प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा केरल के बारे में दिए गये बयान की अखिल भारतीय किसान सभा ने निंदा की है और कहा है कि प्रधानमंत्री की टिप्पणियां केरल की कृषि के बारे में उनकी अज्ञानता को उजागर करती हैं.
एआइकेएस के अध्यक्ष अशोक धावले और महासचिव हन्नान मोल्ला ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि केरल की कृषि और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार के बारे में गलतबयानी कर प्रधानमंत्री ने देश के किसानों को गुमराह करने की कोशिश की है. या तो प्रधानमंत्री के सलाहकार उन्हें गुमराह करते हैं या वे खुद ही जानबूझकर भारत के लोगों को गुमराह करने के लिए इस तरह की साजिश करते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सवाल उठाया है कि केरल में एपीएमसी और मंडियां नहीं हैं, तो केरल में कोई विरोध क्यों नहीं हो रहे हैं? वे वहां आंदोलन क्यों नहीं शुरू करते?
All-India-Kisan-Sabha-convertedबयान में कहा गया है कि केरल विधानसभा ने जम्मू कश्मीर और मणिपुर की तरह कभी एपीएमसी अधिनियम पारित ही नहीं किया. इस तरह के कानून को पारित नहीं करने का कारण फसल के पैटर्न में मसालों और रोपण फसलों की प्रबलता से लगाया जा सकता है.
केरल की कृषि मुख्य रूप से व्यावसायिक फसलों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो कि राज्य के कृषि क्षेत्र के लगभग 82 प्रतिशत हिस्से में होती है. वहां किसानों द्वारा मुख्य रूप से नारियल, काजू, रबर, चाय, कॉफी, विभिन्न मसालों जैसे मिर्च, जायफल, इलायची, लौंग, दालचीनी आदि की फसलें उगाई जाती हैं और भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के अंतर्गत संबंधित कमोडिटी बोर्ड द्वारा प्रायोजित इन फसलों के अपने विशेष विपणन चैनल हैं.
रबर बोर्ड, मसाला बोर्ड, कॉफी बोर्ड, चाय बोर्ड, नारियल विकास बोर्ड जैसे विभिन्न कमोडिटी बोर्ड और नीलामी की एक प्रणाली राज्य में लागू है. इन सभी फसलों की कीमतें विश्व बाजार की कीमतों पर निर्भर हैं और केवल खोपरा (सूखा नारियल) को छोड़कर भारत सरकार किसी अन्य फसल के लिए एमएसपी लागू नहीं करती है.
ये फसलें विदेशी मुद्रा अर्जित करती हैं और इन फसलों के लिए नीलामी और विपणन की एक प्रणाली है, लेकिन पिछले तीन दशकों में विभिन्न केंद्र सरकारें कमोडिटी बोर्डों को कमजोर और व्यवस्थित रूप से नष्ट कर रही हैं. इन फसलों के लिए न तो पर्याप्त धनराशि आवंटित की गयी, न ही लम्बे समय से निदेशकों की नियुक्तियां की गयी हैं. केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने इन बोर्डों की फंडिंग में कटौती की जिसके चलते वे कमजोर होते चले गये.
बयान कहता है-
बीजेपी और कांग्रेस सरकारों ने मुक्त बाजार का दरवाजा खोला जिससे किसानों की हालत बदतर हो गयी. भारत-आसियान एफटीए जैसे समझौते के कारण किसानों का बाज़ार खराब हुआ और वे मौत के मुहाने पर पहुंच गये.
किसान सभा ने कहा कि नवउदारवादी नीतियों के कारण केरल में कई किसानों ने आत्महत्या कर ली है. साल 2006 में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार के आने के बाद राज्य में ऋण राहत आयोग का गठन किया और संकटग्रस्त किसानों के ऋण माफ किए जिससे किसानों की आत्महत्याएं रुक गयी.
इस बयान में आगे कहा गया है कि केरल की एलडीएफ सरकार ने केंद्र सरकारों के नवउदारवादी नीतियों का विरोध किया है और राज्य की सरकार हमेशा किसानों के साथ खड़ी है और मूल्य में गिरावट आने पर हमेशा किसानों की आर्थिक सहायता की है. वहीं, सहकारी समितियों के माध्यम से मूल्यवर्धन और विपणन में भी मदद की है.
यहां बिक्री के बाद बचे अनाज, सब्ज़ी और फलों के व्यापक और सुचारू व्यापार के लिए APMC नियमों के अंतर्गत मंडियों की तरह थोक विक्रय की व्यवस्था को कभी महत्व नहीं दिया गया. इसका अर्थ यह नहीं है कि निश्चित नियमों और नियंत्रण के तहत कृषि-उत्पादों के विक्रय की कोई निर्धारित व्यवस्था नहीं है. समय-समय पर राज्य सरकार द्वारा बिक्री-कानून संबंधित अधिसूचनाएँ निर्गत होती रहती हैं जिनमें उत्पादों की थोक और खुदरा बिक्री के लिए आवश्यक दिशा-निर्देशों का विवरण दिया जाता है.
किसान सभा ने अपने बयान में कहा है कि केरल में प्रति क्विंटल धान के लिए 2748 रुपए दिए जाते हैं जो कि केंद्र के एमएसपी से 900 रुपए अधिक है. केंद्र धन के लिए प्रति क्विंटल 1848 रुपए देती है. हाल ही में राज्य सरकार में राज्य में 2.05 लाख हेक्टेयर में फैले चावल की खेती करने वालों के लिए 2000 रुपए हेक्टेयर की रॉयल्टी की घोषणा की है.
राज्य की एलडीएफ सरकार ने कंद सहित 16 सब्जियों के आधार मूल्य की घोषणा की है और ऐसा करने वाला केरल एकमात्र राज्य है. केरल की एलडीएफ सरकार ने महामारी के बीच सुभिक्षा केरल कार्यक्रम शुरू किया और प्रसंस्करण, मूल्य संवर्धन और विपणन के लिए कृषि और सहकारी समितियों को मजबूत करने के लिए 3,600 करोड़ रुपये आवंटित किए.
राज्य द्वारा दी जाने वाली विभिन्न फसलों के लिए प्रति हेक्टेयर सब्सिडी इस प्रकार है:
- धान (एक वर्ष में एक फसल) -.22,000/ रुपये
- सब्जियां – 25,000 /रुपये
- सर्द मौसम की सब्जियों के लिए – 30,000 रुपये
- दलहन – 20,000 रुपये
- टैपिओका और कंद – 30,000 रुपये
- केले के लिए – 30,000 रुपये
इस बयान के अंत में तीखे शब्दों में कहा गया है कि पीएम मोदी को झूठ और धोखे में लिप्त होने के बजाय पहले इन कदमों का मिलान करने की कोशिश करनी चाहिए और जवाब देना चाहिए कि कमोडिटी बोर्ड को अप्रभावी क्यों बनाया जा रहा है और बिना राज्य सरकारों से सलाह लिए केंद्र असमान मुक्त व्यापार समझौतों में क्यों घुस रहा है और भारतीय किसानों को संकट में क्यों डाल रहा है?
प्रधानमंत्री को बीजेपी शासित बिहार के बारे में जवाब देना चाहिए जहां चावल की खेती करने वालों को 1000-1200 रुपये प्रति क्विंटल चावल बेचने के लिए मजबूर किया जाता है.