एफसीआरए (विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम, 2011) को कानूनी चुनौती देने वाले इंडियन सोशल ऐक्शन फोरम (इंसाफ) के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का 6 मार्च, 2020 को दिया फैसला भारत में एक राजनीतिक पक्ष के रूप में सिविल सोसायटी (नागरिक समाज) की भूमिका की जिस निर्णायक ढंग से दोबारा पुष्टि करता है, वह अभूतपूर्व है। इस फैसले ने इस बात को फिर से पुष्ट किया है कि भारत में लोकतंत्र के फलने-फूलने को सुनिश्चित करने में सिविल सोसायटी को वैध व आलोचनात्मक भूमिका निभानी होगी। इसमें उसकी राजनीतिक कार्रवाइयां भी बराबर शामिल हैं।
इस फैसले के निहितार्थ दूरगामी हैं। यह फैसला सिविल सोसायटी के राजनीतिक काम और कार्रवाई के अधिकार को अक्षुण्ण रखने की बात करता है। इस फैसले के मूल में एक बुनियादी फ़र्क बरता गया हैः एक है राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति के लिए की जाने वाली राजनीतिक कार्रवाई, दूसरी है वह राजनीतिक कार्रवाई जो अधिकारों, विकास, मानवीय गरिमा, संवैधानिक मूल्यों और लोकतंत्र को आगे बढ़ाती है। कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा है कि लोकतंत्र और उसमें प्रदत्त अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए की जाने वाली राजनीतिक कार्रवाई वैध है।
ध्यान देने वाली बात है कि यह अदालती फैसला सिविल सोयटी को मिलने वाले विदेशी अनुदान और उसे नियामित करने वाले कानून एफसीआरए के संदर्भ में आया है। यह मामला, खासकर उत्तर-औपनिवेशिक संदर्भ में, अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है। इसलिए इससे आसान निष्कर्ष यह निकलता है कि घरेलू स्तर पर अनुदानित सिविल सोसायटी के पास राजनीतिक कार्रवाई करने की स्वतंत्रता कहीं ज्यादा होगी।
आश्चर्य की बात यह है कि सिविल सोसायटी के बीच इस फैसले को बहुत उत्साह के साथ नहीं लिया गया है।
इसके स्वागत में आयीं एकाध उत्साहनजक टिप्पणियों को छोड़ दें तो अधिकांश सिविल सोसायटी ने इस पर अपनी ज़बान बंद ही रखी है, जिससे कुछ सवाल खड़े होते हैं। इतनी कठिनाई से इंसाफ ने जो केस लड़ा, क्या वह बेकार चला गया? क्या इस फैसले का महत्व और इसकी जटिलता स्पष्ट नहीं है? या फिर, क्या हम राजनीति में अपनी भूमिका के बुनियादी प्रश्न को लेकर उदासीन हैं?
फैसला आने से कुछ दिनों पहले फरवरी 2020 के आखिर में देश की राजधानी साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रही थी। यह आज़ादी के बाद हुए सबसे बुरे दंगों में एक था। साम्प्रदायिक सनक में लोगों पर बर्बर अत्याचार हुए और उन्हें जान से मार दिया गया। बहुसंख्यवादी राजनीति ने शहर को एक ऐसे रसातल में झोंक दिया जहां करुणा, मानवता और इंसानी गरिमा की बहाली तकरीबन नामुमकिन दिखने लगी थी।
दिल्ली को सिविल सोसायटी संगठनों, नेटवर्कों, अभियानों और आंदोलनों का केंद्र माना जाता है। जाहिर तौर से, यह शहर देश भर के सिविल सोसायटी की ताकत और विविधता की नुमाइंदगी का दावा करता है। इसके बावजूद एकाध संगठनों और कुछेक व्यक्तियों को छोड़ दें, तो साम्प्रदायिक हिंसा की ज़मीन से इतनी निकटता ने भी इस शहर के सिविल सोसायटी संगठनों को ज़मीनी हालात पर प्रतिक्रिया देने के लिए प्रेरित नहीं किया। न ही ये संगठन सेकुलर राजनीति और करुणापूर्ण सह-अस्तित्व के पक्ष में मज़बूती से खड़े हो सके। सवाल उठता है कि नागरिक समाज के ये संगठन आखिर खुलकर सामने आने से क्यों हिचकिचाये और अधिकारों, न्याय व मानवीय गरिमा के समर्थन में इन्होंने अपनी तमाम ताकत औ संसाधन क्यों नहीं झोंक दिये?
