एक आदमी की आवाज उसके ऑफिस में नहीं सुनी जा रही थी। उसे समझौते करने पड़ रहे थे। मन मारकर काम करना पड़ रहा था। आजिज आकर उसने इस्तीफा दे दिया- मैं अपनी आत्मा की पुकार पर इस्तीफा दे रहा हूँ।
आत्मा की पुकार पर इस्तीफा देने की चर्चा चारों तरफ होने लगी। सभी शाबासी देने लगे। हिम्मत की दाद देने लगे। कुछ लोगों ने क्रांतिकारी का तमगा भी दिया। पर ये क्या! इस्तीफा देने के बाद वो आदमी फलक से गायब हो जाता है। ऐसा लगता है, आत्मा सिर्फ इस्तीफा दिलवाने के लिए जगी थी। आत्मा की पुकार सुन इस्तीफा देने वाले को आत्मा फिर नहीं बताई कि आगे क्या करना है! शायद उसकी आत्मा सुविधाभोगी हो गई होगी। सुविधाभोगी शरीर में रहते-रहते आत्मा को भी स्वार्थ की लत चुकी है। देश में ऐसी आत्माओं की संख्या अत्यधिक हो गई है, जो अपना फायदा देख आवाज सुनाती हैं, फिर हमेशा के लिए गूँगी हो जाती हैं। उस आदमी ने आत्मा की पुकार सुन इस्तीफा दे दिया। कई ऐसे हैं, जो जीवन भर आत्मा की आवाज ही नहीं सुन पाते।
किसी ने कहा, ‘योग करने से मस्तिष्क और आत्मा का तार जुड़ता है।’ योग का ये उपाय वे भी बताते हैं, जिनके मस्तिष्क और आत्मा का तार केवल धन से जुड़ता है।
सवाल है कि आत्मा है क्या? आत्मा, दुहाई दी जाने वाली संज्ञा। अभी तक इसका लिंग निर्धारण नहीं किया जा सका है। होती है, देती है के उच्चारण के अनुसार आत्मा को स्त्रिलिंग माना जा सकता है। आत्मा के लिंग का स्पष्ट निर्धारण भले न हो पर इसकी परिभाषाएँ बहुत हैं। मैं भी सोचता हूँ कि आत्मा क्या है? ये कैसे बनती है? मेरा मानना है कि प्रेम, दया, ममता आदि मानवीय गुणों के संयोग से आत्मा का निर्माण होता है। वे मानवीय गुण जिन्हें भाव कहा जाता है, जो शरीर का हिस्सा नहीं होते, ना ही नजर आते हैं; पर उन मानवीय गुणों के बिना जीवन निरर्थक समझा जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो साँस लेने वाला मुर्दा। आत्मा/ अंतरात्मा की आवाज सुनने का अर्थ इन्हीं मानवीय गुणों का कहना मानना है। मरने के साथ ही देह भाव-विहीन हो जाती है। देह के साथ उसकी आत्मा भी समाप्त। फिर कौन सी आत्मा की शांति के लिए जप-तप किया जाता है?
मुझे लगता है आत्मा शांति के लिए होने वाले जप-तप का प्रभाव जीवित इंसानों की आत्मा पर अधिक पड़ता है। शांत होकर आत्मा पुकारना बंद कर देती है। मानवीय गुण शांत हो जाते हैं, अमानवीय गुण चीखने लगते हैं। स्वार्थ की चीख, आत्मा की पुकार बन जाती है।
(आत्मा क्या है? है या नहीं है? है तो साकार है या निराकार है? इन पर विवाद और चर्चा होती रहती है। आत्मा के बारे में सबकी अपनी समझ है। परिभाषा है। धारणा है। आत्मा के बारे में अपने विचार इसलिए बताए ताकि जहाँ कहीं भी आत्मा का उल्लेख करूँ, वहाँ आत्मा की मेरी परिभाषा लागू हो। दूसरों की नहीं।)
आत्मा क्या है, का जवाब मैंने दे दिया है। अध्यात्म के बाजार में अपनी दुकान लगाने के इच्छुक नए दुकानदार चाहें तो मेरी आत्मा का दुरुपयोग करते हुए अपनी दुकानदारी चमका सकते हैं। अध्यात्म के दुकानदार मेरी बात मान लेंगे, पर धर्मगुरु जब तक नहीं मानेंगे, तब तक मेरी परिभाषा पर ‘सर्टिफाइड’ की मोहर नहीं लगेगी। तो क्या अपनी बात मनवाने के लिए जंगल में जाऊँ? तपस्या कर वापस आऊँ? चोला बदल बाबा बन जाऊँ?
