स्मृतिशेष: मुन्ना मारवाड़ी चले गए, काशी अब ‘बाकी’ नहीं है


वो कोई और बनारस था जहां मैं मुन्‍ना मारवाड़ी से मिला था- लाहौरी टोला के त्रिसन्‍ध्‍येश्‍वर महादेव एवं त्रिसन्‍ध्‍य विनायक मंदिर के ठीक एक कोने में उनकी दुकान में। उस वक्‍त गलियों में ‘धरोहर बचाओ’ के परचे ताज़ा ही चिपके थे। मंदिर तोड़े जाने और कॉरीडोर बनाये जाने के खिलाफ़ आंदोलन शुरू ही हुआ था। मुन्‍नाजी उर्फ कृष्‍ण कुमार शर्मा आंदोलन के अगुवों में थे।

उस दिन दो घंटा बात हुई थी। शायद तीन, साढ़े तीन साल पहले! उनके ज्ञान से मैं अभिभूत था। लाहौरी टोला और लाहौरी नमक के इतिहास से लेकर पंचक्रोशी पथ, पक्‍कामहाल के विग्रहों और सनातन के बहुलतावाद तक उन्‍होंने ऐसा ताना-बाना बुना जिसके सामने बनारस पर मेरा अब तक का अर्जित ज्ञान और अनुभव छटांक भर साबित हो गया।

जब वे मंदिर तोड़ने के सवाल पर आए, तो उनका मधुर लेकिन स्‍पष्‍ट स्‍वर विक्षोभ और आक्रोश-मिश्रित फुसफुसाहट में तब्‍दील हो गया। बातचीत के बीच में दिल्‍ली से आया आर्कियोलॉजी वाला एक सरकारी अधिकारी अचानक दुकान पर आ धमका, जो पैमाइश के काम में लगा हुआ था। मुन्‍नाजी उसके बाद चुप ही हो गये। दबे लहजे में उन्‍होंने बताया कि उनकी दुकान पर आने वाले, उनके मुलाकातियों पर लगातार नज़र रखी जा रही है।

मैं वापस आ गया। इसके बाद उनसे फोन पर लगातार बात होती रही। उनके लिखे को मैं फेसबुक पर पढ़ता रहा।

कि मैं भी एक जिंदा लाश हूं…क्या वास्तव में बनारस बदल गया है?जिन्होंने बनारस को जीया ही नहीं वो अब बनारसवासियों को…

Posted by Munna Marwari on Wednesday, June 10, 2020

कोई नौ महीने बाद दोबारा जब मैं उनसे मिला, तब उनकी दुकान पक्‍कापा के मलबे के समंदर में एक टापू जैसी हो चुकी थी। वे बहुत दुखी थे। लोकसभा चुनाव करीब आ रहे थे। वे खतरा भांप चुके थे। खतरे के खिलाफ़ खड़े भी हो रहे थे। बनारस में एक अंडरकरेंट था चुनाव से पहले तक संघ के भीतर, जिस पर मैंने लौट कर लिखा भी था। पक्‍कामहाल के पुराने लोग, जो दशकों संघ के साथ रहे थे, अब विमुख हो चुके थे। आंदोलन में भितरघात भी हुआ था। मुन्‍नाजी दृढ़ प्रतिज्ञ थे कि वे अपनी जगह से नहीं हटेंगे, चाहे जान ही क्‍यों न देनी पड़े।

उनके संकल्‍प के उलट आसपास का दृश्‍य चीख-चीख कर कह रहा था कि बहुत जल्‍द लाहौरी टोला और उसकी गलियां इतिहास व भूगोल के मानचित्र से गायब होने वाली हैं। मुन्‍नाजी को भीतर से यकीन नहीं था। वे बार-बार कोर्ट के काग़ज़ दिखा रहे थे, उम्‍मीद जता रहे थे।     

जो बनारस को नहीं जानते, उन्‍हें शायद इस बात का इल्‍म नहीं होगा कि बनारस जैसी पुरानी सभ्‍यताओं का भूगोल और इतिहास एक होता है। पेकिंग, बेबीलोन, ऐसी ही सभ्‍यताएं हैं। इन जगहों का भूगोल उनके इतिहास की गवाही देता है और यहां के इतिहास के पड़ाव-चिह्न जिंदा भूगोल हैं। यहां आप भूगोल को बदलेंगे, तो इतिहास भी बदल जाएगा। यह बात उन्‍हें बखूबी पता है जो बनारस का भूगोल बदलने पर आमादा हैं।

