लेकर पार्टी और पार्टी के बाहर दोस्तों की अवहेलना का सामना करने के बीच 1973 में अपने ग्रंथ Das Shudra Slavery के पहले खंड का पहला भाग पूरा किया। इस ग्रंथ के पहले कुछ अध्याय सीपीएम के अंग्रेजी द्वैमासिक ‘सोशल सांइटिस्ट’ में छपे थे। उसके बाद के अध्यायों को इस पत्रिका ने इसलिए प्रकाशन से मना कर दिया क्योंकि एक अध्याय में लेखक ने भारतीय आदिम साम्यवादी समाज के स्वरूप के आकलन के बारे में केरल के दो मार्क्सवादी इतिहासविदों ई.एम.एस नंबूदिरीपाद और के. दामोदरण की प्रस्थापनाओं पर सवाल उठाए थे। आदिम साम्यवादी समाज व्यवस्था में सब कुछ खुशहाल था और स्त्री-पुरुष समानता थी, इस समझदारी को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया था। उन्होंने यह स्थापना रखते हुए कि आदिम साम्यवादी जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी, वैराज्य (स्त्रीराज्य) व्यवस्था की कल्पना रखी। ऐंगल्स द्वारा लिखित ‘परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय’ ग्रंथ में उल्लिखित आदिम साम्यवाद, दास प्रथा, सामंतवाद, पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद इन सामाजिक अवस्थाओं के क्रम में आदिम साम्यवाद की संकल्पना को नकारते हुए अपनी स्थापनाएं रखीं। ‘वैराज्य’ (स्त्रीराज्य) में भी सब कुछ खुशहाल नहीं था, स्त्री-पुरुष समानता भी नहीं थी बल्कि महिलाएं सत्ताधीश थीं यह स्पष्ट किया। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन ने पार्टी के तौर पर कभी भी इस सवाल का विश्लेषण नहीं किया कि भारतीय समाज के विकास का ऐतिहासिक भौतिकवाद क्या है।
मार्क्सवादी विचारधारा वाले डी.डी.कोसांबी जैसे पार्टी के बाहर के विद्वानों ने भी ऐंगल्स की चौखट के भीतर ही इतिहास लेखन का प्रयास किया। कॉमरेड श्रीपाद अमृत डांगे ने ‘आदिम साम्यवाद से दास प्रथा तक’ ग्रंथ लिखकर ऐंगल्स के चौखट में भारतीय इतिहास लिखने का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था। वर्ष 1973 तक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, डी.डी.कोसांबी, रोमिला थापर, आर.एस.शर्मा, नंबूदिरीपाद आदि विद्वानों ने भी ऐंगल्स के चौखट के भीतर ही अपनी-अपनी समझदारी एवं सहूलियत के अनुसार भारत का ऐतिहासिक भौतिकवाद रचने का प्रयास किया।
कॉ. शरद पाटिल ने उनकी विद्वत्ता का सम्मान रखते हुए उनके द्वारा लगाये गये अन्वयार्थों को लेकर सवाल खड़े किए और इसके लिए अब तक न परखे गये ‘प्राच्यविद्या’ के हथियार का इस्तेमाल किया। ‘प्राच्यविद्या’ क्या है? इस सवाल का जवाब बहुतेरों को पता नहीं है। यही सवाल मेरे द्वारा शरद पाटिल से पूछे जाने पर उन्होंने जवाब दिया- ‘प्राकृत से संस्कृत तक की यात्रा में और उस यात्रा के दरमियान संस्कृत पर कब्जा जमाने हेतु विकसित किया हुआ व्याकरण यानी ‘प्राच्यविद्या’। कॉ. शरद पाटिल खुद को ‘प्राच्यविद्या’ पंडित कहा करते थे इसलिए उनके द्वारा दी गयी ‘प्राच्यविद्या’ की अवधारणा ही मैं प्रमाण के तौर पर मानता हूं! व्याकरण का अमुक प्रत्यय लगाने से या नहीं लगाने से ‘निऋती’ कैसे ‘हारीती’ में बदलती है या हारीती की निऋती कैसी होती है, यह उन्होंने अपने ग्रंथों में सप्रमाण सिद्ध किया।
