सोशल मीडिया मंचों पर अकसर उभर कर दम तोड़ देने वाली समकालीन बहसों के संदर्भ में एक हस्तक्षेप के रूप में जनपथ आज से एक कोना शुरू कर रहा है। पहली बहस हिंदी भाषा पर है, जो पिछले कुछ दिनों से पत्रकार रंगनाथ सिंह और प्रियदर्शन फेसबुक पर अपने-अपने तरीके से चलाये हुए हैं। इन्हीं के संदर्भ में यह पहला अनामंत्रित लेख प्रस्तुत है जिसे एक अनामंत्रित पाठक ने जनपथ को भेजा है। यह लेख इस भाषा के विषय पर और लेखकों के लिए एक आमंत्रण है। संदर्भ एवं पृष्ठभूमि के लिए लेख के बीच-बीच में कुछ सम्बंधित फेसबुक पोस्ट के लिंक दिये गये हैं। समकालीन बहस के किसी भी विषय पर ‘अनामंत्रित’ नाम का यह स्तंभ अनियतकालीन है।
संपादक
हिंदी पत्रकारिता की आज जो हालत है, उसके पीछे एक मुख्य वजह यह रही कि जब देश आजाद हुआ और हिंदी की ‘तथाकथित’ प्रगति, उत्थान और नवोन्मेष के लिए जो संस्थाएं बनायी गयीं, उनके कर्ताधर्ता ज्यादातर अंग्रेजीदां लोग थे जिन्हें जमीनी हालात का पता ही नहीं था। यही वजह रही कि हिंदी को, खासकर ‘सरकारी हिंदी’ को हास्यास्पद बना दिया गया और जनता का उससे मोह जुड़ने से पहले ही टूट गया। आज भी संघ लोक सेवा आयोग के प्रश्नपत्र का हिंदी अनुवाद आप एक नजर देख लें तो हंसते-हंसते पागल हो जाएंगे। आज तकनीक का एक बड़ा रोना रोया जाता है कि हिंदी में तो ये शब्द ही नहीं है जी, हिंदी में विज्ञान-लेखन है ही नहीं जी, तकनीकी-लेखन है ही नहीं जी, फलाना-ढिकाना। इस संदर्भ में दो बातें विचारणीय हैं, इन पर सोचना चाहिए।
पहली, हिंदी में अगर विज्ञान या किसी भी विषय पर लेखन नहीं है तो गलती किसकी है? दूजे, 1990 के दशक तक सरकारी स्कूल भी चल रहे थे और उस पीढ़ी के लोगों ने भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव-विज्ञान इत्यादि की पढ़ाई हिंदी माध्यम से ही की है। हां, 12वीं में मेरठ के प्रकाशनों से हिंदी में छपने वाली भौतिकी की कुमार-मित्तल और ऐसी ही अन्य पाठ्य पुस्तकों के बाद अगर सीधे रेस्निक एंड हॉलीडे ही बच्चों को पकड़नी पड़ी, तो इसका दोषी कौन है? आगे की किताबें हिंदी में नहीं उपलब्ध हो पायीं, इसका गुनहगार कौन है? हम हिंदी में विज्ञान और तकनीक पर लिखने वाले दर्जनों-सैकड़ों लेखक क्यों नहीं पैदा कर सके? इसका मुजरिम कौन है?