अधिकांश सिविल सोसायटी समूहों की दृष्टि और मिशन पर सरसरी निगाह डालने से विकास, अधिकारों, न्याय, गरिमा, सेकुलरिज्म और करुणा के प्रति उनकी बुनियादी प्रतिबद्धता का संकेत मिलता है। कह सकते हैं कि उनकी दृष्टि और मिशन की जड़ें एक राजनीतिक विश्वदृष्टि में काफी गहरे धंसी हैं। इन साफ़ तौर पर घोषित प्रतिबद्धताओं के बावजूद यदि संगठन आगे बढ़कर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हमें इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करनी होगी।
अकसर हमें सुनने को एक ही कारण मिला है कि ये मुद्दे “राजनीतिक” थे।
इतिहास के इस मौजूदा पड़ाव पर- जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकतें हमारे संविधान की प्रस्तावना में काफी स्पष्टता से परिभाषित लोकतंत्र, विश्वदृष्टि और मूल्यों की अवधारणा को चुनौती देने में लगी हैं- सिविल सोसायटी को यदि नाटकीय रूप से बदलती हुई इस दुनिया में भविष्य में प्रासंगिक बने रहना है तो उसके लिए अपरिहार्य होगा कि वह अपने अ-राजनीतिकरण के सवाल से खुद जूझे।
चैरिटी या एक्टिविज्मः नतीजा सिफ़र?
सिविल सोसायटी में धर्मार्थ कार्य (चैरिटेबल) करने वाला का एक बड़ा तबका हमेशा मौजूद रहेगा। भारत जैसे एक देश में उनकी बहुत ज़रूरत है, जहां आज भी बड़ी आबादी बुनियादी इंसानी आवश्यकताओं के बगैर महामारी, अत्यधिक गरीबी और बीमारी से जूझ रही है। सिविल सोसायटी का एक दूसरा बड़ा तबका है, जो दुनिया के भविष्य को न्यायपूर्ण, शांतिपूर्ण, मानवीय और सतत बनाने के लिए राजनीतिक प्रक्रियाओं में संलग्न है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि इस तरह के समूहों का लेना-देना प्राथमिक रूप से सत्ता के असमान व अन्यायपूर्ण वितरण तथा मनुष्य और समाजों पर पड़ रहे उसके प्रभावों से है। हो सकता है कि ये दोनों रास्ते अलहदा दिखते हों, लेकिन सिविल सोसायटी की विविध और व्यापक अवधारणाओं की बुनियाद में एक ही उद्देश्य है और वो है सत्ता का “लोकतांत्रीकरण”।
सिविल सोसायटी के राजनीतिक काम के पीछे इतना मज़बूत वैचारिक तर्क होने के बावजूद हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच गये हैं जहां हमारी आकांक्षाएं और हमारे कथन तो राजनीतिक हैं लेकिन हमारा व्यवहार और अमल (प्रैक्सिस) आराजनीतिक हो चुका है।
सिविल सोसायटी में घटता राजनीतिकरण
पिछले एकाध दशक के दौरान अनुदानित संगठनों की पैदावार बढ़ी है। फंड पाने वाले इन संगठनों ने स्वैच्छिक संसाधनों और परिवर्तन की भावना के साथ काम करने वाले जन आंदोलनों या समुदाय आधारित समूहों की जगह ले ली। मोटे तौर पर स्वैच्छिक, समुदाय आधारित समूहों की जगह फंडेड संगठन परिदृश्य में आ गये।
इनमें से कुछ संगठनों ने काफी संपत्ति बनायी- जैसे ज़मीन, ट्रेनिंग सेंटर, भारी संख्या में वैतनिक स्टाफ और बड़े प्रोजेक्ट। इसने छोटे संगठनों को भी प्रेरित किया कि वे निजी पहल या स्वैच्छिक पहल से खुद को आगे बढ़ाकर एक सुसंगत ढांचे वाली इकाई में खुद को तब्दील कर लें।