सोशल साइंटिस्ट द्वारा Das Sudra Slavery के अगले अध्याय का छापना बंद किये जाने पर अगले दो साल तक सीपीएम की राज्य समिति और कॉ. शरद पाटिल के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा। अपनी भूमिका पार्टी के सामने रखने के बारे में उन्होंने राज्य समिति से बार-बार अनुरोध किया। वर्ष 1974 में मैं एसएफआई की राज्य समिति का सेक्रेटरी था। एसएफआई में काम करने वाले बहुजन समाज से आये कार्यकर्ताओं की कॉ. शरद पाटिल के साथ सहानुभूति थी। मैं और उस वक्त एसएफआई के राज्य इकाई अध्यक्ष विट्ठल मोरे हम दोनों ने ‘भारत का ऐतिहासिक भौतिकवाद’ विषय पर कॉ. शरद पाटिल का स्टडी सर्कल आयोजित करने का निर्णय राज्य समिति से पारित करवा लिया। पार्टी ने कॉ. एस वाय कोल्हटकर के वीटो पॉवर से उसे रद्द करवाया। तलासरी में कॉ. गोदावरी परुलेकर, कॉ. एस. वाइ. कोल्हटकर, कॉ. प्रभाकर संझगिरी, कॉ. पी.बी. रांगणेकर और कॉ. ओक ने उक्त विषय पर हमारी क्लास ली। पार्टी द्वारा हमें बताया कि ऊपर गिनाये लोग ही पार्टी के द्वारा मार्क्सवाद पढ़ाने के लिए अधिकृत किए गये शिक्षक हैं। कॉ. शरद पाटिल को यह बात हमारे द्वारा बताये जाने पर उन्होंने कहा, ‘पार्टी के अंतर्गत जनतंत्र की अवधारणा ही इस प्रकार होगी तो वे क्रांति के बाद में पीपुल्स डेमोक्रेसी कैसे ला पाएंगे?’
वर्ष 1975 में 26 जून को आपातकाल की अधिसूचना जारी हुई थी। इसके पूर्व 23 जून 1975 के दिन पार्टी के राज्य समिति की मीटिंग थी। मेरे और विट्ठल मोरे के आग्रह के कारण पहली बार कॉ. शरद पाटिल आमंत्रित के तौर पर बुलाये गये थे… इंदिरा गांधी के 1971 के चुनाव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गैरकानूनी ठहराया। विश्व स्तर पर अमेरिका वियतनाम, लाओस और कंबोडिया में पराजय की दहलीज पर खड़ा था। भारत, अमेरिका और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवादियों के युद्ध का अखाड़ा बन चुका था। 23 जून की बैठक का एजेंडा आगामी चुनावों में सीटों का बंटवारा था। कॉ. शरद पाटिल, मैं, कॉ. नानख हम तीनों ने वास्तव में चुनाव संपन्न कराये जाएंगे या नहीं, यह सवाल रखा तो कॉ. एस. वाय. कोल्हटकर ने डांट कर चुप करा दिया। उन्होंने कहा, ‘बहुत होशियार हो आप।’ और चर्चा को वहीं रुकवा दिया गया। 25 जून की राज्य समिति बैठक खत्म कर हम जब जाने के लिए निकले, कॉ. पाटिल ने कहा, ‘बाहर क्या चल रहा है इसको यह समझना नहीं चाहते। कुछ तो भयंकर होने जा रहा है, आप लोग सावधनी बरतिए।’ 26 जून के दिन उसी स्थान पर एसएफआई राज्य समिति बैठक होने वाली थी। सुबह 4 बजे कॉ. कुरणे का फोन आया। उन्होंने बताया, ‘कुछ तो भयानक गड़बड़ी हुई है और आप लोग जनशक्ति (वरली पार्टी ऑफिस) छोड़ दीजिए। मैं, कॉ. दलवी, कॉ. रामभाऊ जनशक्ति के गेट को अंदर से ताला लगाकर पूरी राज्य समिति के साथ पिछले कंपाउंड के तारों को मोड़कर पुलिस की गाड़ी आने तक भाग गए। तीन माह तक हमारा और पार्टी का किसी भी तरह का संपर्क नहीं था।
