दर्शन के इतिहास में ‘साध्य’ व ‘साधन’ की शुचिता और उनके अन्तरसम्बन्धों के इर्द-गिर्द निरन्तर एक शाश्वत विमर्श मौजूद रहा है। वास्तविक संसार में भी सनातनी आख्यान ‘साध्य’ व ‘साधन’ के अंतर्संबंध पर ही केन्द्रित रहा है। आजकल आभासी संसार में ‘धारणा प्रबन्धन’ के नजरिए से सनातन दर्शन की चर्चा को उछालने के प्रयास चल रहे हैं।
महात्मा गांधी ‘साधन’ व ‘साध्य’ दोनों की पवित्रता को एक दूसरे की जरूरत मानते थे। इसीलिए वे सार्वजनिक रूप से दृढ़तापूर्वक अपने को ‘सनातनी हिन्दू’ लिखते और कहते रहे और इसके नाते अस्पृश्यता-विरोध को अपना कर्तव्य मानते रहे। इसके विपरीत, खुद को ‘सनातन धर्म’ का अनुयायी कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठन हिन्दू हित के अपने ‘पवित्र साध्य’ को पाने के लिए ‘साधन’ की पवित्रता को नकारते रहे या गौण मानते रहे।
आरएसएस के उद्भव एवं उसकी सौ वर्षों की विकास-यात्रा में इस दृष्टिकोण के प्रति प्रतिबद्धता निरन्तर प्रकट होती रही है पावन साध्य के लिए साधन की पवित्रता जरूरी नहीं होती। संघ के अनुसार ‘हिन्दू हित’ के पावन ‘साध्य’ की साधना में किये गये समस्त प्रयास औचित्यपूर्ण हैं, भले ही वे घृणा, हिंसा, विध्वंस, भष्टाचार के जरिए किये जाएं और शुचिता के समस्त मापदंडों के उल्लंघन पर ही क्यों न आधारित हों। इसके अलावा, ‘हिन्दू हित’ के पावन ‘साध्य’ के लिए किया जाने वाले समस्त प्रयास किसी भी किस्म की सामाजिक और राजकीय जवाबदेही से परे है।
एक अपंजीकृत (गैर-जवाबदेह) सांस्कृतिक संगठन के मुखौटे के पीछे छुपकर लगातार राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाला यह संगठन न सिर्फ फलता-फूलता रहा है अपितु चल-अचल संसाधनों का संग्रहण भी करता रहा है। साथ ही यह किसी भी प्रकार की सार्वजनिक/सामूहिक/राजकीय जवाबदेही को धता बताने में भी लगातार सफल रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पीढ़ी दर पीढ़ी संघ की छत्रछाया में फूले-फले लोग अंतरात्मा से वैमनस्य, हिंसा व भ्रष्टाचार में रंग गये और जवाबदेही-मुक्त रहने के लिए संदिग्ध व ‘भूमिगत’ कार्य-पद्धति में पारंगत होते चले गये।
पिछले तीस वर्षों का (बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर राममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा तक) संघ व व उसके सहचर संगठनों का सफर इसका जीता-जागता प्रमाण है। पिछले दस वर्षों से शाखामृगों के नेतृत्व में संघ के आशीर्वाद से चल रही सरकार के चरित्र व आचरण में भी इसकी छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। सरकारी आयोजनों में संवैधानिक परम्पराओं और प्रावधानों को लगातार धता बताकर अपने संवैधानिक पद और सरकारी धन को वे एक धर्म-विशेष के कर्मकांडों पर बेशर्मी से खर्च करते रहे और उसके लिए किसी भी जवाबदेही को हठपूर्वक नकारते रहे।
इस सरकार ने ‘मनी बिल’ के संवैधानिक प्रावधानों को तोड़-मरोड़ कर उसके दुरुपयोग का ऐतिहासिक कीर्तिमान स्थापित किया है। पीएम केयर फण्ड कानून; निर्वाचन बॉन्ड कानून और सूचना के अधिकार कानून (संशोधन) वे चंद उदाहरण हैं जो शासन-प्रशासन में गैर-जवाबदेही के अपने विषाणुओं को इंजेक्ट करने के दुस्साहस को उजागर करते हैं।
कुल मिलाकर पिछले एक दशक में संघ ने भाजपा का बेताल बनकर न सिर्फ राजकीय-प्रशासनिक तंत्र पर अपना शिकंजा कसा है बल्कि उसे अपने आनुवंशिक गुणों से विषाक्त भी किया है। आजकल घर-घर द्वारे-द्वारे, हर चौबारे, चौकी-थाना और सचिवालय तक वैमनस्य, हिंसा, भ्रष्टाचार और गैर-जवाबदेही का जो नंगा-नाच चल रहा है, वह इसी दार्शनिक दिशा का दुष्परिणाम प्रतीत होता है।