मेरे परिजन, मेरे शुभचिंतक मेरे भविष्य के प्रति चिंतित रहते हैं- ये कुछ करता क्यों नहीं? मेरे परिजन और शुभचिंतक भले ही मेरे भविष्य को लेकर चिंतित होते हों, मैं नहीं होता। वे नहीं जानते, मैं प्रवचन बहुत अच्छा देता हूँ। जिस दिन मुझे अपने ‘करियर’ की चिंता हुई, मैं चोला बदलकर प्रवचन के बदले ‘दान’ लेने वाला बाबा बन जाऊँगा। अगर ऐसा हुआ (मान लीजिए) तो मेरे भविष्य के प्रति चिंतित शुभचिंतकों का सहयोग मैं लूँगा। उनसे कहूँगा कि अफवाह उड़ा दो- विभांशु में नागराज की आत्मा आ गई है। अपने पत्रकार मित्रों का भी सहयोग लूँगा- गौर से देखिए इन आँखों को! क्या आपको इन आँखों में नागराज की छवि नहीं दिखाई देती? फिर मेरे घर के सामने दूध का कटोरा लिए भक्तों की लाइन लग जाएगी।
मास्टर साहब बताए थे- साँप दूध नहीं पीता। दूध साँप के लिए हानिकारक हो सकता है। मास्टर साहब कुछ भी बताएँ, भक्त नागपंचमी के दिन दूध पिलाने के लिए साँप खोजते हैं। समझ में नहीं आता, भक्त पूजा करने के लिए साँप खोजते हैं या दूध पिलाकर मारने के लिए। मैं भक्तों को मास्टर साहब की बात याद दिलाने की भूल नहीं करूँगा। मैं दूध पी जाऊँगा क्योंकि मेरी दुकान अंधविश्वास पर ही टिकी होगी।
नागराज के अवतार के पास भक्त दूध लेकर ही आएंगे- प्रभु! पी लीजिए। नागराज कितना दूध पीएँ? छोटा सा पेट है, सभी भक्तों का मान रखने में पेट फट जाएगा। प्रभु चख ही ली लीजिए। चखते-चखते भी बहुत हो जाएगा। नाराज न हों प्रभु, हम दूध आपके चरणों में रख देते हैं। आपकी जो मर्जी हो, दूध के साथ करिए। भक्तों के जाने के बाद मैं दूध अपने सँपोलों को पिला दूँगा।
नागराज के अवतार के रूप में स्थापित हो जाने के बाद अपभ्रंश प्रवचन दूँगा। भले ही धर्मगुरु मुझे नागराज नहीं, आस्तीन का साँप घोषित कर दें। जो उनके भेष में उनके धंधे को ही चौपट कर रहा है। अपभ्रंश प्रवचन के माध्यम से इंसानों के भेष में घूम रहे पत्थरों की पहचान बताऊँगा। उन पत्थरों को पहचानने का हुनर, जो मानवीय गुणों (आत्मा) से मुक्त हो चुके हैं। उनकी आत्मा शरीर में है ही नहीं, फिर भी जीवित हैं। जिंदा कहे जाते हैं।
प्राचीन काल से चली आ रही कथाओं में कुछ ऐसे पात्र हैं, जिनके प्राण ‘तोते’ में बसते हैं। तोते की गर्दन मरोड़ देने से उनके प्राण पखेरू हो जाते हैं। कथाओं में अपने प्राण तोते में रखने वाले अक्सर मनुष्यताविरोधी हैं। आधुनिक कथाओं में मनुष्यताविरोधियों को चकमा देने के लिए मनुष्य भी अपने प्राण तोते में रखने लगा है।
टेक्नोलॉजी ने मनुष्य को उन्नत बनाया है। अनेक सुविधाओं की सेवा प्रदान की है। उन सेवाओं के सहयोग से मनुष्यता की उन्नति हुई है। उन सेवाओं ने मनुष्यताविरोधियों से बचाव की ढाल प्रदान की है। मनुष्यता को मारने वालों को चकमा देना सिखाया है। अब मनुष्य के पास प्राण के साथ-साथ आत्मा को भी शरीर के बाहर रखने वाला तोता उपलब्ध है।