तकनीक के संदर्भ में दूसरा जो अजीब सा तर्क है, वह तो चीनी, जापानी, रूसी, जर्मन इत्यादि किसी भी भाषा के सामने मुंह के बल आकर गिर जाता है। चीनी और जापानी तो चित्र-लिपि है, बहुत कठिन है, फिर भी वहां इतना वैज्ञानिक विकास कैसे हुआ, वह भी अंग्रेजी के बिना? यहां यह बात भी ध्यान देने की है कि आज लगभग हरेक डेस्कटॉप या लैपटॉप में हिंदी ‘इन-बिल्ट’ आ रही है, दो की-बोर्ड होने का लफड़ा भी लगभग सुलझ गया है क्योंकि रेमिंगटन टंकण अब बीते जमाने की बात है। लगभग सारा काम फोनेटिक या इनस्क्रिप्ट में ही हो रहा है, हालांकि यहां एक नयी उलझन यह हुई है कि आज के बच्चे गूगल टाइपिस्ट हो गए हैं। वे रोमन में टाइप करते हैं और गूगल उसको देवनागरी यानी हिंदी में परोस देता है। यही वजह है कि हिंदी के व्याकरण, संरचना और संघटन पर प्रलय आ गयी है। ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह सेल्फ-करेक्ट ऑप्शन भी मशीन में इन-बिल्ट है, तो वे गलत को ही सही मान रहे हैं क्योंकि मशीन ने उनको वही सही बताया है।
एक बात हिंदी वालों के आत्मसम्मान और आत्मदया से भी जुड़ी हुई है। न जाने बाज़ार में यह अफवाह कैसे उड़ी कि हिंदी तो बहुत कठिन है। कोई ठीकठाक, सामान्य हिंदी बोलने वाला/वाली के दिखते ही लोगों की प्रतिक्रिया होती है- ‘वाओ, क्या हिंदी बोलते हैं आप… इन फैक्ट मैं भी न आपके जैसा ही बोलना चाहता/ती हूं, बट यू नो न’…! अब इस एक वाक्य से दो-तीन शिकार होते हैं। जो अंग्रेजीदां यह बोल रहा/रही है, उसका प्राप्य ये है कि लोग उसको अंग्रेजीदां समझें। इस एक वाक्य से सामान्य हिंदी बोलने वाला व्यक्ति बेमतलब दबाव में आ जाता है कि वह बेहद क्लिष्ट हिंदी बोल रहा है। इस आत्म-प्रवंचना में धीरे-धीरे वह भी अपनी हिंदी को भ्रष्ट कर लेता है और इस तरह बाज़ार से हिंदी लिखने-पढ़ने वाला एक और व्यक्ति कम हो जाता है।
आखिर ये कैसे और कब तय हो गया कि ‘आयन’ या ‘आयरन ओर’ तो हल्का है, लेकिन ‘लौह-अयस्क’ भारी है? यह किसने तय कर दिया कि ‘अवेलेबिलिटी’ तो आसान है लेकिन ‘उपलब्धता’ कठिन; ‘मार्केट’ आसान है ‘बाज़ार’ कठिन; इस तरह के सैकड़ों सवाल आपके मन में आ सकते हैं जब आप हिंदी के अखबार-पत्रिकाएं देखें। यहां तक कि बच्चों की किताबें देखें (आजकल तो हिंदी शब्दों के बगल में उनके अंग्रेजी अर्थ या पर्याय दिए होते हैं) तो पता चलेगा कि हमारे-आपके देखते-देखते ‘हिंदी की सरलता’ के नाम पर ‘हिंदी के साथ व्यभिचार’ हुआ है, बलात्कार हुआ है।
हिंदी-जगत की मूर्खताएं भी असीम हैं। सबसे बड़े दोषी अखबारों, खबरिया चैनलों के ‘न्यूजरूम’ में बैठे वे जड़बुद्धि हैं जिन्होंने अपनी अक्षमता, अपनी मूर्खता और अपनी अकर्मण्यता को पूरी हिंदी पर, पूरे देश पर थोप दिया। हिंदी पत्रकारिता में जब से जीवन के “थके-हारे” लोगों का प्रवेश हुआ, तो उन्होंने अपने सारे गुस्से, अपनी सारी कुंठा का बदला हिंदी से निकाला। “थके-हारे” से आशय उनसे है जो यूपीएससी नहीं कर सके; जो कहीं कोई सरकारी नौकरी नहीं पा सके; जिन्हें जेएनयू-डीयू या ऐसी ही किसी शानदान यूनिवर्सिटी में पढ़ने के बाद भी बढ़िया नौकरी नहीं मिली। ऐसे ही थके-हारे 30 पार के अधेड़ तो हिंदी पत्रकारिता को नवाजने आए। यह सामान्यीकृत वाक्य नहीं है, लेकिन प्रतिशत ऐसे ही लोगों का अधिक था। चूंकि हिंदी उन्हें नहीं आती थी, तो उन्होंने फतवा दिया कि ‘लोग यह नहीं समझेंगे।’