मोदी का काशी: प्राचीनतम सभ्यता का मलबा

वे जानते हैं कि बनारस का भूगोल बदल देने पर उसके इतिहास की मनमाफिक व्‍याख्‍या की जा सकती है क्‍योंकि इतिहास के चिह्न ही जब अस्तित्‍व में नहीं रहेंगे, तो इतिहास की पहचान कैसे होगी। ज़ाहिर है, वर्तमान के भूगोल से। साल भर से कम समय में उन्‍होंने यही किया। बनारस का भूगोल और उसके सहारे इतिहास एक झटके में बदल डाला। लाहौरी टोला गायब हो गया। खंडहर में बाल-बाल बच गये बस त्रिसन्‍ध्‍येश्‍वर महादेव और त्रिसन्‍ध्‍य विनायक। सदियों पुराने सारे पते मिट गये। जैसे कभी यहां कुछ था ही नहीं।

जिस दिन कॉरीडोर उर्फ ‘विश्‍वनाथ धाम’ के उद्घाटन के लिए यहां प्रधानमंत्री आए, उस दिन विश्‍वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी के सामने का मिट्टी से पटा हुआ विस्‍तार एक भरीपूरी सभ्‍यता की दबी हुई लाश की गवाही दे रहा था। मैं पीछे से वहां पहुंचा था। मणिकर्णिका होते हुए। पता चला कि जो जिंदा गवाह थे, उन्‍हें तालों में जकड़ दिया गया था।

उस दिन सुबह से ही जलासेन घाट की मलिन बस्‍ती के वासियों को उनके घरों में कैद कर के कॉरीडोर के पिछले प्रवेश पर अर्धसैन्‍य बल तैनात कर दिए गए थे। किसी को आने-जाने की छूट नहीं थी। औरतें तैयार थीं, युवा तैयार थे कि प्रधानमंत्रीजी से अपनी व्‍यथा बतलाएंगे, कि कैसे रोज़ उन्‍हें मारपीट के घर खाली करने को मजबूर किया जा रहा है। सबको उनके घरों में जकड़ दिया गया। हिलने नहीं दिया गया।

मारपीट और घर खाली करने की खबर सुनकर इटली से विवेक वापस आया हुआ था। वो एक इटैलियन से शादी कर के मिलान के एक गांव चला गया था। उस दिन प्रधानमंत्री जब भाषण दे रहे थे, विवेक अपने दो दोस्‍तों के साथ खंडहर और मलबे पर बैठक कर भरी दोपहर गांजा फूंक रहा था। उन्‍हें अपनी पुश्‍तैनी रिहाइश छोड़ने का दुख तो था ही, लेकिन सबसे ज्‍यादा एक नपुंसक क्रोध था कि वे कुछ कर नहीं पा रहे।

बनारस की कब्र पर काशी विश्वनाथ धाम की तैयारी

मुन्‍नाजी उस दिन अपने घर में ही पड़े रहे। मैंने फोन लगाया जलसेन घाट से ही। बोले, क्‍या करूंगा आकर? मौत का तमाशा देखने आऊं? मैंने कहा, मैं ही आ जाता हूं, पता बताइए। वे मंड़ुवाडीह रेलवे स्‍टेशन के सामने वाली बस्‍ती में शिफ्ट हो चुके थे। एक पुराने-धुराने दड़बानुमा मकान में। मैं दिन ढलते पहुंचा। वे स्‍टेशन के बाहर एटीएम तक मुझे लेने आए। भीतर गली में अपने नये मकान में लेकर गये। कोई तीन सौ मीटर भीतर रहा होगा, दाएं बाएं दाएं।   

वहां सब कुछ टूटा-फूटा था। काम चल रहा था। पूरा परिवार एक ही कमरे में सिमटा हुआ था। पक्‍कामहाल का वैभव शहरी स्‍लम की अमानवीय दरिद्रता में तब्‍दील हो चुका था। मुन्‍नाजी कमज़ोर हो गये थे। भीतर से भी। बाहर से भी।

उस दिन घंटा भर बैठकी हुई। बस एक चौकी थी सबके बैठने के लिए। शायद एक कुर्सी भी। तिरपन साल की उम्र में इस शख्‍स की जड़ों को बेरहमी से काट दिया गया था। ऐसे सैकड़ों लोग थे जो प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्‍ट को पूरा करने के लिए विस्‍थापित हुए थे। सैकड़ों और होने बाकी थे। विवेक के परिवार की तरह।

मड़ुआडीह के पास अपने नये मकान में मुन्नाजी, साभार: मुन्ना मारवाड़ी की फेसबुक टाइमलाइन

