सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी. पर जितेन्द्र कुमार के लिखे आलेख पर बहस अब तक फेसबुक समेत तमाम मंचों पर जारी है। यह लेख अब भी जितेन्द्र कुमार के ब्लॉग यहां से देखो और भड़ास4मीडिया पर बहस के लिए लगा हुआ है। बहरहाल, जितेन्द्र कुमार के निजी अनुभवों से आगे बढ़ते हुए सामाजिक और दार्शनिक दायरे में एस.पी. की पत्रकारिता की पड़ताल करता ‘अहा! जि़ंदगी’ के संपादक आलोक श्रीवास्तव का एक लेख हम नीचे छाप रहे हैं जिसे वरिष्ठ पत्रकार पीयूष पंत ने हमें उपलब्ध कराया है। यह पीयूष पंत के संपादन में निकलने वाली लघुपत्रिका नामाबर के अप्रैल 2008 अंक में छपा था। अब तक मुख्यधारा के मीडिया में एस.पी. के अवदान पर जो भी आलोचना-प्रत्यालोचना आई है, उसे व्यापक संदर्भ में समझने के लिए आलोक जी का यह विस्तृत लेख दृष्टि प्रदान करने की क्षमता रखता है। (मॉडरेटर)
पिछले दो दशकों में हिंदी पत्रकारिता की दुनिया काफी बदल गई है। नवऔपनिवेशिक साम्राज्यवाद इस बदलाव के मूल में है। अख़बार आज उत्पादों का ऐसा ‘मेनू’ हैं, जो तक़रीबन हर वर्ग और हर इलाक़े में पहुंचकर लोगों में इन उत्पादों का बाज़ार बनाने में लगे हैं और खुद भारी खपत वाले एक उत्पाद में बदल गए हैं।
पिछले दो दशकों की हिंदी पत्रकारिता को भीतर से जानने के लिहाज़ से एक नकारात्मक पर ज़रूरी किताब हाल ही में आई है- शिला पर आख़िरी अभिलेख (संपादक – निर्मलेंदु, प्रकाशक- अर्ध्य प्रकाशन, पो- रहड़ा, सारदापल्ली, पूर्व, 24 परगना, उत्तर, प. बंगाल)।
इस किताब में इन दो दशकों की हिंदी पत्रकारिता के केंद्र में रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों/सहकर्मियों ने उनके बारे में प्रायः प्रशस्तिपूर्ण ढंग से लिखा है। ये लेख सुरेंद्र प्रताप के जीवन और पत्रकारिता संबंधी उनके कार्यों का स्तुतिपरक विवेचन करते हैं। सुरेंद्र प्रताप के व्यक्तित्व के अनेक आयामों को भी ये लेख खोलते हैं।
व्यक्ति विशेष पर अभिनंदन-ग्रंथों की परंपरा हिंदी में पुरानी है, पर यह पुस्तक उस शख़्स का अभिनंदन उतना नहीं है, जितनी कि यह उसके साथ होने के निजी अनुभवों और उसे खोने की पीड़ा से जुड़ी है। साथ ही बड़े पदों पर रहे अपने मित्र की महानता और श्रेष्ठता के मिथ्या आभामंडल से मंडित करने की दयनीय चेष्टाएं अधिकांश लेखों में नज़र आती हैं। पर हमारे लिए इस पुस्तक की ये सारी विशेषताएं उतनी महत्व की नहीं हैं। महत्वपूर्ण हैं ये दो दशक, जो हिंदी पत्रकारिता में सुरेंद्र प्रताप के नायकत्व के रहे हैं- इन्हीं दो दशकों में हिंदी पत्रकारिता में बुनियादी बदलाव हुए। इन सबके बीच सुरेंद्र प्रताप की भूमिका क्या रही? और भावुक होकर उन्हें याद करने वाले उनके साथियों में क्या इस बात की चेतना भी है कि जिस हिंदी पत्रकारिता के एकमात्र नायक को लेकर वे विभोर हैं, उसे हिंदी पत्रकारिता का इतिहास किस नज़रिए से देखेगा?