आपातकाल के 18 माह में पार्टी नाम की चीज अस्तित्व में ही नहीं थी। साल 1976 आया, सारे रास्ते खत्म हो चुके थे। स्थिति को ध्यान में रखकर कॉ. शरद पाटिल ने ‘सोशल साइंटिस्ट’ वाले अध्याय पर सविस्तार सांध्य साप्ताहिक (मराठी) में आलेख लिखा। पार्टी नेतृत्व दबी आवाज में बात करता रहा परंतु कुछ भी पहलकदमी नहीं हुई। 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद ईचलकरंजी में राज्य परिषद की बैठक हुई। शरद पाटिल और मैं हम दोनों प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए। वह छटपटाहट में की गयी आखिरी कोशिश थी। कॉ. शरद पाटिल का भाषण खत्म होते ही कॉ. बी.टी. रणदिवे ने कहा- ”आपके मुद्दों की चर्चा होनी चाहिए परंतु आपकी चर्चा करने का तरीका गलत है। यह चर्चा पार्टी के मंच पर होनी चाहिए। ‘साधना’ में नहीं।” इस पर शरद पाटिल ने कहा, ‘इन लड़कों ने मेरा स्टडी क्लास रखा वह भी आपने नहीं होने दिया, सोशल साइंटिस्ट छापता नहीं, राज्य समिति चर्चा नहीं करना चाहती और केंद्रीय समिति दखल नहीं देना चाहती तो हम चर्चा कहां करेंगे?’ उस पर बीटीआर मेरी तरफ मुड़े और कहा, ‘इसके बारे में कुछ मत कहिए, यह ज्यादातर समय नक्सलियों के साथ में घूमता है, इस तरह की रिपोर्ट्स मेरे पास हैं।’ चर्चा वहीं खत्म हुई। 3-4 माह भी गुजरे नहीं होंगे कि मुझे चरित्रहीन करार देकर निष्कासित किया गया। मेरे निष्कासन के बाद शरद पाटिल ने इस्तीफा दिया और इस तरह हम दोनों की सीपीएम के साथ की यात्रा समाप्त हुई।
वर्ष 1978 में सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी के संबंध में चर्चा करने हेतु एक बैठक गोरेगांव में दया पवार के घर पर संपन्न हुई। इस बैठक में मैं, प्रो. गोपाल दुखंडे, माध्व साठे, दया पवार, कॉ. डोंगर बागुल तथा कॉ. शरद पाटिल के पिपलनेर से आये कुछ आदिवासी कार्यकर्ता थे। गोरेगांव में ही केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट के स्कूल में ‘मार्क्सवाद-फुले आंबेडकरवाद क्या है?’ इस बारे में कॉ. शरद पाटिल का व्याख्यान हुआ। इस व्याख्यान में उन्होंने पहली बार कहा, ‘मार्क्स ने जिस तरह हेगेल से द्वंद्व (dialectics) और फायरबाख से भौतिकवाद लेकर ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ नामक नये तत्वज्ञान को जन्म दिया उसी तर्ज पर मैं मार्क्स-फुले-आंबेडकर को एक साथ लाकर मार्क्सवाद-फुले आंबेडकरवाद (माफुआ) निर्मित कर रहा हूं। मेरे और कॉ. शरद पाटिल के बीच मतभेदों की शुरुआत इस घटना ने की। उस दिन से बहुत समय तक मैं पार्टी की पहली संगिती (कांग्रेस) तक मैं उनसे निजी तौर पर सवाल खड़े करता रहा और वे कहते रहे कि ‘हम देश की पहली कम्युनिस्ट पार्टी बनाने जा रहे हैं जाति के सवाल को लेकर, थोड़ा रुको। पार्टी की स्थापना होने के बाद हम सारे सवालों के जवाब ढूंढेंगे।’
पार्टी की स्थापना हुई, पार्टी की पहली कांग्रेस भी हुई। नजुबाई गाविल, मैं और डोंगर बागुल हम तीनों को लेकर कांग्रेस का अध्यक्षमंडल बनाया गया था। शरद पाटिल के आग्रह से मुझे पोलित ब्यूरो में लिया गया। पोलित ब्यूरो में मेरे सवाल खड़ा करते ही कॉ. शरद पाटिल द्वारा मेरे सवाल को फॉर्मुलेट कर सभी कॉमरेड्स के सामने चर्चा हेतु रखने के लिए कहा गया। मैंने वह सवाल फॉर्मुलेट भी किये किंतु चर्चा न हो सकी। 35 साल बाद ‘परिवर्तननाचा वाटसरू’ (परिवर्तन का पथिक) में लिखे एक आलेख में उन्होंने यह स्वीकार किया कि ‘मैं विलास द्वारा प्रस्तुत सवालों के जवाब नहीं दे सका।’
