लगभग पूरी दुनिया महीनों लॉकडाउन में रहकर इस ज्ञान तक पहुँची कि कोरोना वायरस से ‘इम्यूनिटी’ ही लड़ती है इसलिए सबको अपने शरीर की इम्यूनिटी बढ़ानी चाहिए। फिर क्या था? दुनिया भर में इम्यूनिटी बढ़ाने वाली हर चीज की चर्चा गर्म हो गयी। प्लाज्मा थेरेपी, इम्यून थेरेपी, आयुर्वेद, योग, विटामिन की गोलियां, आदि इम्यूनिटी के लिए याद किए जाने लगे।
होमियोपैथी तो अपने आरम्भिक काल से ही शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाकर ही रोग को खत्म करने का दावा करती है। होमियोपैथी पर सवाल उठाने वाले शुरू से ही होमियोपैथी को “कुछ नहीं” समझते हैं। कुछ तो इसे “प्लेसिबो” कहते हैं. हालांकि प्लेसिबो का होमियोपैथी में बड़ा आदर है। दुनिया भर के श्रेष्ठ होमियोपैथ प्लेसिबो के बिना अपनी होमियोपैथी चला ही नहीं सकते! यानि होमियोपैथी में प्लेसिबो का महत्व है लेकिन होमियोपैथी, अपने आप में प्लेसिबो नहीं है। खैर, मैं तो इम्यूनिटी को समझने की प्रक्रिया में हूं इसलिए होमियोपैथी का ज़िक्र आ गया।
कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया को एक बात पर एकमत कर दिया है कि इस संक्रमण से बचने के लिए शरीर की इम्यूनिटी का मजबूत रहना जरूरी है। तो दरअसल सारा खेल इम्यूनिटी का है। इम्यूनिटी यानि शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र! विज्ञान की किताबों में इम्यूनिटी किसी भी जीव के शरीर में होने वाली जैविक प्रक्रियाओं का संग्रह है जो रोग के कारक कोशिकाओं या बैक्टीरिया, फंगस, वायरसों को पहले पहचान और फिर मारकर उस जीव की रोगों से रक्षा करती है। इम्यूनिटी हमारे शरीर में रोग उत्पन्न करने वाले परजीवियों की पहचान करने में सक्षम होती है। यह इन रोग उत्पन्न करने वाले एजेन्टों को शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं और ऊत्तकों से अलग पहचान सकती है ताकि शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान न पहुँचे।
रोगजनकों की पहचान करना आसान भी नहीं है। यह एक जटिल कार्य है क्योंकि रोगजनकों का रूपांतर बहुत तेजी से होता है और यह स्वयं का अनुकूलन इस प्रकार करते हैं कि प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर बड़ी कुशलता और सफलतापूर्वक अपने पोषक को संक्रमित कर सकें। कोरोना वायरस भी ऐसी ही ताकत से लैस है। उसे हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र पहचान ही नहीं पाता और वह शरीर के अन्दर तूफान मचाये रहता है। इसलिए शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र या इम्यूनिटी का मजबूत रहना जरूरी है। यहां यह समझना जरूरी है कि इम्यूनिटी संक्रमण या रोग से बचाने में शरीर की क्या मदद करती है? यह बीमारी या अन्य अवांछित जैविक हमलावरों के लिए पर्याप्त जैविक रोग-प्रतिरोध उत्पन्न करती है। यह रोगजनकों (वायरस, बैक्टीरिया आदि) के लिए “इलिमिनेटर” के रूप में कार्य करती है। शरीर के इम्यून सिस्टम के अन्य घटक खुद को बीमारी के अनुकूल बनाकर और रोगकारक वायरस को पहचान कर शरीर में विशिष्ट रोग-क्षमता उत्पन्न कर देते हैं। यही खास बात है और शरीर रोग से बच जाता है।
सामान्य रूप से शरीर में यह प्रक्रिया चलती रहती है बशर्ते कि शरीर प्राकृतिक रूप से स्वस्थ हो। इसके लिए स्वस्थ खान-पान, जीवनशैली, आब-ओ-हवा, माहौल आदि होना चाहिए। यदि किसी खतरनाक व गम्भीर वायरस के आक्रमण से शरीर की स्वाभाविक प्रतिरक्षण प्रणाली काम न करे तो कृत्रिम विधि जैसे टीकाकरण, प्लाज्मा ट्रांस्फ्यूजन एवं होमियोपैथिक दवा आदि के माध्यम से शरीर में इम्यूनिटी बढ़ायी जाती है।
इम्यूनिटी में “एन्टीबॉडी” की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस पर आगे चर्चा करेंगे। फिलहाल इम्यूनिटी को थोड़ा और समझ लें। सामान्य रूप से हर जीव में जन्मजात या इनेट इम्यूनिटी होती है और रोग की अवस्था में यह शरीर का हर सम्भव बचाव करने की कोशिश करती है मगर एडेप्टिव इम्यूनिटी तो रोग विशेष के विरुद्ध शरीर तब तैयार करता है जब शरीर पर किसी खतरनाक सूक्ष्मजीव का हमला होता है। यह दो तरीके से होता है- प्राकृतिक या कृत्रिम। प्राकृतिक इम्यूनिटी में कुछ तो जीव में उसके मां से रोग प्रतिरोध की क्षमता स्वाभाविक रूप से आ जाती है जबकि रोग की स्थिति में शरीर संक्रमण से बचने के लिए सक्रिय इम्यूनिटी विकसित कर लेता है। इसलिए शरीर का प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रहना बेहद जरूरी है।