वस्तुतः हमारा युग सफलता से चुंधियाए मध्यमवर्गीयों का युग है, जिसमें सफलता ही एकमात्र मूल्य है। शिखर ही पूज्य है। (तुम हमेशा शिखरों की तलाश करते रहे – और पाते भी रहे उन्हें, लेकिन मज़े की बात यह है कि शिखर बने-बनाए नहीं थे…- विश्वनाथ सचदेव) उन आंखों को यह नहीं दिखता कि एक किशोर, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के पिछड़े अंचल से कुछ सपने और भरपूर आत्मविश्वास लिए कलकत्ता, बंबई और दिल्ली में अपने जीवन के उद्देश्य तलाशता पहुंचा था, जो कभी कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड (उनके मित्र गणेश मंत्री के मुताबिक) रखे रहता था, किताबें जिसका व्यसन थीं, वह कैसे उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है, जिसे बदलने के विचार उसके आरंभिक युवा काल की प्रेरणा थे। उसका बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। सत्ता के गलियारों में ऊंचे संपर्कों वाली पत्रकारिता के बीच उसे किसी परिवर्तन की जरूरत ही महसूस नहीं होती। यहां तक कि बड़ी नौकरियों के एवज में वह पूंजीवादी पत्रकारिता के संपूर्ण ढांचे की वकालत में असावधान कुतर्कों तक का इस्तेमाल करने लगता है। वही व्यवस्था एक दिन उसे निर्ममता से बाहर भी कर देती है। वह उसी व्यवस्था से गुहार भी करता है (सुरेंद्र प्रताप ने ‘नवभारत टाइम्स’ से अपने हटाए जाने के मुद्दे को इस बात से जोड़ा कि प्रबंधन चाहता है कि उनका हिंदी अख़बार उसी समूह के अंग्रेज़ी अख़बार के अनुवाद पर आधारित हो। इस मुद्दे को राष्ट्रभाषा से जोड़कर एक संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दे तक के रूप में उन्होंने संसद में भी उठवाने की कोशिश की, जबकि हक़ीकत यह थी कि यह हिंदी अख़बार शुरू से ही उस समूह के अंगेज़ी अख़बार का परजीवी था और आज भी है) पर व्यवस्था विगत में निभाई गई उसकी ‘पेशे के प्रति प्रतिबद्धता’ और ‘निष्ठा’ का कोई प्रतिसाद नहीं देती। यदि रास्ते में अचानक ‘आज तक’ न आ जाता तो लगभग एक तरह की गुमनामी ही उनका भविष्य बन चुकी थी।
व्यक्तित्व का यह कायांतरण यूं ही ऊपर-ऊपर से नहीं घट जाता। वह इंसान को उसकी जड़ों से, उसकी प्रेरणाओं से, उसके भविष्य से, उसके आंतरिक स्वत्व से काट देता है, और नई ज़मीन भी उसे नहीं मिलती। वह एक सांस्कृतिक बियाबान में रहने को अभिशप्त हो जाता है (एक ही बात कचोटती कि किसने उसे इतना अशांत बना दिया था। किस वजह से वह इतना उदास और मायूस बन गया- रूमा सेनगुप्ता)।
सुरेंद्र प्रताप की सफलता के चारण उस शख़्स के उस दर्द को कभी नहीं समझ पाएंगे, जो उसके अपने ही व्यक्त्त्वि से विलगाव के नतीजे में उपजा था (नब्बे के दशक का एस.पी. असली एस.पी. नहीं था, वह मिस्टर सुरेंद्र प्रताप सिंह था – कार्पोरेट जगत का क़ैदी पुरजा… – उदयन शर्मा)।