कॉ. शरद पाटिल के सामने प्रस्तुत किये गये सवालः
1. हेगल और फायरबाख दोनों ही तत्वज्ञानी थे। हेगल्स के dialectics में शामिल अध्याय के सामने भौतिक सवाल खड़े कर मार्क्स डॉयलेक्टिक्स और अध्यात्म को भी अलग करते हैं और अलग निकाले गये डॉयलेक्टिक्स के आधार पर फायरबाख के सामने सवाल खड़ा कर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का तत्वज्ञान निर्मित करते हैं।
महात्मा फुले और डॉ. बाबा साहब अंबेडकर दोनों का खुद तत्वज्ञानी होने का दावा नहीं है। दोनों ही क्रियाशील चिंतक माने जाते हैं। दोनों ने ही ‘जाति’ के सवाल पर विचार किया है परंतु उनके आकलन में भिन्नता है, समाधान के रास्ते भी भिन्न हैं। जिस समाज के परिवर्तन हेतु वह रास्ते अपनाने हैं, उस समाज के अंतर्विरोधों के बारे में भी उन दोनों में भिन्नता है।
महात्मा फुले हिंदू धर्म को एक संगठन के तौर पर नहीं देखते हैं। फुले के समय में अंग्रेजों ने भारत की मानव केंद्रित खेती को बाजार केंद्रित खेती में बदलना शुरू किया था। इस प्रक्रिया में जमीन, मानव, खेती और उस पर निर्भर कामगार जातियों के बीच पैदा हो रहे अलगाव (परात्मभाव) का सवाल उनके लिए चिंता का विषय था। अंबेडकर के समय तक कम से कम ब्राह्मण और महार यह प्रशासकीय तथा सेवक जातियां परात्मभाव की अवस्था के आखिरी पायदान पर थीं इसलिए डॉ. अंबेडकर के लिए जाति पहचान का मुद्दा बन गया था। पहचान का उपयोग डॉ. अंबेडकर हथियार के तौर पर तथा महात्मा फुले परिस्थिति को दर्शाने की दृष्टि से करते हैं। महात्मा फुले की दृष्टि से सामाजिक अंतर्विरोध त्रैवर्ण्य विरोधी शूद्रातिशूद्र है वहीं डॉ. अंबेडकर की दृष्टि से अवर्ण विरोधी सवर्ण इस तरह हैं। फुले का आकलन जाति के राजनीतिक अर्थशास्त्री की चर्चा करता है वहीं डॉ. अंबेडकर के आकलन में राजनीतिक अर्थशास्त्री नहीं है। फुले एवं डॉ. अंबेडकर के तत्कालीन समाज को दिये गये योगदान को ध्यान में रखते हुए समकालीन समस्याओं के संदर्भ में उनके विचारों से मार्गदर्शन ग्रहण भी करना चाहिए परंतु फुले और अंबेडकर को मिलाकर एक तत्वज्ञान नहीं हो सकता।
2. कॉ. शरद पाटिल कहते थे कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अगर जाति के सवाल का मुद्दा लेकर आगे बढ़ने का निर्णय कर लेती है तो उन्हें उस पार्टी के राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण को मान्यता देना होगा। अपनी यह बात समझाने के लिए वह रेलवे के डिब्बों का एक उदाहरण दिया करते थे। मैंने उन्हें कहा कि रेल के हर इंजन की एक क्षमता होती है। उस निर्धारित क्षमता के अतिरिक्त अगर एक भी डिब्बा ज्यादा जोड़ दिया जाय तो रेल इंजन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए सीपीएम के एजेंडा में जाति का सिर्फ सवाल मात्र जोड़ देने से काम नहीं चलेगा। शरद पाटिल के अनुसार जाति का सवाल बेस का सवाल था मतलब जाति का सवाल भारतीय समाज के विश्लेषण का बुनियादी पहलू है। कॉ. शरद पाटिल ने इस बारे में गंभीर विचार नहीं किया था इसलिए वह इस सवाल पर मौन रहे।
