कोरोना की दूसरी लहर ने ईवेंटजीवी सरकार को ‘क्वारंटीन’ कर रखा है। दूसरी लहर ईवेंट आयोजित नहीं करने दे रही। पहली लहर के दौरान यदा-कदा ईवेंट आयोजित हो जाते थे। कोरोना की पहली लहर के दौरान ईवेंट का “टास्क” दिया जाता रहा था। ताली-थाली बजा लो। बत्ती बुझा लो। सरकार के नुमाइंदे और पालक, ताली-थाली घंटा-घड़ियाल से निकलने वाली ध्वनि से कोरोना को मार भगाने का दावा कर रहे थे। इस दावे को अवैज्ञानिक बताया गया- ‘साइंटिफिक टेम्परामेंट’ को पाखंड की तिजोरी में गिरवी रख देने वालों से और क्या उम्मीद की जा सकती है।
भाजपा के पास साइंटिफिक टेम्परामेंट नहीं है, ऐसा नहीं है। भाजपा के पास भी साइंटिफिक टेम्परामेंट है। उसका प्रदर्शन वो हमेशा नहीं करती। डूबते को जब तिनके का सहारा चाहिए होता है, तब करती है। प्रस्तुत है, भाजपा के साइंटिफिक टेम्परामेंट का एक उदाहरण:
विपक्ष का प्रश्न: ठंड में ट्रेन लेट होती है, तो कोहरा कारण होता है। गर्मी में ट्रेन लेट होने का क्या कारण है?
भाजपा के प्रवक्ता का साइंटिफिक जवाब: गर्मी के कारण धातुओं में फैलाव होता है। फैलाव गोपनीय होता है, जिसे विपक्ष की आँख नहीं देख सकती। रेल की पटरी लौह धातु की बनी होती है। लौह धातु भी गर्मी के कारण फैलता है जिससे रेल मार्ग से बनारस से नई दिल्ली के बीच की न्यूनतम दूरी 755 किलोमीटर में भी फैलाव होता है। लौह धातु की रेल पटरी में फैलाव के कारण बनारस से दिल्ली के बीच की न्यूनतम दूरी हजार किलोमीटर से अधिक हो जाती है। दूरी तीन-चार सौ किलोमीटर बढ़ जाने से ही ट्रेन गर्मी में भी लेट होती है। लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता ही है।
विपक्ष अवाक्! सिट्टी-पिट्टी गुम! घिग्घी बँध गई! ऐसे साइंटिफिक टेम्परामेंट का कोई जवाब है?
कोरोना ने ईवेंटजीवी सरकार की ऑक्सीजन भले ही रोक रखी हो, परन्तु सरकार ने ‘आपदा में अवसर’ के ईवेंट का टास्क घोषित कर दिया है। ईवेंटजीवी सरकार के पालक इस टास्क को जी-जान लगाकर पूरा कर रहे हैं। नकली दवा बनाने से लेकर कफन तक चोरी कर रहे हैं। गनीमत है कि ताबूत नहीं चोरी नहीं कर रहे हैं। अगर ताबूत भी चोरी होने लगें, तो इसे वर्तमान सरकार का ‘टास्क’ न मानें। ताबूत चोरी के पराक्रम में भाजपा पहले से ही आत्मनिर्भर है। ताबूत चोरी का टास्क अटल सरकार ने ही पूरा कर दिया था। अटल सरकार ने ही निजीकरण की बुलंद इमारत तैयार करने के लिए जमीन को समतल कर दिया था। उस समतल जमीन पर वर्तमान सरकार निजीकरण की बुलंद इमारतें तैयार कर रही है। उन इमारतों में 18-18 घंटे काम करना पड़ता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कहा कि वे 18-18 घंटे काम करते हैं, तो विपक्ष, आलोचकों को ये झूठ लगा। जिन्हें झूठ लगा शायद उनमें से कोई भी प्राइवेट सेक्टर का कर्मचारी नहीं है। प्राइवेट सेक्टर में ‘इंक्रीमेंट’ टास्क पर निर्भर होता है। टास्क पूरा करने के लिए 18-18 घंटे काम करना ही पड़ता है। 18-18 घंटे काम करवाने में कंप्यूटर, इंटरनेट, स्मार्टफोन ने सहयोग दिया है। काम अब बाथरूम में भी घुस गया है- कहाँ हो? कमोड पर बैठा हूं। काम तो वहां बैठे-बैठे भी कर सकते हो। मोबाइल में कल का प्लान तैयार करो। ओके सर।
निजीकरण की नींव तैयार करने में गारा-मिट्टी ढोने वाले कोरोना की दूसरी लहर में ईवेंट जी से नाराज हैं। जब वे कोरोना के इलाज के लिए प्राइवेट हॉस्पिटल में जाते हैं, तो बिल देखकर सोचने लगते हैं- क्या ये वही बुलंद इमारत है, जिसे तैयार करने के लिए हमने गारा-मिट्टी ढोयी थी?