इस सदी के आख़िरी दो दशक भारत भर में पत्रकारिता के एक नए दौर के साल हैं। अख़बारों की सबसे विशाल खपत के कारण हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह नया दौर हिंदी पत्रकारिता पर गहरा असर डालने वाला साबित हुआ। इस दौर की हिंदी पत्रकारिता ने तथाकथित ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता’ से उतरकर ‘गांव की प्रधानी की शपथ के दौरान पुत्र रत्न’ (मुंबई के लोकप्रिय दैनिक ‘यशोभूमि’ में जुलाई, 2000 में छपी एक ख़बर) के समाचार वाली स्थानीयता से लेकर ‘सौंदर्य उत्पादों व ग्लोबलाइजेशन की अंतर्राष्ट्रीयता तक अपना दायरा फैला लिया। यह एक नए तरह की पत्रकारिता थी। इस पत्रकारिता के नक़्शे में भविष्य नहीं, अतीत नहीं सिर्फ़ एक वर्तमान था, उसकी सनसनियां थीं, उसके राजनीतिक गलियारे थे, निहित स्वार्थों की सत्ता और समीकरण थे। वहां विचार नहीं तथ्य थे – वे भी चुनिंदा – ऐसे तथ्य जिनसे विचार न पैदा हो सकें। इस पत्रकारिता के दो मुंह थे – एक मुंह समाज-सेवा और मिशन का मिथ बनाकर अपनी विश्वसनीयता का भरोसा दिलाता और सरकारी मदद हड़पता और दूसरा मुंह किसी भी क़िस्म की पूंजीवादी-व्यावसायिक ईमानदारी तक का पालन न करने वाला।
सुरेंद्र प्रताप को इसी पत्रकारिता ने नायक के रूप में चुना था। तभी वे कहते थे, ‘इतनी सुखद स्थिति हिंदी की कभी रही नहीं’, बेशक यह स्थिति सुखद थी, क्योंकि हिंदी अख़बार मालिकों का एक पूरा वर्ग उभर आया था, जो प्रसार-संख्या में हुए विस्फोट के कारण रातों-रात करोड़ों में खेलने लगा था, जबकि उन्हीं अख़बारों में श्रम-नियोजन की स्थिति यह थी और आज भी है कि अधिकांश पत्रकार 2-3 हजार रुपयों के एवज में 10 से 12 घंटे तक रोज़ाना काम करते हैं। बेशक अख़बारों के पृष्ठ बढ़े, रंगीनी बढ़ी, किंतु अख़बारों का संपूर्ण प्रभाव कस्बाई और ग्रामीण पाठक-वर्ग में उदारीकरण के साथ आए उपभोक्तावाद के प्रसार और सत्ता आधारित राजनीति में दिलचस्पी के अलावा कुछ भी नहीं था। सुरेंद्र प्रताप काफी आक्रोश की भाषा में कहते थे, ‘शिक्षक की प्रतिबद्धता शिक्षण के प्रति होगी या एक वकील की प्रतिबद्धता अपने वकालत के पेशे के प्रति होगी। वैसे ही एक पत्रकार की प्रतिबद्धता पत्रकारिता के प्रति होनी चाहिए।’ (यानी अख़बार के मालिकों ने अपने पूंजीगत लाभों या इतर निहित स्वार्थों के अनुसार पेशे के जो मानदंड तय किए हैं, जो स्वरूप और मूल्य निर्धारित किए हैं, जो प्राथमिकताएं, जो दिशा-निर्देश और सेंसर की जो स्वचालित प्रणालियां पत्रकारों को दी हैं, उनके प्रति प्रतिबद्ध होना- लेखक)। ‘लेकिन कहें कि नहीं साहब, इसे छोड़-छाड़कर आप हमारे अमुक कॉज़ के लिए प्रतिबद्ध रहिए। अमुक कॉज़ के लिए आप प्रतिबद्ध हैं तो उस संस्था से कहिए, या उस कॉज़ में विश्वास करने वाले लोगों से कहिए, उस तरह की पत्रिका निकालें ओर चलाएं, उसकी इकोनॉमिक्स क्या हो, उसके व्यापार का तंत्र क्या हो, उसे वह समझें व चलाएं। वह उनकी अपनी परेशानी है…. लेकिन आप कोशिश करें कि नहीं हमारा अख़बार तो सेठ निकाले, सारे ख़र्चे सेठ बर्दाश्त करे और उसमें बैठकर क्रांति मैं करूं तो मैं समझता हूं कि यह अनुचित मांग है।’