पहले खंड के दूसरे भाग में शरद पाटिल ने बुद्ध को पंचसूत्र का कैसे ज्ञान हुआ इस बारे में एक कथा विनयपिटक से उद्धृत की है। इस कथा में मेढक नामक श्रेष्ठी अपने मातहत दास और दूसरे श्रेणियों के मातहत दासों की तुलना करते वक्त यह बात स्पष्ट करता है कि वह उसके मातहत दासों के साथ मनुष्य के समान व्यवहार करता है और वेतन अदा करता है। यह कथा बुद्ध को पंचसूत्री का कैसे ज्ञान हुआ यह बताने वाली कथा है। इतना बताकर शरद पाटिल रुक जाते हैं। राजनीतिक अर्थशास्त्री की दृष्टि से सोचा जाय तो बुद्ध की पंचसूत्री का परिणामी उत्पादन सात गुणा बढ़ गया और सरप्लस पैदा हुआ। यह सरप्लस क्या स्वरूप धरण करता है? उस समय के इतिहास की तरपफ हम सूक्ष्म तरीके से देखें तो सरप्लस ट्रेड कैपिटल में बदलता दिखता है परंतु कॉमरेड शरद पाटिल ने उस खंड में उस सरप्लस की चर्चा नहीं की है। इसलिए सरप्लस का आगे क्या हुआ इस बारे में चर्चा करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता।
3. कॉ. शरद पाटिल की दृष्टि से पूंजीवादी जनवादी क्रांति जाति प्रश्न के समाधान का मार्ग है। हिंदू कोड बिल की मांग के पीछे भी उनके दिमाग में यह पूंजीवादी जनवादी क्रांति वाली धारणा पक्की थी। जाति बुनियाद (base) का सवाल है ऐसा कहते ही भारतीय समाज का विश्लेषण वर्ग-जाति का विश्लेषण होना चाहिए। इसका मतलब मुट्ठीभर जातियां कायमस्वरूपी ऊपरी वर्ग में और बड़ी संख्या वाली मेहनतकश जातियां निचले वर्ग में हैं ऐसा एक विश्लेषण किया जाता है, यह एक अर्धसत्य है। दूसरा एक अर्थ यह है कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय खेती को विश्व बाजार से जोड़ने की प्रक्रिया में खेती से अलग हुए और होने जा रही जातियों में वर्ग विच्छेदन हुआ है। इस वर्ग विच्छेदन में हर जाति के साधन संपन्न वर्गों का झगड़ा लूट के हिस्सों को लेकर है परंतु हर जाति के मेहनतकश वर्गों का झगड़ा सम्यक परिवर्तन के लिए है। अंग्रेजों ने बाजार के विस्तार के लिए एवं जरूरी पूंजी संचय हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी आने के साल से ही अनेकों कानून बनाने की शुरुआत की। इन कानूनों के अमल हेतु एवं कानून के आधार पर राजस्व जमा करने हेतु एक प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने की जरूरत थी। इस प्रक्रिया में हजारों साल से चल रही स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था टूट गयी।
उदाहरणस्वरूप कुलकर्णी, देशपांडे, देसाई, सरदेसाई, सरदेशपांडे महाराष्ट्र के अंतर्गत ब्राह्मण, सीकेपी, सारस्वत एकाधिक वाले वतन थे (वतन समझने के लिए आप इसे जागीर से जोड़ कर देख सकते हैं- अनुवादक)। वतनों की जिम्मेदारी निभाने के लिए इन वतनदारों को निजी जमीनें दी गयीं परंतु वतनदार उन जमीनों के कभी मालिक नहीं रहे। उर्वर भूमि कुणबी, बंजारी, धनगर आदि जातियों के जोतदारों को जोतने के लिए दी जाती थीं। अंग्रेजों द्वारा लाये गये Permanent Land Settlement Act कानून की वजह से तत्कालीन वतनदार उनकी भूमि के मालिक बने और जोतदार उनके जोतों की भूमि के। इस प्रक्रिया में भूमि के संबंध में निजी मिल्कियत नामक संकल्पना भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार अस्तित्व में आयी। जिस जाति के लोग जमीनों को जोतते थे उसी जाति से शरद पाटिल आये थे। ग्रामीण भारत में यह वर्ग विग्रह कायम नहीं रहा। इन किसानों की तरफ से नगद में राजस्व मिलना चाहिए, ऐसा नियम अंग्रेजों ने किया था तब तक भारत में व्यापारी जातियों और वतनदार जातियों तक ही नगद की संकल्पना नहीं थी। किसान और बाकी कारीगर जातियों का व्यवहार आपस में वस्तु विनिमय पद्धति से ही होता था। अंग्रेजों के लिए पूंजी संचय के लिए नगद की जरूरत थी। नगद जिनके पास था या वितरण जो करते थे वह प्रशासनिक जातियां साहुकार और जमींदार बनकर उभरी थीं। 