तन मन जन: COVID-19 में अंडमान से कश्‍मीर तक मरने को अभिशप्‍त हैं आदिवासी-घुमंतू


वाहवाही लूटने और हर बात पर अपनी पीठ खुद थपथपाने में सरकार और आज के नेताओं का कोई जवाब नहीं। बड़बोलेपन में हमारे राजनेता वह भी बोल जाते हैं जो करना उनके बस में नहीं है। आजकल सरकारी दावों में बताया जा रहा है कि उत्‍तर-पूर्व में कोरोना वायरस संक्रमण व अन्य रोग अब नियंत्रण में हैं, मगर यथार्थ है कि सोशल मीडिया के माध्यम से जो भी खबरें उत्तर-पूर्वी राज्यों से आ रही हैं उनमें वहां के प्रमुख शहरों को छोड़कर गांव कस्बों में कोविड-19 व अन्य रोगों से प्रभावित लोगों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है जितना दावा किया जा रहा है।

प्रधानमंत्री कार्यालय में केन्द्रीय पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास राज्यमंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने अपने वक्तव्य में संतोष व्यक्त किया है कि पूर्वोत्तर के प्रदेशों में कोरोना वायरस संक्रमण के नियंत्रण का मामला अनुकरणीय है और उन्होंने इसे ‘‘कोरोना प्रबन्धन का पूर्वोत्तर मॉडल’’ कहा है। वास्तविकता तो यह है कि देश के अन्य राज्यों में जहां कोरोना संक्रमण के मामलों में कमी देखी जा रही है वहीं पूर्वोत्तर के प्रदेशों में संक्रमण तेजी से बढ़ने लगा है। सरकारी उपेक्षा के बाद अब वहां स्थानीय समुदायों ने इस महामारी से मुकाबला करने के लिए स्वयं पहल शुरू कर दी है। यहां लोग क्वारन्‍टीन सेन्टर चला रहे हैं, खुद की टास्क फोर्स बनाकर कोरोना से बचाव और कोरोना पीड़ितों की मदद कर रहे हैं।

ऐसे ही भारत का एक और केन्द्र शासित प्रदेश अंडमान एवं निकोबार जो बंगाल की खाड़ी के दक्षिण में हिंद महासागर में स्थित है, जो लगभग 300 छोटेबड़े द्वीपों का समूह है वहां कई द्वीपों पर मानवीय आबादी है। यहां भी कोरोना वायरस संक्रमण की स्थिति भयावह है। पोर्ट ब्लेयर से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस द्वीप समूह में कोरोना संक्रमितों की संख्या पिछले दो हफ्तों में बहुत बढ़ गयी है। यहां संक्रमण की रफ्तार देश में सबसे ज्यादा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 31 जुलाई तक कोरोना वायरस से संक्रमितों की जो संख्या 548 थी वह अब बढ़कर 1625 हो गयी है। सरकारी रिपोर्ट का ठीक से विश्लेषण करें तो चौंकाने वाले परिणाम देखने को मिलेंगे। कठिन और भौगोलिक स्थितियों की वजह से कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव व उपचार के लिए सरकार की व्यवस्था इन क्षेत्रों में महज कागजों पर ही चाकचौबंद है। मुख्यधारा के मीडिया के लिए ये सभी सीमान्त प्रदेश और वहां कोरोना वायरस संक्रमण से जूझ रहे लोग कोई खबर नहीं हैं बल्कि वे अपनी तकदीर के भरोसे हैं।

देश के सबसे चर्चित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर में कोरोना वायरस संक्रमण की स्थिति तो और भी खराब है। अनुच्‍छेद 370 के हटा लिए जाने के बाद आज एक वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं लेकिन कश्मीर की स्थिति अब भी सामान्य नहीं है। अप्रैल के अन्तिम सप्ताह तक वहां सरकारी आंकड़ों में कोई 565 लोगों के कोरोना संक्रमित होने की पुष्टि हुई जिनमें 8 मरीजों की मौत हो चुकी है। श्रीनगर के चेस्ट डिजीज़ अस्पताल में विभागाध्यक्ष डॉ. नवेद के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर में 68,262 नये मरीजों को कोरोना वायरस संक्रमण के शक के चलते निगरानी में लिया गया है। यहां रोजाना 1100 से ज्यादा कोविड-19 टेस्ट किये जा रहे हैं।