आप लखनऊ, पटना, इंदौर, प्रयागराज, कानपुर, जयपुर, हैदराबाद इत्यादि किसी जगह चले जाइए, आप देख पाएंगे कि आज वेबसाइट्स से लेकर अखबार और चैनल तक जो हिंदी परोस रहे हैं, कम से कम वह हिंदी तो कोई इन जगहों की सड़कों पर नहीं बोलता, न ही वह हिंदी की क्लिष्टता की शिकायत करता है। हां, हिंग्लिश (हिंदी और अंग्रेजी की खिचड़ी) के प्रयोग से वह भ्रमित जरूर हो रहा है।
जिसने भी यह कहा था कि, ‘जिस तरह तू बोलता है, उस तरह लिख’- इस कथन को बिना समझे सतही रूप से हिंदी पर लागू करने के दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं। इस उद्धरण से प्रेरित होकर अगर कोई बिहारी जस का तस लिखने लगे, तो ‘उसका घोरा सरक पड़ भरक जाएगा’; कोई पूर्वांचली लिखेगा तो ‘कालेज जाने के लिए वह रूम लाक कर देगा और पैट पहन लेगा’; कोई हरियाणवी लिखेगा तो ‘बाजार जाने से पहले रूम लोक कर देगा’; या फिर कश्मीरी लिखेगा तो ‘कशमीर में एक संदिगध पकड़ा गया जो हतया के एक मामले में वानछित था’। ये कुछ उदाहरण हैं, जो सैकड़ों की संख्या में होंगे बल्कि हैं।
किसी भी भाषा के साथ यह तो बिल्कुल स्वत: सिद्ध तथ्य है कि लिखंत और कहंत अलग-अलग होता है। यही वजह थी कि लिखित खड़ी बोली या हिंदी का एक मानक स्वरूप बनाया गया था। इसे पत्रकारिता में दुर्घटनावश आए “थके-हारे लोगों” ने वैसे ही भुला दिया जैसे इस समाज ने भुला दिया कि तकनीक और विज्ञान दो अलग चीजें हैं। तकनीक आधुनिक हो जाने से विज्ञान नहीं बदल जाता बल्कि तकनीक व्यावहारिक सुविधा के लिए होती है। न्यूजरूम ने तकनीकी सुविधा को साध्य विज्ञान बनाया तो उनके आलस्य और मूर्खता का पूरा साथ दिया हिंदी अकादमिक जगह के हुड़कहुल्लुओं ने, जो अपनी प्राचीन कुंठा में आधुनिक होने को छटपटा रहे थे। अनुनासिक, हलंत, विसर्ग, आदि की तकरीबन हत्या कर देने के बाद आज जो अनुस्वार को हटा देने पर आमादा (जबकि आज तो की-बोर्ड में अनुनासिक चिह्न भी उपलब्ध है) आवाराओं की टोली है, उसे उतना बल नहीं मिलता अगर आज से बीस साल पहले तकनीक के दबाव में स्वीकार्य हुए बदलावों पर हिन्दी अकादमिक जगत की ओर से आवाज़ उठायी गयी होती।
आज जो लोग बोलते हैं, वही लिखने की छूट अगर दे दी जाए तो अधिकांश अखबार हिंदी का ह्वाट्सएप संस्करण बन जाएंगे! निब्बा-निब्बी जैसे शब्द तो आएंगे ही, लेकिन व्याकरणविहीन भाषा कैसी होगी, इस पर सोचिए। ‘बहुतों’, ‘अनेकों’, ‘कईयों’ को अगर आप सुधार कर बहुत, अनेक और कई कर देंगे तो आपको ही डांट पड़ सकती है। व्याकरण चूंकि विद्यालयों से गायब है तो आज के हिंदी पत्रकार (खासकर डिजिटल वाले) सम्बोधन-चिह्न के भीतर दिए गए किसी उद्धरण या कथन को इस तरह लिखते हैं जैसे वह डायरेक्ट स्पीच हो। उदाहरण के लिए इस वाक्य पर गौर फरमाएं-
“पीएम ने सभी दलों को साथ लेकर चलने की बात कही। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर भारत बनाना ही उनकी प्राथमिकता है। कहा कि विपक्ष घटिया राजनीतिक कर रहा है। मैं भारत को वैसा बनाना चाहता हूं जब वह दूसरे देशों की आंख में आंख डालकर बात करें।”
उपर्युक्त वाक्य में मैं चाहकर भी उतनी गलतियां नहीं कर सका हूं जितनी आजकल हिंदी पत्रकारिता में हो रही है। फिर भी, आप एक नज़र डालिए और देखिए कि उस वाक्य में कितनी गलतियां हैं। न्यूजरूम के अनपढ़ों ने हिंदी के साथ कितने अत्याचार किए हैं, इसकी चर्चा तो ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ की तरह चलती ही रहेगी।
संदर्भ के लिए कुछ और पोस्ट:
(इस बहस के लिए लेख आमंत्रित हैं। भेजने का पता: junputh@gmail.com)