1 अप्रैल 1957 को संसद द्वारा पारित जमींदारी अॅबॉलीशन कानून ने यह जमींदारी भी खत्म की। इस कानून का कार्यान्वयन पूर्वी यूपी, बिहार, बंगाल, ओडिशा, आसाम, पूर्ववर्ती बंगाल सूबा में व दक्षिण पूर्व में निजाम स्टेट (महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, तेलंगाना और आंध्र का रायलसीमा) इन विभागों में नहीं हुआ। उर्वर महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, राजस्थान, पश्चिमी यूपी, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में किसानों के संघर्ष का दबाव और पूंजीवादी बाजार के विस्तार हेतु इस कानून का कार्यान्वयन जरूरी हो गया था। हरित क्रांति के विस्तार के लिए भी इसकी आवश्यकता थी। 1960 से 1990 के 30 सालों के बीच सारी कारीगर जातियां उत्पादन व्यवस्था के बाहर चली गयीं। इसमें हस्तक्षेप कहीं भी कम्युनिस्ट आंदोलन ने नहीं किया। 1960 के पूर्व लिखा गया सीपीआई का कार्यक्रम, 1964 साल में प्रकाशित सीपीएम का कार्यक्रम और 1970 में लिखे गये सीपीआई (एमएल) के कार्यक्रम में भारतीय समाज के विश्लेषण में इस स्थिति की सुध अपवादस्वरूप मिलती है।
मुंबई के विकास और विस्तार का गंभीर परिणाम भारत के विकास पर हुआ है। आजादी पूर्व समय से ही भारत के पूंजीवादी निवेश में 30 प्रतिशत पूंजी मुंबई में ही केंद्रित हुई थी। इस पूंजी संरक्षण व सुरक्षित विस्तार के लिए पूंजी द्वारा हुई लूट का एक हिस्सा थोड़ा सा बांटने की जरूरत थी। इसलिए ऐसे हिस्सेदारों का एक नया बफर क्लास सहकारी पूंजीपतियों के रूप में महाराष्ट्र और गुजरात में सपफलतापूर्वक खड़ा किया गया। महाराष्ट्र राज्य में कानून बनाकर चीनी उद्योग सहकारी पूंजीपतियों के हाथ में सौंपा गया। सहकारी पूंजी के नाम में निवेशित संपूर्ण पूंजी का 80 से 90 प्रतिशत केंद्र व अन्य राज्य की सरकारी, राष्ट्रीयकृत बैंकों तथा जीवन बीमा और अन्य साधारण बीमा कंपनियों की तरफ से ही आया था। इसका मतलब सहकारी पूंजीपतियों के एक परजीवी वर्ग का सरकारी पूंजी के माध्यम से निर्माण किया गया। पहले उल्लेखित Permanent settlement की वजह से महाराष्ट्र में कम बारिशवाले इलाकों में बीच वाले अनाज की फसल लेने वाला कुनबा जाति की संख्या की अधिकता थी। यह परजीवी सहकारी पूंजीपति वर्ग इन जातियों एवं वतनदार जातियों के बीच में से आया इसलिए यह परजीवी वर्ग जातीय प्रभाव वाला रहा। दक्षिण गुजरात और महाराष्ट्र का यह नया Buffer Class 1970 के दशक से ही आरक्षित जगहों के विरोध में उतर आया। गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन, महाराष्ट्र की 1969 की शिवसेना और मराठवाड़ा के जाति विरोधी दंगों में इनकी जड़ें मिलती हैं।