जम्मू की स्वास्थ्य निदेशक डॉ. रेणु शर्मा के अनुसार प्रदेश में केन्द्रीय गाइडलाइन के तहत सभी प्रकार के प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है। एयरपोर्ट सर्विलांस को मजबूत बनाया गया है। इस प्रदेश से अप्रैल के बाद कोरोना वायरस संक्रमण के आंकड़े ढूंढना आसान नहीं है। कहने को जम्मू एवं कश्मीर में कोरोना से मरने वालों की संख्या अब तक 593 ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताजा आंकड़ों के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर में कोरोना वायरस संक्रमण के कुल 31,371 मामले अब तक सामने आ चुके हैं, हालांकि इनमें 23,805 ठीक हो चुके हैं।

कश्मीर से अप्रैल में दी गयी सूचना के अनुसार लॉकडाउन में वहां के लोगों की हालत और बदतर हुई है। फेक न्यूज़ से दूर रहने वाले अमनपसन्द लोगों की जानकारी के लिए बता दूं कि कश्मीर में कई घुमन्तू जातियां हैं जो मौसम के अनुसार अपना ठिकाना बदलती रहती हैं। गुर्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों का मुख्य पेशा पशुपालन है। सैंकड़ों वर्षों से जम्मू और कश्मीर के ये समुदाय अप्रैल के पहले सप्ताह में अपने पशुओं को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहां खानाबदोश समुदाय के लगभग 12 लाख लोग हैं। इनमें लगभग आधी आबादी गुर्जर और बकरवाल समुदाय की है। ये अपने पशु भेड़, बकरियां, भैंसें, गदहे, ऊंट, गाय आदि लेकर पीरपंजाल पार करते हुए जम्मू से कश्मीर घाटी में चले जाते हैं। सर्दी शुरू होने से पहले तक ये सांबा, पुंछ, रजौरी और रेयासी जैसी अपेक्षाकृत कम ठंडी जगहों पर रहते हैं। कोरोना काल में इन्हें न तो राशन मिला है और न ही दवाएं। मास्क, सेनेटाइज़र की तो बात ही नहीं करें। ऊपर से सूचना और समाचार के प्रसार पर अघोषित रोक की वजह से जानकारी बाहर भी नहीं आ पा रही। ऐसा इसके बावजूद है कि कश्मीर के 80 इलाकों को रेड जोन में रखा गया है।

कोरोना वायरस संक्रमण के डर और उससे बचाव के जो इन्तजाम देश की राजधानी दिल्ली में हैं उसकी कल्पना भारत के सीमान्त राज्यों में लोग तो कर भी नहीं सकते। पूर्वोत्तर प्रदेशों से लेकर उत्तर सीमान्त राज्यों में 80 फीसद तो गांव और साधनहीन क्षेत्र हैं जहां स्वास्थ्य और शिक्षा के कागजी केन्द्र तो हैं मगर व्यवहार में स्थिति बेहद खराब है। ये प्रदेश तथा यहां के लोग मुख्यधारा से लगभग कटे होते हैं। ऐसे इलाकों में लगभग 10 करोड़ से ज्यादा आबादी अपने तरीके से आत्मनिर्भर है, इसमें केन्द्र सरकार के ‘‘आत्मनिर्भरता’’ वाले जुमले का कोई योगदान नहीं हैं।