प्राइवेट हॉस्पिटल कोरोना का इलाज चाहे जैसा भी कर रहे हों, निजीकरण का भूत उतारने का काम सबसे अच्छा कर रहे हैं, हालाँकि निजीकरण की इमारत को तैयार करने में गारा-मिट्टी ढोने वालों के ऐतिहासिक रिकॉर्ड को देखते हुए मनुष्य के लिए इस कठिन दौर में भी ये आशा करना मुश्किल है कि भूत उतर जाएगा। हो सकता है एक-दो तिमाही तक उतरा रहे। फिर और कचक कर चढ़ जाए।
एक छोटी सी आशा एक “बैचलर” की थी। आज भी उसकी आशा बरकरार है, हालांकि ईवेंट की चकाचौंध में उस बैचलर की आशा अंधरे में चली गई है।
2014 लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने कई बड़े-बड़े वादे किये थे। शोर मचा कि सबके खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख आएंगे। हम बुलेट ट्रेन से चलेंगे। हम विश्वगुरु बनेंगे। यही सोचकर उन्हें वोट भी खूब मिले और प्रचंड बहुमत की सरकार बनी। एनडीए को वोट देने के पीछे सबकी अपनी-अपनी सोच और समझ रही होगी। एक बैचलर ने पंद्रह लाख और बुलेट ट्रेन को नजरंदाज कर एनडीए को सिर्फ एक कील के लिए वोट दिया था।
बैचलर किराये के कमरे में रहता था। कपड़े टाँगने के लिए दीवार में कील ठोंकता। कील कहीं ईंट से टकरा जाती, तो टेढ़ी हो जाती। फिर दूसरी जगह ठोंकता। ऐसे ही कील ठोंकने के प्रयास में दीवार में कई जगह छेद हो गये। एक दिन मकान मालिक उसके कमरे में आए। दीवार में बने छेद देख बहुत गुस्साए। कमरा खाली करने का आदेश सुनाए। कील के चलते हुए अपने अपमान से बैचलर को बहुत ठेस लगी। उसने तय कर लिया कि अब दीवार में कील नहीं ठोंकूंगा। वो अपने कपड़े अपने बिस्तर पर ही रखने लगा।
उसी दौरान लोकसभा चुनाव 2014 का शोर शुरू हुआ। चुनाव के शोर में बैचलर ने नरेंद्र मोदी की गर्जना सुनी। जब उसे सुनाई दिया कि ‘मैं देश को विश्वगुरु बनाऊँगा’, तब बैचलर ने सोचा कि जो आदमी देश को विश्वगुरु बना सकता है, वो आदमी वो कील तो बना ही सकता है, जो ठोंकने के दौरान टेढ़ी न हो। यही सोच कर उसने एनडीए को वोट दिया, पर आज भी उस बैचलर के कपड़े बिस्तर पर ही हैं। वो बैचलर अपनी प्रतिज्ञा पर अटल है। जब तक वो कील नहीं बन जाती, तब तक दीवार में कील नहीं ठोंकूंगा।
बैचलर ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से कील के बारे में कहा, तो अमित शाह ने जवाब दिया- कांग्रेस ने 60 वर्षों में कुछ नहीं किया। कील के लिए आप हमें कम से कम तीस वर्ष दीजिए। बैचलर ने भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा से कील के बारे में कहा, तो संबित पात्रा ने जवाब दिया- ओहोहो ओहोहो, आपको कील चाहिए, अच्छा अच्छा।
बैचलर को समझना चाहिए कि देश को विश्वगुरु बनाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधे पर है। इसलिए प्रधानमंत्री किसानों की आत्महत्या, शिक्षा और स्वास्थ्य की दुर्दशा, अर्थव्यवस्था जैसी छोटी बातों पर ध्यान नहीं दे पा रहे। प्रधानमंत्री द्वारा देश को विश्वगुरु बनाने की प्रतिज्ञा में सहयोग करने के लिए बैचलर को अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देनी चाहिए।
वैसे बैचलर के मन वाली कील बन जाती तो अच्छा रहता। बैचलर की आशा पूरी हो जाती।
