वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने चार किस्त में आपातकाल के कुछ काले अध्याय लिख कर जनपथ को भेजे हैं। दूसरी कड़ी में पढिए न्यूजक्लिक के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की कहानी, जिन्हें गफलत में एक साल जेल काटनी पड़ी थी। शृंखला की पहली कड़ी यहाँ पढ़ सकते हैं।
संपादक
30 सितंबर 1975 को जेएनयू के शोध छात्र प्रबीर पुरकायस्थ स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ के सामने लॉन में तीन अन्य छात्रों सरस्वती मेनन, शक्ति काक और इंद्राणी मजुमदार के साथ बैठे थे, तभी काले रंग की एक एम्बेसडर कार आकर रुकी और उसमें से सादे कपड़ों में एक व्यक्ति बाहर आया। उसने लॉन में बैठे लोगों में से प्रबीर पुरकायस्थ को इंगित करते हुए पूछा- क्या तुम डीपी त्रिपाठी हो? त्रिपाठी उन दिनों जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे।
प्रवीण ने इनकार में सिर हिलाया पर तभी काली कार से कुछ और लोगों ने निकल कर प्रबीर को दबोच लिया और घसीटते हुए कार में डाल दिया। सब कुछ पलक झपकते हो गया। उस हंगामे में दिलचस्प बात यह हुई कि उस काली कार में आए लोगों में से एक व्यक्ति वहीं छूट गया। तब तक छात्रों की भीड़ जमा हो गई थी। उन्होंने उस व्यक्ति को पीटना शुरू किया और जानना चाहा कि प्रबीर को कहां ले जाया गया है और अपहरण करने वाले कौन लोग थे। इस बीच वहां पुलिस के कुछ और अधिकारी आ गए और उन्होंने उग्र भीड़ से उस व्यक्ति को छुड़ाया और छात्रों को आश्वासन दिया कि उनकी बात सुनी जाएगी।
बाद में पता चला कि उस काली एंबेसडर कार में ड्राइवर की सीट पर बैठा व्यक्ति दिल्ली का डीआइजी प्रीतम सिंह भिंडर था जो इंदिरा गांधी और विशेष तौर पर संजय गांधी का खास आदमी था। उसी की देखरेख में यह ऑपरेशन हुआ था।
दरअसल इमरजेंसी लगने के बाद से ही प्रशासन काफी सख्त हो गया था क्योंकि छात्रों ने बहुत मुखर ढंग से इमरजेंसी का विरोध किया था। 24 सितंबर से छात्रों ने स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ की एक छात्रा के निष्कासन के विरोध में कक्षाओं के बहिष्कार का आवाहन किया था। संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी भी उन दिनों वहां की छात्र थीं और छात्रों ने उनसे भी कक्षा के बहिष्कार के लिए कहा। आंदोलन का नेतृत्व डीपी त्रिपाठी कर रहे थे। रोके जाने पर मेनका गांधी गुस्से से तमतमा गईं और पैर पटकती हुई वापस चली गईं। वापस प्रधानमंत्री निवास पहुंचकर उन्होंने संजय गांधी से शिकायत की और फौरन पीएस भिंडर के नेतृत्व में एक टीम जेएनयू रवाना हो गई।
आंदोलन में आई तेजी को देखते हुए एहतियातन जेएनयू के मुख्य द्वार पर पुलिस उप-अधीक्षक डीआर आनंद और राजेंद्र मोहन पहले से मौजूद थे। भिंडर ने वहां पहुंचकर पहले तो इन दोनों अधिकारियों से स्थिति की जानकारी ली और बताया कि वह डीपी त्रिपाठी को गिरफ्तार करने आए हैं। इन दोनों अधिकारियों से भी साथ चलने को कहा और फिर दोनों साथ हो लिए। इन अधिकारियों ने भी शाह आयोग के सामने अपने बयान में बताया कि मेनका गांधी की शिकायत पर संजय गांधी ने भिंडर को आदेश दिया कि जेएनयू में इमरजेंसी के खिलाफ चल रहे छात्र आंदोलन के नेताओं को वह गिरफ्तार करें। खास तौर पर उस दाढ़ी वाले (डीपीटी) को जो छात्रों का नेता है।
शाह आयोग का निष्कर्ष था कि पीएस भिंडर ने डीपी त्रिपाठी के भ्रम में प्रबीर पुरकायस्थ को गिरफ्तार कर लिया और अपने इस कृत्य को सही ठहराने के लिए झूठमूठ के आरोप लगाकर प्रबीर के खिलाफ मीसा के तहत वारंट जारी करा दिया। बेशक, प्रबीर भी आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे लेकिन पुलिस उस दिन उन्हें नहीं बल्कि त्रिपाठी को पकड़ने गयी थी। चूंकि यह मामला सीधे-सीधे पीएम हाउस से जुड़ा था इसलिए किसी ने भिंडर की बातों को चुनौती नहीं दी।
बहरहाल, प्रबीर को पकड़कर हौज खास पुलिस स्टेशन ले जाया गया। फिर उन्हें तिहाड़ जेल में रखा गया। मार्च 1976 में तिहाड़ के 11 खतरनाक कैदी अपनी बैरक से सुरंग बना कर भागने में कामयाब हो गए। इससे बौखला कर अधिकारियों ने अन्य बंदियों को दूसरी जेलों में भेजना शुरू किया।
प्रबीर को अब आगरा जेल भेज दिया गया जहां उन्हें 25 दिनों तक कैद तन्हाई में रखा गया। मीसाबंदियों के मामलों पर विचार करने के लिए समय-समय पर रिव्यू कमेटी की मीटिंग होती है लेकिन मेनका गांधी और संजय गांधी का ऐसा दबदबा था कि सांसद समर मुखर्जी के प्रयासों के बावजूद प्रबीर की रिहाई टलती रही। आखिरकार पूरे एक साल बाद 25 सितंबर 1976 को उनकी रिहाई का आदेश जारी हुआ
यह थी इमरजेंसी!
इस घटना के 46 साल बाद एक बार फिर प्रबीर पुरकायस्थ को सरकार ने अपना निशाना बनाया। 9 फरवरी 2021 की सुबह प्रवर्तन निदेशालय ने दिल्ली स्थित उनके मीडिया पोर्टल न्यूज़क्लिक के दफ्तर पर और उनके आवास पर छापा डाला। आरोप था कि इस न्यूज़ पोर्टल को विदेश की संदिग्ध कंपनियों से पैसा मिलता है।
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प्रबीर के न्यूज़ पोर्टल के खिलाफ सरकार का गुस्सा इसलिए था क्योंकि यह पोर्टल लगातार विरोध कर रहा था मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों का, हिंदू-मुस्लिम के बहाने समाज की समरसता भंग करने का, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भीमा कोरेगांव जैसे फर्जी मामलों में बंद करने का और बेशक, छह महीने से भी अधिक समय से चल रहे किसान आंदोलन पर सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैया का। अस्सी घंटे से भी अधिक समय तक चली छापे की कार्यवाही में न्यूज़ पोर्टल के खिलाफ कुछ भी हाथ ना लगा। और हां, इस समय कोई इमरजेंसी नहीं थी!
(क्रमशः)
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