जैसे-जैसे इन इकाइयों के हित अपने सांगठनिक ढांचे को कायम रखने से जुड़ते गये, सत्ता और ताकतवर से सवाल करने की अपनी क्षमता से इन्होंने समझौता किया। राज्य सत्ता और उसके प्रच्छन्न हितों को राजनीतिक चुनौती देने का इनका सामर्थ्य घटता गया। इसके पीछे सिविल सोसायटी के लिए बनाये कठोर नियामकों व बंदिशों का अनुपालन भी जुड़ा था। वंचितों और हाशिये पर पड़े लोगों के लिए न्याय व गरिमा सुनिश्चित करने के लिए सत्ता से सवाल करना ज़रूरी था। सत्ता को चुनौती देने के क्रम में इन सिविल सोसायटी समूहों को अराजनीतिक पक्ष अख्तियार करना पड़ा ताकि उनके सांगठनिक ढांचे पर कोई आंच न आने पावे। विदेशी अनुदान लेने वाले संगठन तो इस मामले में और कमजोर हो गये (क्योंकि राजनीतिक हलके में विदेशी अनुदान के साथ विदेशी हित को जोड़कर शंका के साथ देखा जाता है)।
जल्द ही संगठनों की एक परिपाटी बन गयी कि सवाल तो राजनीतिक पूछने हैं, लेकिन व्यवहार में राजनीतिक कार्य से दूर रहना है ताकि सत्ता में बैठे लोग उन्हें चुनौती मानकर पलटवार न कर बैठें। ये संगठन (सिविल सोसायटी का एक बड़ा हिस्सा) इस बात को भूल गये कि बदलाव, खासकर हाशिये के और वंचित समूहों के पक्ष में किसी भी बदलाव की एक कीमत चुकानी पड़ती है। नतीजतन, इनकी भूमिका धीरे-धीरे सिमट कर गरीबों और हाशिये के समूहों के मुद्दों व मांगों की पहचान, विश्लेषण और सूत्रीकरण तक सीमित हो गयी। इसे ऐसे कह सकते हैं कि सिविल सोसायटी समूहों ने अब रिसर्च, ट्रेनिंग, योजनाओं को लागू करवाने, नीतिगत इनपुट देने, पैरोकारी, इत्यादि का काम शुरू कर दिया था लेकिन पहले से स्थापित सत्ता सम्बंधों को चुनौती देने के लिए जनता की ताकत को संगठित और एकजुट करने के काम से वे दूर जा चुके थे।
फिर हुआ इस सेक्टर पर ‘पेशेवरों‘ का हमला
कुछ लोग, जो स्वैच्छिक यानी वॉलन्टरी क्षेत्र (सिविल सोसायटी का पुराना नाम) को पेशेवर बनाने पर ज़ोर दे रहे थे उन्हें इसमें अक्षमताएं दिखनी शुरू हो गयीं। इसका मतलब साफ़ था- काम करने के नये परतदार ढांचे, नौकरशाही वाली प्रक्रियाएं और सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने के लिए नये वैकासिक औज़ारो का प्रवेश।
विकास के तकनीकी व प्रबंधकीय औज़ारों की अपर्याप्तता पर चर्चा में गये बगैर यह रेखांकित करना ज़रूरी होगा कि इन बदलावों ने सिविल सोसायटी की स्वैच्छिक प्रकृति में रूपांतरण चालू कर दिया। जो सिविल सोसायटी कभी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की भावना से संचालित थी, उसे अब पेशेवर संस्थागत संगठन में बदल दिया गया। पिछले एक दशक के दौरान ये संगठन अपनी स्वैच्छिक प्रकृति से और दूर चले गये हैं और अब तो कॉरपोरेट जगत के सांगठनिक सिद्धान्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं। असमानता, अप्रतिष्ठा और अन्याय जैसी गहन राजनीतिक समस्याओं को अब पेशेवर तरीके से हल किये जा सकने वाले प्रश्नों की तरह देखा जाने लगा है, जिसके चलते राजनीतिक दृष्टि को उठाकर ताखे पर धर दिया गया है।
सतही निकला व्यवस्थागत नज़रिया
बिजनेस प्रबंधन की दृष्टि आयी, तो क्षमता संवर्द्धन और प्रभावकारिता पर ज़ोर दिया गया। साथ ही पिछले दशक में स्केल यानी आकार पर भी अतिरिक्त ज़ोर रहा, जिसने सिविल सोसायटी को और ज्यादा अराजनीतिक बनाने का काम किया। बिजनेस प्रबंधन की दृष्टि मानती है कि सामाजिक परिवर्तन एक सुनियोजित (जिसकी एक स्पष्ट डिज़ाइन हो) हस्तक्षेप से मुमकिन है। इसी के चलते हम संगठनात्मक दृष्टि व मिशन पर काम करने के बजाय डोनर (दानदाता) द्वारा स्वीकृत परियोजनाओं की ओर बढ़ गये। डोनर की प्राथमिकताएं ऐसी रहीं जिसने हस्तक्षेपों में दखल दिया और इस क्षेत्र के काम को “प्रोजेक्ट” में तब्दील कर दिया। अब प्रोजेक्टों के लिए काफी आसान हो चुका था कि सत्ता-वितरण के मूल मुद्दे के इर्द-गिर्द मंडराते हुए कुछ छोटी-मोटी उपलब्धि हासिल कर ली जाय।