वर्तमान दौर में सबसे बड़े आशावादी भाजपाई हैं। 2014 में उन्होंने एक-एक बैल अपने आँगन में पाला। उनसे वादा किया गया था कि बैल दूध देंगे। दूध की उम्मीद में उन्होंने बैल को बेहतरीन आहार दिया। सर्वोत्तम पशु आहार। उसकी सींगों पर नियमित तेल मालिश की। तेल मालिश से सींगों को और चमकदार, नुकीला, जानलेवा बनाया।सर्वोत्तम देने के बाद भी बैल ने दूध नहीं दिया। दूध की ‘इमरजेंसी’ होने पर बैल को दुहने की कोशिश करते हैं। दूध नहीं निकलता है, तो किचकिचाकर दुहते हैं। किचकिचाकर दुहने से खून निकल जाता है। उनके बैल ने दूध की जगह खून दिया, तो वे खून को दूध समझ पी जाते हैं। उनके बैल जो पीते हैं, वही अपने पालकों को देते हैं।
उनके बैल पीने के लिए खून देते हैं, इसीलिए वे उन्हें घर के बाहर नहीं पालते। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा- खूनपियना? खून को दूध साबित करने के लिए वे बैल को आँगन में पालते हैं। घर से भुजा फड़काते, थुत्थुन से विश्वगुरू का झाग उगलते निकलते हैं- दूध पीकर आ रहा हूं, सामने से हट जाओ, नहीं तो तुम्हारा खून पी जाऊँगा!
हो सकता है, बैल का प्रयोग करने से शुद्धताजीवी नाराज हों जबकि बैल इज़ बेटर दैन ह्यूमन। यही सोचकर गधा का प्रयोग नहीं किया क्योंकि गधा इज़ सुपीरियर दैन ह्यूमन।
एक छात्र पढ़ने में कमजोर है। वो किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाता, तो मास्टर जी उसे बैल कह देते हैं। गधा भी कह देते हैं। छात्र को बैल और गधा कहने वाले मास्टर जी ये शिक्षा भी देते हैं कि बेजुबान जानवरों का सम्मान करना चाहिए। ये शिक्षा देने वाले मास्टर जी छात्र का अपमान करने के लिए उसे बैल और गधा भी कहते हैं! मास्टर जी को नहीं पता कि मास्टर बनने से कहीं अधिक मुश्किल है आदमी का बैल बनना। गधा बनना। आदमी को बैल या गधा बनने के लिए हाथी के वजन जितना आत्मबल चाहिए। इतना आत्मबल बैल के पास होता है। गधे के पास होता है। इसलिए वो अपने वजन से कई गुना अधिक भार उठा पाता है।
अपने शारीरिक बल के अहंकार में चूर आदमी अगर अपने शरीर के वजन जितना भार ही उठा ले, तो आदमी के पेट का तंत्र बिगड़ जाता है। खुद को सभी प्राणियों से खुद ही श्रेष्ठ घोषित करने वाले आदमी के पास बैल और गधे के बराबर भी आत्मबल नहीं है! मास्टर जी को किसी छात्र को बैल या गधा कहकर दोनों बेजुबान प्राणियों का अपमान करने से पहले आदमी के बारे में सोचना चाहिए। शारीरिक बल को ही अपना सब कुछ मानने वाला आदमी अपने बल का प्रदर्शन गालियाँ देकर या किसी को मार-पीट कर करता है। घास-भूसा खाने वाले बैल और गधा आत्मबल के धनी। सबसे अच्छा खाने वाला आदमी आत्मबल का अर्थ भी नहीं जानता!
घास-भूसा खाने वाले जानवरों का गोबर कहीं ना कहीं उपयोग में आ जाता है। सबसे अच्छा खाने वाले आदमी का गोबर निरर्थक, हालाँकि आदमी के गोबर का उपयोग आजकल गैस बनाने में किया जा रहा है पर ये उपयोग भी बहुत दिन तक नहीं चलेगा! अपने गोबर का उपयोग देख आदमी अपने गोबर में गैस ही नहीं जाने देगा। वो पूरी गैस एक तरफ टेढ़े होकर कभी आवाज के साथ, कभी बिना आवाज के निकाल देगा। ऐसा श्रेष्ठ प्राणी है आदमी। इसके स्वार्थ का बल हाथी के वजन के बराबर होता है।
आदमी अगर बैल या गधा बन जाए, तो न उसे सत्ता की आवश्यकता होगी, न ही किसी सरकार की। न किसी भगवान की और न ही किसी की भक्ति करने की आवश्यकता होगी।
अब नाराजगी दूर हुई शुद्धताजीवी जी? ईवेंटजीवी जी? विश्वगुरुजी?