लॉकडाउन के पांच महीने इन इलाकों में रहने वालों के लिए कहर से कम नहीं रहे। रोजगार ठप हो जाने की वजह से इन दुर्गम इलाकों में लोगों के समक्ष मौत ही अब एकमात्र विकल्प बचा है। केन्द्र सरकार के स्तर पर आंकड़ों को जारी नहीं किये जाने के अघोषित निर्णय के बाद तो स्थिति और विस्फोटक हो गयी है। धीरेधीरे रिस कर आ रही खबरों को जोड़ें तब पता चलेगा कि लॉकडाउन के विगत पांच महीनों में इन प्रदेशों में सरकारी कल्याण की योजनाएं एक तरह से ठप हो गयी हैं। बच्चों का मि‍ड डे मिल, गर्भवती और माताओं का पोषण, मनरेगा आदि योजनाएं चल भी रही हैं या नहीं, लोग बता नहीं पा रहे। स्थिति दयनीय है और देश के मौजूदा आर्थिक हालात में सुधार के कोई लक्षण फिलहाल तो दिख नहीं रहे।

कोरोना वायरस संक्रमण के इस खौफनाक और रहस्यमय दौर में सबसे ज्यादा परेशानी इन सीमान्त प्रदेशों के लोगों की है। सत्ता पर काबिज नेताओं के तिकड़म और सरकार की तानाशाही का असर यह है कि श्रम करने वाली देश की 70 फीसदी आबादी के समक्ष जीवन संचालन की समस्या आ खड़ी हुई है। शहरों में रहने वाले कुछ करोड़ लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोगों के जीवनस्तर में बड़ा फर्क आ गया है। लगभग 40 करोड़ लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतें बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं। पोषण और जीवनशैली के रोगों में अप्रत्याशित वृद्धि देखी जा रही है। अस्पताल और चिकित्सकों के अमानवीय व्यवहार ने हालात को और बदतर बना दिया है।

उत्तर प्रदेश के एक कैबिनेट मंत्री की कोरोना संक्रमण से हुई मौत ने सरकारी व्यवस्था पर खड़े सवाल को पुख्ता कर दिया है। सरकार के तलवे चाटने में व्यस्त मीडिया ने यह खबर तक नहीं दिखायी कि देश के मशहूर क्रिकेटर तथा उत्तर प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री श्री चेतन चौहान की मृत्यु लखनऊ के संजय गांधी पीजीआइ मेडिकल इन्स्टीच्यूट के कोरोना वार्ड में अपमानजनक उपेक्षा के कारण हुई। मामला तब प्रकाश में आया जब उत्तर प्रदेश विधान परिषद में समाजवादी पार्टी के युवा नेता सुनील सिंह साजन कोरोना संक्रमण से सम्बन्धित अपनी आपबीती सुना रहे थे। प्रदेश के सरकारी वीआइपी चिकित्सा संस्थान में जब एक वीआइपी की यह स्थिति है तो आम लोग अपनी हैसियत समझ लें।

एक ताजा सर्वे में कोरोना वायरस के अब गांवों में तेजी से फैलने की रिपोर्ट आयी है। एसबीआइ रिसर्च में कहा गया है कि विगत अप्रैल में कोरोना संक्रमण के जो मामले 23 फीसदी थे वे अब (22 अगस्त तक) बढ़कर 56 फीसदी हो गये हैं। रिसर्च के अनुसार अप्रैल में जहां 415 ऐसे ग्रामीण जिले थे जिसमें 10 से भी कम संक्रमण के मामले थे वहीं अब अगस्त में केवल 14 ऐसे जिले हैं जहां 10 से कम मामले आ रहे हैं।

विश्वगुरु बनने का सपना देखने वाले देश को यह जानना जरूरी है कि सरकारी आंकड़े के अनुसार आज करीब 80 फीसद डॉक्टर और 60 फीसद अस्पताल शहरी क्षेत्रों में हैं जबकि देश की 80 फीसद आबादी गांवों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पताल के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र ही हैं जो बस ‘‘रामभरोसे’’ ही काम करते हैं। ग्रामीण अस्पतालों में वेंटिलेटर तो छोड़िए, ठीक से आइसीयू तक नहीं हैं। जांच के लेबोरेटरी व साधन तो नाममात्र के हैं। ऐसे में कोरोना वायरस संक्रमण को नियंत्रित करना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन है।