यह विस्‍थापन सामान्‍य नहीं था। मुन्‍ना मारवाड़ी का पूरा अस्तित्‍व ही विस्‍थापित हो चुका था। मुन्‍नाजी को अब अदालत से भी कोई उम्‍मीद नहीं रह गयी थी। वे बस बोल रहे थे, बिना कुछ खास महसूस किए। मैं उनकी आंखों में देख रहा था, बिना कुछ खास सुने। सुल्‍तानपुर के किसी वकील का नंबर उन्‍होंने दिया था, जो गुम हो गया। कुछ काग़ज़ थे।

याद पड़ता है, बीच में वे एकाध बार रोते-रोते रह गये थे। जब ऐसी स्थिति आती, वे एकदम से चुप हो जाते। आंख चुरा लेते। आवाज़ भर्रा जाती। वह मेरी आखिरी मुलाकात थी उनसे। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले।

बीच-बीच में फेसबुक पर मुन्‍नाजी का लिखा मैं देखता रहा। सोचा था कि जब बनारस नामक सभ्‍यता की तबाही पर किताब लिखूंगा और छपेगी, तब शायद मुन्‍नाजी के दर्द को कुछ राहत दे पाऊं। किताब तो सुरेश प्रताप जी ने लिख दी। और क्‍या खूब लिखी। मेरे लिखने का एक कारण तो उसके साथ ही समाप्‍त हो चुका था। अब मुन्‍ना मारवाड़ी भी गुज़र गए। किताब किसके लिए लिखूं? कितने मुन्‍ना मारवाड़ी बचे हैं बनारस में?

खुद सुरेश प्रताप सिंह के शब्‍दों में जानिए, मुन्‍ना मारवाड़ी कौन थे।

#पक्काप्पा_के_योद्धा -6———————————#विकास ने जब दरवाजे पर दी दस्तक तब टूटी…

Posted by Suresh Pratap Singh on Tuesday, March 12, 2019

पिछले दिनों मुन्‍नाजी का जिक्र तब आया जब अनुज राहुल कोटियाल अयोध्‍या में शिलापूजन के बाद अगस्‍त में बनारस गए थे स्‍टोरी करने। उनकी स्‍टोरी की थीम थी- ‘काशी मथुरा बाकी है’। पत्रकारिता अगर पेशा न होती, तो मैं राहुल से कहता कि काशी अब कुछ खास बाकी नहीं है, तकरीबन पूरी हो चुकी। ज्ञानवापी का गिरना न गिरना अब कोई मायने नहीं रखता उस शहर में, जिसने सैकड़ों मंदिरों को अपनी आंखों के सामने गिर जाने दिया। चूंकि स्‍टोरी का सवाल था, सो मैंने उन्‍हें मुन्‍नाजी से भी मिलने को कहा था।

लॉकडाउन में बनारस का हाल सबसे मिलता रहा, लेकिन मुन्‍नाजी से मेरी बात नहीं हो सकी। मिलाया था मैंने, लेकिन फोन लगा नहीं। वे पिछली बार ही बता रहे थे कि नये वाले मकान में नेटवर्क नहीं आता। नेटवर्क क्‍या गायब हुआ, नया वाला मकान मुन्‍ना मारवाड़ी को निगल ही गया।

विवेक की अम्‍मा का फोन अब भी मेरे पास आता है। उन लोगों को जलासेन घाट से उखाड़ कर कादीपुर भेज दिया गया है। जो गंगा किनारे रहे, वे वरुणा के पार हकाल दिए गए। वरुणा और अस‍ि से बनी बनारस की चौहद्दी तक उन्‍हें नसीब नहीं हुई। मुन्‍ना मारवाड़ी तो सांसारिक चौहद्दी को ही तोड़ कर निकल लिए।

शासक के सपनों के लिए अवाम ने हमेशा अपनी जान दी है। मुन्‍नाजी बनारस की उस विस्‍थापित अवाम का प्रतिनिधि चेहरा हैं, जिसके पीछे और आगे अब कुछ नहीं बचा था। वे अपनी उस दुकान की तरह बच गये थे- निरंतर जीवित प्राचीनतम सभ्‍यता की कब्र पर एक टापू के जैसे। तब केवल देह विस्‍थापित हुई थी। राजा का प्रोजेक्‍ट अब पूरा हुआ है।

राहुल कोटियाल से अब मैं कह सकता हूं, काशी बाकी नहीं दोस्‍त। मुन्‍ना मारवाड़ी गए। काशी का प्रोजेक्‍ट पूरा हुआ।     

पक्कापा सभ्यता की अंतिम सांस


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जनपथ का चौकीदार

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