तो यह परिणति थी, खुद को कभी समाज-परिवर्तन की विश्व-दृष्टि से जुड़ा समझने वाले सुरेंद्र प्रताप की (वह किसी मिशन या काम के लिए समर्पित पत्रकार नहीं था। उसका समर्पण सिर्फ़ पत्रकारिता के लिए था- उदयन शर्मा) ये उनके विचार नहीं उस तंत्र के विचार थे, जो मोटी तंख़्वाहों, शोहरत और पत्रकारीय-सत्ता के साथ उनके मस्तिष्क में प्रत्यारोपित हो चुके थे। वे यह तथ्य भी भूल रहे थे कि जो सेठ अख़बार निकालते हैं और ख़र्च बर्दाश्त करते हैं- उनके संस्थानों का अगले दिन भट्ठा बैठ जाएगा, यदि जनता के करों से अर्जित संपदा से उन्हें लोकतंत्र के चौथे खंभे के नाम पर मिलने वाली अरबों रुपए की ढांचागत सुविधाएं तथा तमाम तरह के करों में मिलने वाली भारी छूट हटा ली जाए।
वे यह भी भूल रहे थे कि हर व्यवस्था अपने अस्तित्व के आधारों के रूप में हर ढांचेगत संस्था का इस्तेमाल करती है। शिक्षा-व्यवस्था से लेकर न्याय-व्यवस्था तक सबको वह अपने अनुरूप ढाल लेती है। ठीक वैसे ही जैसे भारत की दलाल पूंजीवादी व्यवस्था ने भारत की शिक्षण-व्यवस्था, प्रशासन, न्याय सब कुछ को अपनी चाकरी में ख़रीद रखा है। ऐसे हालात में पेशे के प्रति अप्रश्न प्रतिबद्धता के तर्क का एकमात्र अर्थ इस दलाल पूंजीवादी व्यवस्था के दलाल-कम दास बन जाने से ज़्यादा कुछ नहीं है। पत्रकारिता के संदर्भ में तो वह और भी ख़तरनाक और समाज विरोधी है। सुरेंद्र प्रताप मसीहाई मुद्रा में इसी महापथ पर ‘महाजनो येन गतः स पंथाः’ कह रहे थे।
वे अपनी भाषा के उन हज़ारीप्रसाद द्विवेदी को भी भूल रहे थे, जिन्होंने कहा था, ‘शास्त्र से भी मत डरो, गुरु से भी नहीं, लोक से भी नहीं।’ वे उस भारतीय परंपरा को भी भूल रहे थे, जो नचिकेता से लेकर सत्यकाम तक निरंतर इस देश के अवाम् में सत्य के अनुसंधान और उसके लिए कीमत चुकाने के साहस में मूल्य बनकर व्यक्त होती रही है। पेशे के प्रति निष्ठा वाले द्रोण भारतीय जन-मानस के नायक नहीं हैं – नायक तो एकलव्य ही है।
यह सुरेंद्र प्रताप के जीवन की विडंबना ही थी कि एक ओर वे हिंदी पत्रकारिता के शिल्प को सुधारने की कोशिश में थे, उसकी भाषा मांज रहे थे- पर बाज़ार में बेहतर उत्पाद पहुंचाने से ज़्यादा दृष्टि और समझ उनके पास नहीं थी। और उसके अभाव को भी वे महसूस नहीं करते थे। बल्कि यह दृष्टिहीनता उन्हें एक ऐसा गुण लगती थी, जिसे वे प्रोफेशनलिज़्म के रूप में स्थापित और प्रचारित करने की कोशिश में रहे। वे काफी मंदमति अड़ियलपने के साथ पत्रकारिता को साहित्य और साहित्यकारों से बचाए रखने में विश्वास करते थे। उनका यह विश्वास विद्यानिवास मिश्र (हिंदी के प्राध्यापक तथा प्राचीन संस्कृति काव्य व भक्तिकाव्य के अध्येता, जिन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में स्वयं को अचानक एक दिन ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक की कुर्सी पर बैठा देखा) जैसे संपादक श्रेष्ठों के संदर्भ में उचित भी हो सकता है। पर रघुवीर सहाय, हेमिंग्वे, मार्खेज जैसे साहित्यकारों की पत्रकारिता का क्या होगा, जिन्होंने भाषा और संवेदना, तथ्य और विश्लेषण, सामयिकता और इतिहास-बोध की संश्लिष्टता से नए रास्ते खोले। पत्रकारिता के संदर्भ में बातें करते वक़्त उन्होंने कभी भी मीडियॉकर साहित्यकार-पत्रकारों व समाजचेता साहित्यकार-पत्रकारों में भेद करने की ज़रूरत नहीं समझी।
दिनमान और रविवार (जिसका संपादन सुरेंद्र प्रताप ने किया और जहां से उनकी ख्याति-यात्रा शुरू हुई) दो युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय के जिस बिंदु पर दिनमान की गंभीर पत्रकारिता ख़त्म हो रही थी, उसी समय के मोड़ से रविवार के ‘सच’, ‘तथ्य’, ‘अत्याचार’ आदि उत्पादन का कच्चा माल मात्र थे। भागलपुर के क़ैदियों की आंखें फूटने पर वह पत्रकारिता चीखती थी, पर व्यवस्था के संपूर्ण स्वरूप और ढांचे को लेकर वह सहमत थी। (फिल्मों में अमिताभ बच्चन और पत्रकारिता में सुरेंद्र प्रताप सिंह का उदय एक समान है – दोनों ने जीवन में हिंसक प्रवृत्ति को बेचा – विजय कुमार) माना औद्योगिक समूहों के पत्रों से ‘क्रांति नहीं की जा सकती। दिनमान ने भी नहीं की थी। क्रांति पत्रों से नहीं होती। क्रांति, इतिहास की परिघटना है, जिसका संबंध जनता से है। पर बुर्जुआज़ी के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल कर जन-चेतना के विस्तार का शिल्प विकसित करने का एक विकल्प हमेशा रहता है। दिनमान ने भी यही किया था और रविवार यही नहीं कर पाया। फिर भी सुरेंद्र प्रताप नायक थे, क्योंकि वे हिंदी के बौनों के बीच खड़े थे।
बेशक सुरेंद्र प्रताप में एक मामूली स्तर की प्रबुद्धता थी। हिंदी पत्रकारिता के स्तर और प्रामाणिकता को लेकर बुनियादी किस्म की चिंता भी। उसे एक तरह का स्तर प्रदान करने की क्षमता भी उनमें थी। पर वे यह भूल रहे थे कि भारत में अख़बार का सामयिक मतलब पूंजीवादी घराने की निजी संपत्ति है- विचारों या निष्पक्षता का कोई मंच नहीं, यह सदी के उत्तरार्द्ध की पत्रकारिता थी। जन-विरोधी राजसत्ता और यदि जनता ही राष्ट्र है, तो राष्ट्रद्रोही शासक-वर्ग के मूल्य, जीवन-शैली, एजेंडे आदि अंग्रेजी़ के तथाकथित ‘राष्ट्रीय अख़बारों’ द्वारा उत्पादित होते थे और हज़ारों भाषाई अख़बारों की करोड़ों प्रतियों में पुनरुत्पादित होकर रोज़ाना निम्न मध्यमवर्गीय भारत के पास जीवन-शैली के प्रति ललक और कुंठा बनकर पहुंचते थे। इस पत्रकारिता के ग्लोबल नायक प्रीतिश नंदी, अरुण शौरी एवम् एम. जे. अकबर थे – सत्ता और उसके समीकरणों के अंश और सजग कैरियरिस्ट – और देसी नायक के हिंदी विंग में थे अकेले सुरेंद्र प्रताप – इस भ्रम के साथ कि हिंदी पत्रकारिता में वे कुछ महत्वपूर्ण जोड़ रहे हैं। उन्हें शायद इस बात का विश्लेषण करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी कि अख़बारों की सत्ता-संरचना और हिंदुस्तानी अवाम के बीच इन पत्रों की भूमिका और उसके सामाजिक निहितार्थ और नतीजे क्या हैं। वे एक मासूम खुशफ़हमी में थे।
यह उनके जीवन की विडबना ही थी कि इस वैचारिक पतन के बावजूद जीवन में शायद बेईमान नहीं हो पाए। वे मोटी चमड़ी के उस मस्त पत्रकार में नहीं बदल पाए, जो आठवें-नौवें दशक की इस पत्रकारिता ने (जिसे सुरेंद्र प्रताप ‘हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग’ कहते थे) पैदा किए हैं, जो न जाने किन-किन स्रोतों से किस-किस एवज में करोड़ों कमा लेता है, फार्म हाउस ख़रीदता है, प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-उद्योगपतियों-ठेकेदारों के चैनलों के बीच जनसंपर्क अधिकारी का काम करता है। यह वैचारिक दलाल बाद में सांसद बन जाता है या राज्यसभा सदस्य। वे अपने समकक्ष-समवयसी दलाल पत्रकारों के बीच सिर्फ़ ऊंची तनख़्वाह वाले सफल पत्रकार भर थे। यह एक टूटे हुए द्वंद्वग्रस्त व्यक्तित्व का मॉडल था (1997 के मार्च में ऑफिस के काम से मैं दिल्ली गया था। उन दिनों एस. पी. ‘आज तक’ में था। फोन पर एस. पी. से बातचीत होते ही उसने तुरंत कहा कि बिजित दा मैं आपसे आज ही मिलना चाहता हूं। मैं उससे मिला। उसने कहा, ‘कुछ अच्छा नहीं लग रहा है यहां बिजित दा…’ उसके चेहरे पर परेशानी झलक रही थी…- बिजित बसु) – जो दुश्मनों के कबीले में रह रहा था और उनके बीच बने रहने के लिए ही जिसकी सारी जद्दोजहद थी और जिसे किसी-किसी रात में अपने कबीले के लोग हाथ उठाकर पुकारते हुए दिखते थे, पर उसके पास न लौटने का रास्ता था, न चलने की ताक़त।
उनकी मृत्यु बेशक ट्रैजिक थी, पर उतनी नहीं जितना त्रासद उनका जीवन रहा। उनकी सफलता से विभोर लोग कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस सफलता की कीमत क्या थी? ऐसी सफलताएं हमेशा ज़मीर के एवज में मिलती हैं। और यह त्रासदी सिर्फ़ एस. पी. सिंह के जीवन की नहीं है। एक पूरी पीढ़ी की है, जो अपना ज़मीर बेचकर आज जीवन के उजाड़ में खड़ी है – भविष्यहीन! आज भारत में मध्यवर्ग का निहितार्थ यही है। ज़्यादातर लोगों ने संवेदनाओं से, सवालों से मुक्ति पा ली है। उनके लिए मुझे रघुवीर सहाय द्वारा अनूदित हंगारी कवि फेंरेंत्स यूहास की लंबी कविता का यह टुकड़ा याद आता है-
लड़का जो बन गया हिरन रहस्य द्वार पर रोता है।
छटपटा-छटपटा
अगली टांगे उठा डोलता…
कंठ में हिरन की बोली गुंगवा कर रह जाती है।
बेटे के एक बूंद आंसू टपकता है
वह तट की मिट्टी को बार-बार खूंदता
कि पानी का राक्षस विलुप्त हो,
भंवर उसे लील ले अंधेरे में
चंचल मछलियां जहां लाल पंख फरकाती
हीरों के बुज्जों-सी तिरती हैं
अंत में तरंगें अंधेरे में खो गईं
किंतु चांदनी में खड़ा हिरन रह जाता है।
अब आप इस हिरन को सोने में मढ़ा कहें या कुछ भी कहें!