ताजा आंकड़े देखिए। 22 अगस्त तक भारत में लगभग 69,651 मामले 24 घंटे में आये और कुल कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या अब 30 लाख तक पहुंच चुकी है। देश के कई राज्यों के शहरों में कोरोना वायरस संक्रमण से रिकवरी रेट औसतन 70 फीसदी है लेकिन आशंका यह है कि गांव में इस संक्रमण के प्रसार के बाद मौतों का आंकड़ा अप्रत्याशित रूप से बढ़ सकता है। उल्लेखनीय है कि कोरोना वायरस संक्रमण से होने वाली मौतों में कमी की सबसे बड़ी बजह अस्पताल का दुरुस्त होना है और जिन प्रदेशों में स्वास्थ्य व्यवस्था उमदा है वहां कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार और दशहत को रोकने में अभूतपूर्व सफलता मिली है। इस मामले में दिल्ली में केजरीवाल सरकार का उदाहरण अद्भुत है।

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कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर एक तथ्य यह भी महत्वपूर्ण है कि देश में लॉकडाउन के दौरान सरकारों ने राजनीतिक द्वेष और अपनी घृणा की मानसिकता की वजह से जिस एक खास कम्युनिटी ‘‘मरकज़ मुसलमान’’ को कोरोना संक्रमण की मुख्य वजह बताया था उसे बाम्बे हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया है। उस दौर को याद कीजिए जब कुछ गुन्डे पत्रकारों के वेश में चिल्लाचिल्ला कर मरकज़ को कोरोना वायरस संक्रमण का सोर्स बता रहे थे और उसकी वजह से समाज में नफ़रत और हिंसा का वातावरण तैयार हो गया था। अफवाह, झूठ और अन्धभक्ति के इस दौर में आम जनता से विवेकपूर्ण व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। जनता को इन्सान से हैवान बना देने वाली राजनीति नें समाज के ताने-बाने को तोड़ कर रख दिया है। व्यक्ति अपने इन्सानी गुणों को भूलकर जाहिल, गंवार अंधभक्त बन गया है जिसका लाभ निजी हित पूर्ति के लिए राजनीति करने वाले गिरोह उठा रहे हैं। वे धर्म, जाति, उन्माद, अफवाह, झूठ, नफरत आदि का प्रयोग और प्रसार कर इन महामारी के दौर में अपनी प्रशासनिक विफलता को छुपा रहे हैं।

हमें यह समझना होगा कि एक नागरिक के तौर पर हम अपने बुनियादी हक स्वास्थ्य, शिक्षा से जितना महरूम इस दौर में हुए हैं उतना और कभी नहीं हुए। विकास के नाम पर देश के अन्दर दो देश साफ तौर पर देखे जा रहे हैं। शिक्षित और अमीर तथा अनपढ़ और गरीब। देश के सार्वजनिक संसाधनों का दोहन कर चन्द अमीर घराने तथा कुछ महानगरों में सुविधाओं, अस्पतालों का विस्तार विकास किया जा रहा है जबकि 80 फीसदी लोगों के लिए मुकम्मल इलाज और सहज जीवनयापन एक दुःस्वपन बन गया है। इस भयानक दौर में देश के उन दुर्गम क्षेत्रों, पहाड़ी आबादी और वंचित समाज के लोगों की स्थिति की कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आजादी के 72 वर्ष बाद भी यदि आम भारतीय अपनी जाति व धर्म की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाया है तो हम क्या और कैसे उम्मीद करें कि देश में साजि‍शन उपेक्षित प्रदेशों की उपेक्षित आबादी के लोग इस कोरोना वायरस संक्रमण या अन्य घातक बीमारियों के चंगुल से खुद को बचा ले जाएंगे।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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