संगठनों को हालांकि काफी जल्द इस बात का अहसास हो गया कि प्रोजेक्ट वाला तरीका अपर्याप्त और अप्रभावी है, लिहाजा हम एकांगी नजरिये (चीज़ों को समग्र से काटकर देखने का तरीका) से व्यवस्थागत नजरिये (सिस्टम) की ओर मुड़ गये। व्यवस्थागत नज़रिया यह मानता है कि समाज के किसी एक पहलू में परिवर्तन एकांगी तरीके से अकेले में हासिल नहीं किया जा सकता क्योंकि हर पहलू एक व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तंत्र के भीतर आपरेट करता है। व्यवस्थागत नजरिये कहता है कि एक तंत्र के भीतर अलग-अलग चीज़ें आपस में जुड़ी हुई हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं और इनके काम करने का सामूहिक तरीका बहुत जटिल है।
यह बदलाव मोटे तौर पर जुबानी ही रहा। हुआ यह कि संगठनों ने अपनी दृष्टि, मिशन और दीर्घकालीन रणनीतिक योजनाओं में तो सिस्टम का लेंस फिट कर लिया, लेकिन उनकी व्यावहारिक कार्ययोजनाएं, बजट आवंटन, संगठनात्मक ढांचे और क्षमताएं आदि एकांगी नजरिये से ही काम करती रहीं। फंडिंग एजेंसी और डोनर भी अब सिस्टम की बात करते हैं, लेकिन व्यवहार में वे भी ऐसे प्रोजेक्टों को ही पैसा देते हैं जो छोटी अवधि के हों, समयबद्ध हों और एक सहज चौखटे में बंधे हों। इस बुनियादी विरोधाभास का ही नतीजा है मिशन से भटकाव, कर्मचारियों में प्रतिबद्धता का अभाव और इस सेक्टर की घटती विश्वसनीयता।
एक विशिष्ट चौखटे के भीतर काम
सिविल सोसायटी के सांस्थानीकरण से एक और आशय निकलता है- एक तरतीब की बढ़ती चाहत और काम को एक “व्यवस्थित” माहौल में अवस्थित करने की इच्छा। परिवर्तन की प्रक्रिया के मुकाबले यह चाहत एकदम उलटी है क्योंकि परिवर्तन तो हमेशा अव्यवस्थित और अराजक होता है। एक “व्यवस्था” की तलाश में सिविल सोसायटी ने राज्य के साथ ज्यादा से ज्यादा अपनी संलग्नता को बढ़ा लिया, चूंकि वहां “संलग्नता का एक व्यवस्थित ढांचा” पहले से मौजूद है।
इस तलाश का एक और नतीजा हुआ। सिविल सोसायटी समूह अपने समुदायों से दूर होते गये। समुदायों के साथ उनका प्रत्यक्ष संपर्क और संवाद जाता रहा। इसके दो महत्वपूर्ण परिणाम सामने आये।
पहला, चूंकि सिविल सोसायटी की विशिष्ट ताकत समुदायों के साथ उसकी निकटता से ही पैदा होती है, लिहाजा राज्य और बाज़ार के समक्ष सिविल सोसायटी की विश्वसनीयता में गिरावट आयी। हम में से कई, और हमारे डोनर भी, इस बात को नहीं समझते, जिसके चलते समुदायों में निबद्ध जनकेंद्रित नजरिये के बजाय वे अब भी तकनीकी-प्रबंधकीय नज़रिये से काम किये जा रहे हैं।
दूसरे, जो जगह खाली हुई है, वहां धार्मिक, कट्टरपंथी और संरक्षणवादी विश्वदृष्टि वाले वैकल्पिक सिविल सोसायटी समूहों ने अपनी ज़मीन बनानी शुरू कर दी है। ज़मीन पर हो रहे इस बदलाव के देश की राजनीति के लिए निहितार्थ दूरगामी हैं। भारतीय राजनीति के दक्षिणपंथ की ओर चले जाने में यह एक अहम कारक है।
सिविल सोसायटी अब हाशिये पर जा रही है