(इस लेख में प्रयुक्त सुरेंद्र प्रताप सिंह के मित्रों/परिचितों के उद्धरण पुस्तक ‘शिला पर आख़िरी अभिलेख’ से तथा सुरेंद्र प्रताप सिंह के उद्धरण ‘जनमत’ के 29 फरवरी, 1996 के प्रत्रकारिता विशेषांक से लिए गए हैं।)
दरअसल, सुरेंद्र प्रताप सिंह का पहला क्लेम टु फेम यह था कि वे सफल दलाल थे-जिसने दलालों की एक फौज खड़ी कर दी जो आज हरेक चैनल का रहनुमा बना बैठा है। और उनका आखिरी क्लेम टु फेम है-उनका आरक्षण को समर्थन देना-जिस कारण दिलीप मंडल जैसे लोग उन पर लहालोट हैं। हालांकि मंडल ये भी जानते होंगे कि सिर्फ सुरेंद्र प्रताप ही नहीं-बल्कि भारत के तमाम राजपूत भी उस समय आरक्षण के समर्थक हो गए थे! लेकिन ये भी बात सच है कि भारत का हरेक आरक्षण समर्थक पूंजीवादी हो जाता है और उसे आरक्षण एकमात्र उपाय लगता है। यहीं सुरेंद्र प्रताप की सीमा थी। वे व्यवस्था के वैसे औजार बन गए जिसने हिंदी पत्रकारिता को दशकों के लिए बौना और निकम्मा बना दिया। यह इतनी बड़ी क्षति है जिसका आकलन शायद इतिहास ही कर पाए-अभी तो उसकी रूपरेखा ही सामने आ रही है।
उपर वाले बेनामी ने जिंतेंद्र कुमारों, अविनाश दासों और आलोक श्रीवास्तवों के "विचारों" और "आकलन" की असली ग्रंथी खोल कर रख दिया है. सुरेंद्र प्रताप सिंह ने "जिनका" नुकसान किया, उनकी सतता में "अवैध" घुसपैठ की शुरुआत की, उनकी लंगोटी उतार डाली, वे उनका "मूलयांकन" ऐसे ही करेंगे जैसे कर रहे हैं. कुंठा और हताशा यहां तक देखिये कि सांमती सवर्ण मन की वह टेढ़ी पूंछ अब भी एसपी-डीएसपी और मंडल-कमंडल का जुमला गढ़ने में लगी है जो शायद कभी भी सीधी नहीं होगी. ये लोग जब कृपाशाली होने का भरम रचने में नाकाम हुए तो उतर आए हैं अपनी असली औकात पर. इन्हें तो शुभकामना देनी चाहिए.
मजा लीजीए कि जितेंद्र कुमार आलोक श्रीवास्तव अभिषेक श्रीवास्तव और अविनाश दास सभी कोई साम्राज्यवादी नहीं, शायद एक समाजवादी या कम्युनिस्ट अखबार "दैनिक भास्कर" की सेवा बजा चुके हैं या बजा रहे हैं.