साठ और अस्सी के दशक के दरमियान वर्ग संघर्ष के बदले हुए स्वरूप ने पश्चिमी भारत में पैदा किये गये दक्षिणपंथी कथित असंतोष की सुध सिर्फ घटनाओं के तौर पर कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने ली है परंतु वर्ग विश्लेषण नहीं किया है।
कॉमरेड शरद पाटिल को सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के वक्त तक भी सीपीएम के वर्ग विश्लेषण को लेकर किसी भी तरह की आपत्ति नहीं थी, इसलिए उनका विद्रोह पूंजीवादी जनवादी क्रांति की सीमाओं के बाहर नहीं जा सका। उनके विरोधियों के लिए उन्हें संघर्षशील कार्यकर्ता की जगह प्राच्यविद्या पंडित की छवि तक ही सीमित रखना आसान हुआ। जाति प्रश्न की लड़ाई भारत की विशिष्ट परिस्थितियों में पहले दिन से ही जात वर्ग की लड़ाई थी। Permanent Settlement कानून से मिल्कियत पाने वाले विभिन्न जातियों के जोतदार बाद के समय में साहूकाररूपी जमींदारों के पंजों में अटके। जमींदारी के समय खेती करने वाली जातियां और कारीगर जातियों के बीच स्पष्ट विभाजन नहीं था। साठ के बाद पूंजीवादी बाजार के बढ़ने से प्रत्यक्ष खेती करने वाली जातियों और कारीगर जातियों के बीच विभाजन चौड़ा होता गया। दूसरी ओर खेती करने वाली जातियों का एक एक बड़ा समूह खेती से अलग हो रहा था। खेती करनेवाली जातियों में परजीवी Buffer Class और पूंजीवादी बाजार द्वारा बेदखल वर्ग का वर्ग-संघर्ष सामने आने लगा। ऐसे समय में विभिन्न जातियों के साधन-संपन्न वर्ग ने अपने हिस्से की लूट पाने के लिए पहचान/अस्मिता के मुद्दे को सामने ला दिया। मेहनतकशों की लड़ाई इस वजह से पीछे धकेली गयी। मतलब परिवर्तन की लड़ाई पूंजीवादी जनवादी क्रांति की लड़ाई से बहुत आगे गयी है।
4. पहले विश्व युद्ध के दरमियान दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण घटना रूसी क्रांति थी। दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते-होते घटित महत्वपूर्ण घटना चीनी क्रांति थी। इन दोनों क्रांतियों की और रूसी क्रांति के बाद दुनियाभर के सारे कम्युनिस्ट आंदोलन की सुध विश्व पूंजीवाद ने सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तरों पर गंभीरतापूर्वक ली थी। सिद्धांत के संदर्भ में विश्व पूंजीवाद और पूंजीवादी चिंतक रूसी क्रांति तक चुपचाप नहीं बैठे थे। 1871 के पेरिस के अनुभव के बाद से ही पूंजीवादी चिंतकों ने अपनी यात्रा आरंभ कर दी थी। बहुतेरे कम्युनिस्ट वर्ग नाम की रचना को एकात्म (Monolith) मानते हैं यह ध्यान में रखकर वर्ग के अंतर्गत सामाजिक स्तरीकरण (Stratification) का सवाल खड़ा करते हुए समाजशास्त्र नामक शास्त्र की रचना शुरू की थी।
भारत में मुंबई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग की शुरुआत 1895 में हुई। वर्ग को एकात्म समझने की यांत्रिक भौतिकवादियों की समझ को दरकिनार कर समाजशास्त्री एवं मानववंश शास्त्री इन दोनों ने वर्गेतर सामाजिक संरचनाओं का अध्ययन किया। इन वर्गेतर सामाजिक संरचनाओं को वर्ग की रचना विघटित करने हेतु ‘उपयोग में लाने का दांवपेंच’ विश्व पूंजीवाद सातत्यपूर्ण ढंग से ईजाद करता रहा।