सिविल सोसायटी के काम करने के तरीकों में आये इन अहम बदलावों के कारण अब पैरोकारी, लॉबींग, शोध, नीति व प्रचार के काम को ज्यादा जगह मिल रही है जबकि सामूहिकीकरण, आलोचनात्मक शिक्षण, जन एकजुटता और सामुदायिक संगठन निर्माण से जुड़ी गतिविधियों को कम तवज्जो दी जा रही है, जो यथास्थिति को चुनौती देने के लिए अहम होती हैं।
परिभाषागत दृष्टि से देखें तो सिविल सोसायटी को अहिंसा के दायरे में रह कर काम करना होता है, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम अन्याय और अप्रतिष्ठा पर एक रैडिकल (उग्र परिवर्तननवादी) प्रतिक्रिया नहीं दे सकते। इस अव्यवस्था का जवाब देने और सत्ता को प्रतिक्रिया देने में हमारी सामर्थ्यहीनता ने ही हमें उस लोकवृत्त के भीतर चल रहे केंद्रीय विमर्शों में हाशिये पर डाल रखा है जो हमारी राजनीति, समाज और आर्थिकी को शक्ल देता है।
राजनीति के साथ अलगाव की यह प्रक्रिया अब सिविल सोसायटी के हाशियाकरण की राह बना रही है।
पिछले कुछ वर्षों में हमने दुनिया भर में बड़े पैमाने पर जन आंदोलन देखे हैं- आक्युपाइ मूवमेंट, अरब स्प्रिंग, पिछले साल हांगकांग, बेरूत, कोलम्बिया में हुए प्रदर्शन और खुद हमारे देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, बलात्कार विरोधी प्रदर्शन, और हाल ही में एनआरसी/सीएए के खिलाफ हुए उभार। ये आंदोलन हमारे भविष्य को नये सिरे से परिभाषित कर रहे हैं लेकिन संगठित सिविल सोसायटी ने इनमें अपना बहुत मामूली योगदान दिया है। सिविल सोसायटी की इस अराजनीतिक भूमिका के चलते सिविल सोसायटी संगठन अपने उद्देश्यों को खो चुके हैं। अपनी घटती प्रभावोत्पादकता और बदलाव के प्रति अपने सतही नजरिये के कारण सिविल सोसायटी की विश्वसनीयता और जनता में उसका भरोसा लगातार कम होता जा रहा है।
आज इस क्षण में, जब बीसवीं सदी को परिभाषित करने वाले बुनियादी मूल्य दबाव में हैं और सामाजिक अनुबंध को अप्रत्याशित तरीके से तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है; नागरिकता, राष्ट्र, लोकतंत्र, न्याय और स्वतंत्रता के विचार और आदर्श दोबारा परिभाषित किये जा रहे हैं; सिविल सोसायटी हाशिये पर केवल तमाशबीन बने नहीं बैठी रह सकती। एक बार फिर इसे समुदायों और राजनीति के साथ खुद को संलग्न करना होगा और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, न्याय व लोकतंत्र के प्रगतिशील आदर्शों को बचाने, उन्हें गहरा करने और उनका प्रसार करने में केंद्रीय भूमिका निभानी होगी।
लेखक के नोट
भारतीय सिविल सोसायटी के भीतर बहुविध ताकतें शामिल हैं और इसकी विविधता व्यापक है। राजनीतिक प्रश्नों के साथ संलग्नता वाले समूहों का दायरा भी सतरंगी है। यह आलेख विकास और अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत समूहों पर केंद्रित है, यह मानते हुए कि इस दायरे में भी अलग-अलग राहें हो सकती हैं।
इस लेख में “राजनीतिक” की अवधारणा का राजनीतिक दलों या चुनावी राजनीति से लेना-देना नहीं है। यहां राजनीतिक का ज़ोर पावर डायनामिक्स यानी सत्ता की गतिकी पर है, जो खुद को तमाम रूपों में अभिव्यक्त कर सकती है। मसलन, पितृसत्ता से लेकर जाति की सत्ता तक सब कुछ। इसके भीतर आर्थिक असंतुलन से लेकर समुदायों के पृथक्करण या व्यक्ति के अधिकारों तक के सवाल शामिल हैं। इसका ताल्लुक सरकारों, राजनीतिक सत्ताओं या राजनीतिक दलों से नहीं है।
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