‘ये ज़मीन हमारी है…!’ क्यूबा और हैती के ‘ज़ाती’ संकट से आती मुक्ति की आवाज़ें


त्रिनिदाद के लेखक सीएलआर जेम्‍स ने हैती की क्रांति पर 1938 में लिखी अपनी क्‍लासिक किताब द ब्‍लैक जैकोबिन्‍स: तूसां लूवेख्तियो एंड द सान दोमिंगो रेवॉल्‍यूशन का दूसरा संस्‍करण 1963 में प्रकाशित किया। इस नए संस्‍करण में जेम्‍स ने एक परिशिष्‍ट लिखा जिसका शीर्षक दिया- ‘तूसां लूवेख्तियो से फिदेल कास्‍त्रो तक’। परिशिष्‍ट के पहले पन्‍ने में ही उन्‍होंने हैती (1804) और क्‍यूबा (1959) की क्रांतियों को वेस्‍ट इंडियन द्वीपों के परिप्रेक्ष्‍य में अवस्थित करते हुए लिखा: ‘समस्‍याएं, उन्‍हें हल करने के प्रयास और जिन लोगों ने ऐसा किया, ये सब ज़ाती रूप से वेस्‍ट इंडियन थे, उसी ज़ाती मूल और ज़ाती इतिहास की पैदाइश थे।

जेम्‍स ने इस वाक्‍य में तीन बार अंग्रेज़ी के ‘पिक्‍यूलियर’ (ज़ाती) का प्रयोग किया, जिसका मूल स्रोत लैटिन का पिकूलिआरिस है जो ‘ज़ाती संपत्ति’ के लिए इस्‍तेमाल किया जाता है (यहां ‘पिकू’ मवेशियों के लिए प्रयोग किया जाने वाला लैटिन शब्‍द है जिसका सार है पुश्‍तैनी संपत्ति)। आधुनिक वेस्‍ट इंडीज़ के उद्गम और इतिहास के केंद्र में संपत्ति है। सतरहवीं शताब्‍दी की समाप्ति तक योरोपीय विजेताओं और उपनिवेशवादियों ने वेस्‍ट इंडीज़ के निवासियों का सामूहिक नरसंहार किया। सेंट किट्स में 1626 में अंग्रेजी और फ्रेंच उपनिवेशवादियों ने दो से चार हजार कैरिबियाई लोगों की हत्‍या की थी। इन्‍हीं में एक हत्‍या कालीनागो के कैरिब मुखिया तेग्रेमॉन की हुई थी, जिसके बारे में ज्‍यां-बाप्तिस्‍त दु तेर्ते ने 1654 में लिखा था। इस द्वीप के मूलनिवासियों का सफाया करने के बाद योरोपीय लोग यहां गुलाम अफ्रीकी पुरुषों-स्त्रियों को लेकर आए। वेस्‍ट इंडियन द्वीपों को उनकी भाषा और संस्‍कृति उतना एक नहीं करती जितना गुलामी का वह साझा अभिशाप करता है, जिसकी जड़ें औद्योगिक खेती की उत्‍पीड़नकारी अर्थव्‍यवस्‍था में हैं। हैती और क्‍यूबा दोनों इसी ज़ाती मसले के उत्‍पाद हैं। बस अंतर इतना है कि एक ने 1804 में ही गुलामी की बेडि़यां तोड़ दी थीं जबकि दूसरा करीब डेढ़ सदी के बाद आज़ाद हुआ।

आज कैरिबिया फिर से संकट में है।

जुलाई की सात तारीख को हैती की राजधानी पोर्ट-ओ-प्रिंस के ठीक बाहर स्थित राष्‍ट्रपति जोवनेल मोईज़ के आवास में कुछ बंदूकधारियों ने घुस कर उनकी हत्‍या कर दी और भाग गए। दिवंगत राष्‍ट्रपति की नीतियों से पैदा हुई सामाजिक उथल-पुथल के कारण देश पहले से ही टूट रहा था, अब वह और गहरे संकट में चला गया है। मोईज़ अपना कार्यकाल खत्‍म होने के बाद भी जबरन राष्‍ट्रपति बने हुए थे जबकि एक सदी से आर्थिक संकट में फंसा यह देश महामारी के झटके से और आहत होकर अंतरराष्‍ट्रीय एजेंसियों पर अपनी निर्भरता के बोझ से जूझ रहा था। हर चीज के दाम आसमान छू रहे थे और कष्‍ट में जी रही जनता को किसी सरकार का सहारा नहीं था। ऐसे में विरोध प्रदर्शन हैती में रोज़मर्रा की बात हो गयी थी। मोईज़ की हत्‍या हालांकि इस तात्‍कालिक संकट के चलते नहीं हुई। इसके पीछे कुछ रहस्‍यमय ताकतें काम कर रही थीं: अमेरिका स्थिति हैती के धार्मिक नेता, नार्को तस्‍कर और कोलंबिया से लाए गए भाड़े के हत्‍यारे। इस पूरे प्रसंग पर एक जबरदस्‍त रोमांचक कहानी बन सकती है।

मोईज़ की हत्‍या के चार दिन बाद क्‍यूबा में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ। लोग चीजों की किल्‍लत और हाल ही में बढ़े कोरोना संक्रमण के मामलों के खिलाफ अपने गुस्‍से का इज़हार कर रहे थे। विरोध भड़कने की खबर सुनने के कुछ घंटे के भीतर ही क्‍यूबा के राष्‍ट्रपति मिगेल दियज़ कनेल हवाना के दक्षिण में स्थित शहर सन अंतोनियो दे ला बाइंयोस की सड़कों पर उतर आए और प्रदर्शनकारियों के साथ मार्च करने लगे। दियज़ कनेल और उनकी सरकार ने एक करोड़ दस लाख की अपनी आबादी को याद दिलाया कि देश ने छह दशक पुराने अवैध अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते पहले ही बहुत कुछ सहा है जबकि आज देश ट्रम्‍प की लगायी अतिरिक्‍त 243 बंदिशों में जकड़ा हुआ है। उन्‍होंने कहा कि कोविड-19 और कर्ज संकट दोनों का मुकाबला संकल्‍प के साथ किया जाएगा।

उधर सोशल मीडिया पर एक दुष्‍प्रचार अभियान शुरू हो गया जिसमें इन प्रदर्शनों की तस्‍वीरों के सहारे बताया गया कि लोग राष्‍ट्रपति दियज़ कनेल और क्‍यूबा की क्रांति को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। कुछ दिन बाद यह साफ हुआ कि यह अभियान फ्लोरिडा के मियामी से चलाया जा रहा था। इसीलिए वॉशिंगटन में सत्‍ता परिवर्तन को लेकर बड़ा हल्‍ला था लेकिन क्‍यूबा में वे ऐसा माहौल नहीं पैदा कर सके। क्‍यूबा अपनी इंकलाबी धुन पर चलता है।  

हैती की क्रांति- जिसमें खेतिहर सर्वहारा ने चीनी और मुनाफा पैदा करने वाले कारखानों के खिलाफ बग़ावत कर दी थी- ने 1804 में पूरे उपनिवेशित जगत में आजादी की आंच पहुंचा दी थी। करीब डेढ़ सदी बाद क्‍यूबा के लोगों ने अपनी मशाल जलायी।

पेरिस और वॉशिंगटन में बैठे पूंजीपतियों ने इन दोनों क्रांतियों पर एक समान प्रतिक्रिया दी थी: आजादी की लहरों को दबाने के लिए प्रतिबंध और हर्जाना लगाना। 1825 में फ्रेंच उपनिवेशवादियों ने संपत्ति के नुकसान (यानी लोगों की हानि) के बदले हैतियों पर 150 मिलियन फ्रैंक का हर्जाना जबरन लगा दिया था। हैती कैरिबिया में अकेला पड़ गया था। उसके पास हर्जाना चुकाने के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं था। फ्रांस को 1893 तक और अमेरिका को 1947 तक हैती हर्जाना देता रहा। कुल 122 वर्षों के दौरान दोनों देशों को मिलाकर 21 अरब डॉलर चुकाए गए। जब हैती के राष्‍ट्रपति ज्‍यां बेखां अरिस्‍टी ने 2003 में फ्रांस से यह राशि वसूलने की कोशिश की तो तख्‍तापलट कर के उनको हटा दिया गया।

अमेरिका ने 1898 में क्‍यूबा पर कब्‍जा करने के बाद उसे जुर्म का अड्डा बना डाला। अपनी सम्‍प्रभुता के हक में आवाज उठाने वाले क्‍यूबा के लोगों का बलपूर्वक दमन किया गया। अमेरिकी सैन्‍य बलों ने चार बार क्‍यूबा पर हमला किया- 1906-1909, 1912, 1917 और 1933 में। तमाम बर्बरताओं के साक्ष्‍य मौजूद होने के बावजूद अमेरिका ने जनरल फुलहेंसियो बातिस्‍ता (1940-44 और 1952-59) का समर्थन किया। बातिस्‍ता अमेरिकी हितों की रक्षा करता था। अमेरिकी कंपनियों के पास क्‍यूबा के चीनी उद्योग के दो-तिहाई का स्‍वामित्‍व था और तकरीबन समूचे सेवा उद्योग पर उसका कब्‍जा था।