1870 के पूर्वार्ध से ही अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उच्चजातीय उच्चवर्गीय विद्वानों की पीढ़ी बंकिमचंद्र, चिपलुनकर, बाल गंगाधर तिलक जैसी राष्ट्रवादी पीढ़ी का उदय हुआ। जैसे जेता अंग्रेज श्रेष्ठ है, वैसे हम भी श्रेष्ठ हैं क्योंकि जेता के तौर पर हम भी अंग्रेजों के पहले आए हैं ऐसी स्थापना रखते हुए अंग्रेजों की कृपादृष्टि बनी रहे इसका भी ख्याल रखते हुए अपने समाज का वैचारिक नेतृत्व अपने ही हाथ में रहे इस नीति के साथ मलेच्छ, यवन जैसे विशेषणों का उपयोग कर मुसलमान नामक आभासी शत्रु का निर्माण करते रहे। ऐसा करते हुए बुझे-अनबुझे ही सही धर्म को सामाजिक रचना के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया। किसी भी धर्म को आप एकबारगी आभासी वास्तव के तौर पर खड़ा कर दें तो विरोधी धर्म भी आभासी एकात्मता (मोनोलिथ) में बदलने की शुरुआत हो जाती है।
बंकिमचंद्र द्वारा निर्मित मुसलमान का मोनोलिथ हिंदू मोनोलिथ निर्माण प्रक्रिया की शुरुआत करता है। जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का हिस्सा है, ऐसा कहते डॉ. आंबेडकर मोनोलिथ पक्का करते हैं और उस मोनोलिथ से बाहर निकलने के लिए धर्मातरण कर धर्म नाम के मोनोलिथ को और पक्का करते हैं। बंकिमचंद्र से लेकर बाबा साहब तक धर्म को मोनोलिथ बनाने की यात्रा विश्व पूंजीवाद के लिए उपकारक सिद्ध हुई है। विश्व पूंजीवाद द्वारा इसी मोनोलिथ का उपयोग कर पहले 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप में भारत का भारत, पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्व पाकिस्तान ऐसा विभाजन कर और 1948 में इजरायल एवं फलस्तीन, इस तरह का विभाजन करते हुए धर्म नाम की सामाजिक शक्ति (social force) को सामाजिक रचना में बदल दिया।
दुनिया भर में संपूर्ण कम्युनिस्ट आंदोलन इन घटनाओं की सुध लेने में असफल रहा। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर तो इस विषय में संभ्रम की स्थिति वर्णन से बाहर है।
कम्युनिस्टों के वर्गेतर सामाजिक संरचनाओं के बारे में आकलन के ऊपर सवाल खड़ा करने वाले कॉमरेड शरद पाटिल विश्व पूंजीवाद द्वारा खड़े किए गये धर्म के आभासी यथार्थ को नकारने में असमर्थ से दिखते हैं। इसलिए एक ओर जाति व्यवस्था भौतिक बुनियाद का सवाल है ऐसा मानते हुए भी धर्मांतर की वजह से मुसलमानों में जातियां पैदा हुईं, ऐसा भी कहते रहे।
5. हमने पहले ही कहा है कि भारत के स्त्रीवादी आंदोलन की समझ रखने वाले शरद पाटिल पहले ऐतिहासिक भौतिकवादी चिंतक रहे हैं, किंतु वे सारे स्त्री आंदोलन को पूंजीवादी जनवादी क्रांति के खूंटे से बांधने चल पड़े। जाति व्यवस्था बुनियाद का सवाल है ऐसा कहते ही उसके राजनीतिक अर्थव्यवस्था का सवाल भी खड़ा हो जाता है और एकबारगी हमने यह स्थापना मान ली, तो हमें दिखता है कि केंद्र में भूमि है, खेती के आधर पर श्रम विभाजन है। श्रम विभाजन की वजह उस हर जात में कम-अधिक मात्रा में उस जाति की स्त्री स्वायत्त अवस्था में है, उन महिलाओं के लिए पूंजीवादी जनवादी क्रांति परिवर्तन का कार्यक्रम हो सकता है। आज भूमि का आजीविका की बजाय क्रयवस्तु में बदल जाने से बहुजन महिलाओं की स्वायत्तता खतरे में है।
(अनुवाद: दयानंद कनकदांडे, ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के फरवरी 2015 अंक में प्रकाशित और साभार)