आधुनिक कथाओं में मानवताविरोधियों को चकमा देने वाले पात्रों की संख्या अत्यधिक है, जो अपने प्राण और आत्मा को शरीर से बाहर रखते हैं। आधुनिक दौर के ऐसे पात्र रियल स्टेट, फिल्म निर्माण, मीडिया इंडस्ट्री, धर्म आदि नामक गुल्लक में धन नामक अपने प्राण को सुरक्षित रखते हैं। गुल्लक में प्राण सुरक्षित रखने के बाद चिंता हुई, आत्मा कहाँ छुपाकर रखी जाए। इस चिंता का समाधान बाजार ने किया। हजारों वर्ष की अपनी तपस्या के दम पर बाजार ने लोहे-लक्कड़ में भी जान डाल दी है। धन नामक प्राण को सुरक्षित रखने के बाद बाजार ने आत्मा को सुरक्षित रखने वाला लौह कवच पेश किया-आत्मा लोहे-लक्कड़ में रख दी जाए। आत्मा पर जंग भी नहीं लगेगी। जंग-रोधी लोहा-लक्कड़ है। आत्माकतरे खूब फल-फूल रहे हैं।
भीड़ में चलते हुए उनके शरीर से अंजाने में या भूलवश कोई आदमी टकरा जाए, तो उसे नजरंदाज कर सकते हैं। पर भीड़ में अंजाने में ही या भूलवश किसी ने उनकी गाड़ी को ‘टच’ भी कर दिया, तो वे बमक जाते हैं। इंडिकेटर पर लगी खरोंच देख बौखला जाते हैं। बौखलाना स्वाभाविक भी है। जान और आत्माविहीन शरीर पर खरोंच लगे तो क्षमा किया जा सकता है। पर लोहे- लक्कड़ की गाड़ी में बसने वाली आत्मा पर खरोंच लगे तो उनका गुस्सा जायज है। इंडिकेटर की गर्दन मरोड़ देने से उनकी मृत्यु भी हो सकती है। वे अपनी आत्मा के टायर को कीचड़ में भी नहीं उतरने देते। टायर पहनकर चल रही आत्मा को रास्ता देने के लिए, चप्पल-जूते का टायर पहनकर पैदल चलने वाले आदमियों को भले ही कीचड़ में उतरना पड़ जाए। अपनी आत्मा पर कीचड़ कौन लगवाना चाहता है?
प्रवचन का उपर्युक्त मौलिक ‘पीस’ प्रस्तुत करने के बाद भी मुझे ऐसा लगता है, मेरे शुभचिंतक मुझे नागराज का अवतार घोषित करने में मेरा सहयोग नहीं करेंगे! क्यों? अवतार घोषित होने के बाद मैं साल-दो-साल में ही करोड़पति बन जाऊँगा। वे कई वर्षों से अपने करियर की चिंता में लीन हैं, पर लखपति भी नहीं बन पाए। मैं अपनी सभी शुभचिंतकों वचन देता हूँ कि मैं सबको हिस्सा दूँगा। पत्रकार मित्रों को विज्ञापन दूँगा। आखिर सबने मिल कर बेवकूफ बनाया है। पाप की कमाई बाँटूँगा, तभी पाप भी बँटेगा।
अपभ्रंश ही सही, मैं मौलिक प्रवचन दूँगा। इतिहास गवाह है, मौलिकता हमेशा प्रभावित करती है। मौलिक झूठ भी प्रभावित करता है। मौलिक झूठ पर आसानी से विश्वास जम जाता है। कुछ झूठे विश्वासों की उम्र कम होती है। कुछ हजारों वर्ष से सच के रूप में स्थापित हैं। खंडन के बाद भी अखंड विश्वास बने हुए हैं। आधुनिक इतिहास गवाह है, जहाँ सच से अधिक मौलिक झूठ ने प्रभावित किया है। पत्थर के गणेश बच्चों का दूध पी गए। मुँहनोचवा सच का मुँह नोच ले गया। चोटीकटवा सच्चाई की चोटी काट ले गया।
अपभ्रंश नागराज…उफ्फ्फ (बार-बार अवतार-अवतार सुनते-सुनते मेरा स्वार्थ भी अपभ्रंश नागराज को सच मान बैठा!) विभांशु, तुम फिर बहके। (ये मेरा स्वार्थ बोला) त्राहिमाम स्वार्थ जी। अब आपका कहना मानता हूँ-
एक ब्रह्म भी होता है। ब्रह्म का निर्माण भी आत्मा के निर्माण की तरह ही होता है। सिर्फ नाम अलग है। ब्रह्म का दुरुपयोग सबसे अधिक होता आया है। इस देश में एक ऐसा प्राणी पाया जाता है, जो खुद को श्रेष्ठ समझता है। जीवित रहता है, तब कहता है- अगर मुझे सताया तो मरने के बाद ब्रह्म बनकर परेशान करूँगा। श्रेष्ठता के भूत का कमाल देखिए; मरने के बाद भी श्रेष्ठ ही बनना है! मरने के बाद भी श्रेष्ठ बने रहने के लिए इस प्राणी ने बता रखा है- ब्रह्म सबसे अधिक शक्तिशाली भूत होता है।
श्रेष्ठता के भूत से पीड़ित आत्मा या ब्रह्म का निर्माण अहंकार, स्वार्थ, लालच आदि के संयोग से होता है। पुकार पर इसकी चीख हावी है।