जब कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया को तबाह करना शुरू कर दिया तो विशेषज्ञों को शरीर की प्राकृतिक इम्यूनिटी को संभालने, मजबूत करने या बढ़ाने की चिंता हुई। तभी दुनिया में प्राकृतिक खाद्य, पेय, विटामिन्सयुक्त फल, पदार्थ आदि की मांग बढ़ी। इसी आड़ में व्यवसायियों ने अपने “इम्यून बूस्टर” बेचने शुरू कर दिये। बाबा के रूप में व्यापारी-कारोबारियों की तो चल निकली। उनके “कुछ भी” से कोरोना वायरस संक्रमण के इलाज का प्रचार गोदी मीडिया माध्यमों से गूंजने लगा और उनका मंदा चल रहा धंधा तेज़ हो गया। बहरहाल, मेरी चर्चा तो इम्यूनिटी पर है सो अपन इसी विषय पर जमे रहते हैं।
इम्यूनिटी की अवधारणा ने मानव जाति को हजारों वर्षों तक विस्मय में रखा। प्रागैतिहासिक दृष्टि से यह माना जाता था कि रोग दैवीय शक्तियों द्वारा होता है और बीमारी एक प्रकार से “पापों की सज़ा” है। प्राचीन वैदिक मान्यताओं में शरीर में चार परिवर्तनों या असंतुलन को जिम्मेवार ठहराया गया है- खून, कफ़, पीला पित्त और काला पित्त। इस विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए सिल्वर स्टेन, एम. आर्थर (1989) की किताब ‘‘हिस्ट्री ऑफ़ इम्यूनोलॉजी” पढ़ी जा सकती है। हिपोक्रेट्स ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में वैज्ञानिक पद्धति की नींव रखी। उस दौर में बीमारी के लिए “भाप का सिद्धान्त” प्रचलित था। इसके अनुसार प्लेग, हैजा आदि रोग “बुरी हवा” के माध्यम से फैलते थे। इसे आप वायु से संक्रमण या “एयर बार्न डिजीज़” कह सकते हैं। 19वीं शताब्दी में इस्लामिक चिकित्सक अल रज़ी ने अपने एक ग्रन्थ में चेचक और खसरा के निदान और उपचार के बारे में लिखा है। प्रतिरक्षण के सिद्धान्त के जनक लुई पास्चर ने सन् 1885 में स्पष्ट कर दिया था कि रोग जीवाणुओं के कारण फैलता है। इसके बाद ही इम्यूनोथेरपी का प्रयोग शुरू हुआ। पुन्तुस के मिथ्रिढातेस ने सभी सांसारिक विष से रक्षा के लिए एक सार्वभौमिक मारक विकसित किया और एडवर्ड जेनर, लेडी मैरी आदि ने टीकाकरण की शुरुआत की। इस तरह इम्यूनोलॉजी का क्रमशः विकास होता गया और शरीर में रोग-निरोधी क्षमता को विकसित करने के लिए विभिन्न तकनीक आदि का प्रचार शुरू हो गया।
आज इम्यूनिटी को संक्रामक रोगों से बचाव में बेहद महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा है। जिसे देखिए वही अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने में लग गया है। बाजार में इम्यून बूस्टरों की बाढ़ आयी हुई है। शरीर को रोगों के खिलाफ जो इम्यूनिटी चाहिए वह “वैक्सीन” के जरिये पहुँचाने के लिए पूरी दुनिया में दवा बनाने वाली कम्पनियों में होड़ मची है। अब तक वैक्सीन का जो अनुभव रहा है उसका निचोड़ यह है कि इससे रोग के खिलाफ इम्यूनिटी के नाम पर वैक्सीन बनाने वाली कम्पनी की तो एक्वायर्ड इम्यूनिटी काफी बढ़ जाती है और मुनाफे के नियमित प्रवाह के साथ-साथ यह लम्बे समय तक बरकरार रहती है, लेकिन आम लोग जो अपने शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए या कथित वैक्सीन के इंतज़ार में रहते हैं वे ठग लिए जाते हैं। अभी तो तमाम वैश्विक कम्पनियों के दावे लोगों को उम्मीद में रखे हुए हैं। इज़राइल, इटली, अमरीका, भारत, फ्रांस, चीन सहित कई देशों से कम्पनियों के 100 से ज्यादा वैक्सीन के ट्रायल जारी हैं लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) पहले ही आशंका व्यक्त कर चुका है कि कोविड-19 का वैक्सीन “नहीं” भी मिल सकता है।