बीसवीं सदी के इतिहास में फिदेल की विरासत और उसका महत्व

क्‍यूबा की 1959 में हुई क्रांति गुलामी और साम्राज्‍यवादी प्रभुत्‍व के इस घृणित इतिहास के खिलाफ खड़ी है। अमेरिका ने क्रांति का जवाब कैसे दिया? 19 अक्‍टूबर 1960 को क्‍यूबा पर आर्थिक बंदिशें लगाकर, जो आज तक जारी है, जिसने हर एक चीज को निशाना बनाया- खाने-पीने की चीजों से लेकर दवा और मेडिकल सेवाओं की आप‍ूर्ति तक क्‍यूबा की पहुंच को बाधित किया और वहां के आयात को रोकने के लिए दूसरे देशों पर भी दबाव बनाया। यह क्‍यूबा की जनता के खिलाफ बदले की कार्रवाई है जिसने हैती के लोगों की तरह ही अपनी सम्‍प्रभुता के हक में आवाज उठायी है। क्‍यूबा के विदेश मंत्री ब्रूनो रोद्रिगेज़ के मुताबिक अप्रैल 2019 से दिसंगर 2020 के बीच सरकार को इस प्रतिबंध के चलते कुल 9.1 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है (प्रतिमाह 436 मिलियन डॉलर)।

उन्‍होंने कहा, ”मौजूदा दरों के हिसाब से बीते छह दशकों के दौरान कुल नुकसान 147.8 अरब डॉलर का बनता है और सोने की कीमत के हिसाब से गणना करें तो यह 1.3 ट्रिलियन डॉलर के पार चला जाएगा।

इन सूचनाओं का पीपॅल्‍स डिस्‍पैच जैसे मीडिया उपक्रमों के बगैर बाहर आना संभव नहीं था जो इस सप्‍ताह अपने तीन साल पूरे कर रहा है। हम उनकी टीम को अपना गर्मजोशी भरा अभिनंदन भेजते हैं और आशा करते हैं कि आप उसके पेज को बुकमार्क कर लेंगे ताकि जनसंघर्षों से जुड़ी वैश्विक खबरों के लिए दिन में कई बार उसे देख सकें।

क्‍यूबा के दसियों हजार लोगों ने अपनी क्रांति की रक्षा करने और अमेरिकी प्रतिबंधों को समाप्‍त करने की मांग करते हुए 17 जुलाई को सड़कों पर प्रदर्शन किया, जिस पर राष्‍ट्रपति दियज़ कनेल ने टिप्‍पणी की, ‘प्रेम, शांति, एकता और एकज़हनी’ वाले क्‍यूबा ने खुद को अभिव्‍यक्‍त किया है। इस सशक्‍त आवाज़ के साथ एकजुटता जताते हुए हमने लेट क्‍यूबा लिव नाम की प्रदर्शनी में भागीदारी का आह्वान किया है। आवेदन की तारीख 24 जुलाई है और 1959 में हुई क्‍यूबा की क्रांति के लिए हुए आंदोलन की बरसी पर यह प्रदर्शनी 26 जुलाई को खुल रही है लेकिन हम उसके बाद भी आवेदन के लिए प्रोत्‍साहित करते हैं। आर्थिक प्रतिबंध समाप्‍त करने के लिए #LetCubaLive हैशटैग अभियान को रफ्तार देने के उद्देश्‍य से हम अंतरराष्‍ट्रीय कलाकारों और कार्यकर्ताओं को आमंत्रित कर रहे हैं।

क्‍यूबा में हुए ताजा हमले और हैती में हत्‍या से कुछ हफ्ते पहले ही अमेरिकी सेना ने गुयाना में ट्रेडविंड्स 2021 और पनामा में पैनामैक्‍स 2021 नाम से दो बड़े सैन्‍याभ्‍यास किए। अमेरिका की अगुवाई में कई योरोपीय सेनाओं ने (फ्रांस, नीदरलैंड्स, यूके, जिनके इस क्षेत्र में उपनिवेश हैं) ने ब्राजील और कनाडा के साथ मिलकर सात कैरिबियाई देशों (बहामास, बेलीज़, बर्मूडा, डोमिनिकन गणराज्‍य, गुयाना, जमैका और त्रिनिदाद टोबैगो) के साथ ट्रेडविंड्स का आयोजन किया। अमेरिका प्रायोजित इस सैन्‍याभ्‍यास से पहले ईरान अपने जहाजों को वेनेजुएला न भेजे, यह मांग अमेरिका ने रखी।

अमेरिका कैरिबियाई देशों सम्‍प्रभुता को अपमानित करते हुए उन्‍हें कब्‍जाने को बहुत बेचैन है। गुयाना के प्रधानमंत्री मार्क फिलिप्‍स की टिप्‍पणी दिलचस्‍प है कि ऐसे अमेरिकी सैन्‍याभ्‍यास ‘कैरिबियाई क्षेत्रीय सुरक्षा तंत्र’ को मजबूत बनाते हैं। अफ्रीका में अमेरिकी और फ्रेंच सैन्‍य बेस की भूमिका पर हमारी हालिया सूचना के मुताबिक अमेरिका अपने हितों के हिसाब से कैरिबियाई देशों को अपने अधीन करता है। कोलंबिया और गुयाना में बढ़ती हुई अमेरिकी सैन्‍य मौजूदगी दरअसल वेनेजुएला पर दबाव बनाने के लिए है।

क्षेत्रीय सम्‍प्रभुता का विचार कैरिबिया के लिए कोई नया नहीं है। इस आधार पर एक मंच बनाने के प्रयास चार बार हो चुके हैं: द वेस्‍ट इंडियन फेडरेशन (1958-62), कैरिबियन फ्री ट्रेड सोसिएशन (1965-73), कैरिबियन कम्‍युनिटी (1973-1989) और कैरिकॉम (1989 से लेकर अब तक)। इसकी शुरुआत साम्राज्‍यवाद विरोधी संघ के रूप में हुई थी जो आज व्‍यापार संघ के रूप में विकसित हो चुका है जिसका काम इस क्षेत्र को वैश्विक व्‍यापार में बेहतर तरीके से स्‍थापित करना है। कैरिबियाई देशों की राजनीति काफी तेजी से अमेरिकी प्रभाव में आती जा रही है। 2010 में अमेरिका ने कैरिबियन बेसिक सिक्‍योरिटी इनिशिएटिव का गठन किया था जिसका एजेंडा वॉशिंगटन तय करता है।

Sir-Archibald-Nedd-Lecture-by-Sir-Shridath-Ramphal

हमारे पुराने मित्र और 1972 से 1975 के बीच गुयाना के विदेश मंत्री रहे श्रीदत रामफल ने 2011 में ग्रेनाडा के महान नेता टी.ए. मैरिशो के शब्‍दों को दुहराया था, ‘वेस्‍ट इंडीज को वेस्‍ट इंडियन होना चाहिए।‘ अपने लेख ‘इज़ द वेस्‍ट इंडीज़ वेस्‍ट इंडियन?’ मेंउन्‍होंने इस बात पर जोर दिया था कि ‘द वेस्‍ट इं‍डीज़’ में अंग्रेजी का पहला अक्षर टी दीर्घाकार है क्‍योंकि वह क्षेत्र की एकता को दर्शाता है। एकता के बगैर हमेशा पुराने साम्राज्‍यवादी दबाव अपना काम करते रहेंगे, जैसा करते आए हैं।’

क्‍यूबा के कवि नैंसी मोरेजो ने 1975 में एक युगांतकारी कविता लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘काली औरतें’। कविता की शुरुआत योरोपीय उ‍पनिवेशवादियों द्वारा मानव तस्‍करी से होती है, फिर इसमें आजादी की जंग का जिक्र आता है और क्‍यूबा की 1959 में हुई शानदार क्रांति पर जाकर कविता समाप्‍त हो जाती है:

पूंजी और सूदखोरों का करने अंत
मैं सिएरा से आया था
खत्‍म करने सारे जनरल और बुर्जुआ महंत।

अब जाकर मुझे मिला है मेरा वजूद
हम हैं मालिक और हम ही हैं मजदूर
न कुछ पराया है न दूर।

ये जमीन हमारी है
आकाश भी, और समंदर
ये जादुई नजारे भी हमारे
और हमारी ही नजर।

हम रोप रहे हैं साम्‍यवाद का पेड़
लोग उसे घेर कर नाच रहे हैं गोल गोल
जंगल अभी से बजाने लगा है ढोल।

काली औरतें, नैंसी मोरेजो, 1975

ये जमीन हमारी है। सम्‍प्रभुता भी हमारी है। हमारी नियति दूसरों का गुलाम बन के रहना नहीं है। मोरेजो की कविता और क्‍यूबा की जनता का संदेश यही है, जो अपने महान सम्‍प्रभु जीवन को आज गढ़ रहे हैं। यही पैगाम हैती के लोगों का भी है जो 1804 के अपने महान इंकलाब को आज आगे बढ़ाना चाहते हैं।


(विजय प्रसाद इतिहासकार, टिप्पणीकार और मार्क्सवादी बौद्धिक हैं। यह लेख ‘समयान्तर’ के अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित है और वहीं से साभार यहाँ छापा गया है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।)


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