डब्लूएचओ में कोविड-19 के विशेष दूत (स्पेशल एमबेस्डर) डॉक्टर डेविड नैबोरो कह चुके हैं, ‘‘यहां पहले से ही कई वायरस हैं जिसकी कोई वैक्सीन नहीं है, जैसे डेंगू, एचआइवी की वैक्सीन 20 वर्षों में भी प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आ पायी है। सामान्य लोग पूछ रहे हैं कि वैक्सीन बनने में इतना समय क्यों लग रहा है? जवाब है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अलग-अलग होती है इसलिए एक ही बीमारी के ठीक होने में अलग-अलग लोगों में अलग-अलग वक्त लगता है। ऐसे ही एक वायरस अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरीके से बीमार करता है। वैक्सीन के लिए सबसे पहले वायरस की ताकत जानना, पहचानना जरूरी है और वायरस के उच्चतम क्षमता के ज्ञान से ही सही वैक्सीन का रास्ता तैयार होता है। वैक्सीन को वायरस से ज्यादा ताकतवर होना जरूरी है। जब तक यह नहीं होता वैक्सीन नहीं बन पाएगा।
इसलिए आपकी इम्यूनिटी ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति को वैक्सीन के लम्बे इन्तजार की जगह अपनी प्राकृतिक इम्यूनिटी बढ़ाने पर जोर देना ज्यादा उचित है। जैसे दूसरे देशों में अपने देश के राजनयिकों को डिप्लोमेटिक इम्यूनिटी मिली होती है वैसे ही वायरसों की दुनिया में शरीर को इम्यूनिटी मिले इसके प्रयास जारी हैं। कोरोना वायरस ने इम्यूनिटी की डिप्लोमेसी कर रही विभिन्न दवा कम्पनियों के सारे प्रयासों को अब तक ऐसा चकमा दिया है कि वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों के वैज्ञानिकों को बहुत मुश्किल आ रही है। इस दौरान हमारे देश का सत्ता प्रतिष्ठान अपनी पोलिटिकल इम्यूनिटी के सहारे जनता के जीवन, सेहत और अन्य कई पहलुओं पर ऐसे हमलावर है कि जनता त्राहि-त्राहि तो कर रही है मगर आवाज़ नहीं उठा पा रही। अब कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के लिए “हर्ड इम्यूनिटी” की बात चल रही है। आप पूछेंगे कि ये क्या है?
हर्ड का मतलब होता है झुण्ड यानि इंसानों का समूह। यदि किसी वायरस का संक्रमण इनसानों के बड़े समूह में फैल जाता है और वे लोग किसी तरह उस वायरस के संक्रमण से बचकर निकल आते हैं तो माना जाता है कि वे लोग इन वायरस से बचाव के लिए एक साथ सक्षम हो गए हैं। ऐसे में उन सबके शरीर में प्रभावशाली एन्टीबॉडी विकसित हो जाता है और धीरे-धीरे वायरस का असर खत्म हो जाता है। एन्टीबॉडी. जिसे चिकित्सीय भाषा में इम्यूनोग्लोब्यूलिन्स (आईजी) के नाम से जानते हैं, एक तरह का गामा ग्लोब्यूलिन प्रोटीन है जो मनुष्यों के रक्त या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों में पाया जाता है। यह एन्टीबॉडी ही बैक्टीरिया या वायरस से शरीर की रक्षा करता है। मूलतः एन्टीबॉडी हमारे शरीर की रक्त कोशिका से बनती है जिसे प्लाज्मा सेल कहते हैं। ये एन्टीबॉडी विभिन्न प्रकार के हैं। ये अलग-अलग आइसोटोप बनाते हैं। ये आइसोटोप जिन्हें आइजीए(IgA), आइजीडी(IgD), आइजीई(IgE), आइजीजी(IgG) तथा आइजीएम(IgM) कहते हैं, ये अलग- अलग एन्टीजन से निबटने की क्षमता रखते हैं। इसलिए कोरोना वायरस संक्रमण हो या अन्य कोई और गम्भीर वायरस संक्रमण, हमें अपने शरीर की प्राकृतिक इम्यूनिटी पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए।
इम्यूनिटी के नाम पर बाज़ार के कुचक्र में न फंसे। अपने शरीर की अच्छी इम्यूनिटी के लिए अपनी जीवन शैली, स्वास्थ्य, खान-पान, नियमित व्यायाम, योग एवं ध्यान पर विचार करें। इम्यूनिटी के नाम पर पोंगा पंडिताई एवं व्यापार के लटके-झटके से बचें। व्यापारिक धूर्तता एवं राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर कई धंधेबाज अपनी दुकान चलाने के लिए आपका भावनात्मक शोषण करने की फिराक़ में रहते हैं। इनसे बचिए। अच्छे व प्रामाणिक साहित्य पढ़िए। वाट्सएप या सोशल मीडिया पर पसरे झूठे विज्ञापनों एवं पोस्ट से बचें। अपने भरोसेमन्द चिकित्सक से परामर्श करते रहें। ध्यान रखिए, आपके शरीर की इम्यूनिटी आपके शरीर को तो बचाएगी ही, भविष्य में मानवता की सेवा के लिए भी बेहतर सिद्ध होगी।
लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं