तन मन जन: कोरोना से बचे तो अब बर्ड फ्लू की दहशत!


कोरोना के कहर के बीच अब एक और फ्लू (बर्ड फ्लू) की चर्चा है। मीडिया ने सनसनी फैलाने की कमर कसी ही थी कि कोरोना वैक्सीन की शानदार लांच ने बर्ड फ्लू का कोरमा बना दिया। दिल्ली की मुर्गी मंडी में ‘लॉकडाउन’’ हुआ लेकिन एक दो दिन में ही उसे खोल दिया गया।

बर्ड फ्लू को लेकर कई चर्चाएं सरेबाजार आम हैं। एक तो यह कि 5जी दूरसंचार तकनीक पक्षियों की मौत की जिम्मेदार है, लेकिन इस खबर की पुष्टि के लिए कोई वैज्ञानिक शोधपत्र अथवा चिकित्सीय दावे सामने नहीं हैं। यह समय भारत में प्रवासी पक्षियों के आने का भी है। इन दिनों योरोप एवं एशिया के दूसरे देशों से लाखों पक्षी भारत के विभिन्न स्थानों पर आते हैं और दो से तीन महीने का प्रवास करते हैं। कुछ पर्यावरण वैज्ञानिक पक्षियों की मौत को पर्यावरणीय असंतुलन से भी जोड़ रहे हैं, मगर इसमें शक नहीं कि ‘‘बर्ड फ्लू’’ एक खतरनाक वायरस संक्रमण है जो पक्षियों से मनुष्यों में भी फैल सकता है।

बर्ड फ्लू से ही मिलता-जुलता एक और रोग है जिसे ‘‘एवियन बोटुलिज्म’’ कहा जाता है। भारतीय पशु चिकित्सा तथा अनुसंधान संस्थान (आईबीआरआई), बरेली ने 21 नवंबर 2019 को एक विज्ञप्ति में स्वीकार किया था कि तब राजस्थान के साम्भर झील में एवियन बोटुलिज्म से 18,000 पक्षियों की मौत हो गई थी। बोटुलिज्म एक प्राकृतिक जहर है जो क्लोस्ट्रीडियम बोटुलिज्म नामक बैक्टीरिया की वजह से उत्पन्न होता है। इस संक्रमण में पक्षियों की गर्दन लटक जाती है, पंख झड़ने लगते हैं और उनकी मौत हो जाती है। यह रोग ज्यादातर मांसाहारी पक्षियों में होता है।

बर्ड फ्लू भारत के लिए कोई नया रोग या संक्रमण नहीं है फिर भी हर साल इस मौसम में उसकी चर्चा चल निकलती है। वर्ष 2004, 2006, 2016 में भारत में बर्ड फ्लू की चर्चा थी। बड़े पैमाने पर मुर्गे-मुर्गियों को मारा भी गया था। महामारी जैसी स्थिति नहीं बनी थी फिर भी महामारी जैसी दहशत फैला दी गई थी और देश में व्यापार का अच्छा नुकसान हुआ था। सन् 2004 में जब बर्ड फ्लू फैला था तब अपने देश में ज्यादा ही अफरा-तफरी थी। देश ही नहीं पूरे महाद्वीप सहित लगभग दुनिया भर में हाय-तौबा मच गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) ने ‘‘रेड अलर्ट’’ जारी कर दिया था। इस रोग के आतंक की वजह से एशियाई देशों को 50 करोड़ डालर से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा था।

फ्लू वास्तव में एक तरह से श्वसन तंत्र का संक्रमण है। इस संक्रमण के लिए एन्फ्लूएन्जा वायरस का ए, बी तथा सी आदि टाइप जिम्मेवार होता है। इस संक्रमण में अचानक ठंड लगना, बदन दर्द, बुखार, मांसपेशियों में दर्द खांसी आदि लक्षण देखे जाते हैं। इसके कई प्रकार जैसे एच1एन1, एच2एन2, एच3एन2 आदि कई बार दुनिया में तबाही मचा चुके हैं। इन वायरस के कहर से 1918-19 में लगभग 50 करोड़ लोग चपेट में आए थे जिन में से 2 करोड़ लोगों की तो मौत हो चुकी थी। इसमें कोई 60 लाख लोग तो भारत में मरे थे। उस समय इसे ‘‘स्वाइन फ्लू’’ का नाम दिया गया था। अब इस वायरस ने अपनी संरचना बदल ली है।

वैज्ञानिकों की मानें तो इस नये फ्लू वायरस का प्रतिरोधी टीका बनाने में वक्त लगेगा। अब फ्लू वायरस ने अपनी संरचना बदल कर एच5एन1 कर ली है। जाहिर है वायरस के तेजी से बदलने से इसके बचाव के उपायों को शीघ्र ढूँढना भी आसान नहीं है। ये वायरस महज महामारी ही नहीं वैश्विक महामारी फैलाने की क्षमता रखते हैं। ये वायरस बहुत कम समय में 3 कि.मी. से 400 कि.मी. तक की दूरी तक पहुंच जाते हैं। ये सूअर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली, पालतु मुर्गे-मुर्गियों, पालतु पक्षियों आदि के माध्यम से संक्रमण फैला सकते हैं। एच तथा एन एन्टीजन के ये वायरस विशेष रूप से पालतू जानवरों को अपना वाहक बना लेते हैं। और फिर आदमियों में जाकर जानलेवा उत्पात मचाते हैं।

इधर एशियाई देशों में सार्स, बर्ड फ्लू, इबोला वायरस, एन्थ्रेक्स आदि रहस्यमय व नये घातक रोगों का आतंक कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। ये रोग महज बीमारी फैलाकर लोगों को मारते ही नहीं बल्कि वहां की अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। सन् 2003 में फैले ‘‘सार्स के आतंक’’ ने एशियाई देशों के कोई 30 अरब डालर का नुकसान पहुंचाया था। सन् 2004 में बर्ड फ्लू के आतंक ने थाइलैण्ड की अर्थव्यवस्था को धूल चटा दिया था, जबकि उस वर्ष बर्ड फ्लू के 17 मामलों में वहां 12 मृत्यु दर्ज हुई थी।

धीरे-धीरे भारत में भी मुर्गीपालन एक बड़े लघु उद्योग के रूप में उभर रहा है। ऐसे में बर्ड फ्लू का आतंक यहां कैसा कहर बरपा सकता है इसका अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वि.स्वा.सं. हालांकि दावा कर रहा है कि इस बर्ड फ्लू’ के टीके देर-सवेर बना लिए जाएंगे लेकिन वैज्ञानिक और विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे तैयार करने में अभी वक्त लगेगा। वि.स्वा.सं. से जुड़े वैज्ञानिकों की मानें तो ‘बर्ड फ्लू’ के वायरस की संरचना में तेजी से बदलाव के कारण इससे बचाव का टीका बनाने में दिक्कत आ रही है। तब वैज्ञानिकों की यह भी आशंका थी कि बर्ड फ्लू का वायरस सामान्य एन्फ्लूएन्जा से मिलकर कोई और नई जानलेवा बीमारी को भी जन्म दे सकता है। यह बीमारी इन्सानों को हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। अभी तक यह रोग मुर्गियों से दूसरे पक्षियों में ही हो रहा है लेकिन इसके मुर्गियों से आदमी में संक्रमण की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता।

फ्लू वायरस कितने खतरनाक होते हैं इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1918 में जब दुनिया भर में चार करोड़ लोग मौत के मुंह में चले गए थे। अकेले भारत में ही 60 लाख लोग मरे थे। संयुक्त राष्ट्र अमरीका के रोग नियंत्रण केन्द्र की रिपोर्ट बताती है कि वर्तमान स्वाइन फ्लू वायरस अमरीका के उत्तरी कैरोलीना प्रांत के औद्योगिक सुअर उत्पादन केन्द्र में एक दशक पूर्व पाए गए फ्लू वायरस प्रजाति से निकला है। यह अमरीका का सबसे बड़ा और सबसे घना सुअर उत्पादक प्रांत है। इस स्वाइन फ्लू से उत्पन्न वैश्विक संकट की तुलना दुनिया में जारी वैश्विक वित्तीय संकट से की जा रही है। कहा जा रहा है कि वित्तीय क्षेत्र की तरह की इस क्षेत्र में भी कुछ ही बड़ी कंपनियों का वर्चस्व है जो अपने मुनाफे के लिए पूरी दुनिया को संकट में डाल रही हैं। आधुनिक वित्तीय क्षेत्र की तरह आधुनिक खाद्य व्यापार भी बड़े पैमाने पर फैला है। मांस और जानवरों से बनने वाले खाद्य पदार्थों की दुनिया में मांग भी बढ़ी है। अमरीका-यूरोप सहित दुनिया भर के उपभोक्ता यह नहीं समझ पा रहे कि स्वाद और तत्काल सुविधा के लालच में वे कैसी मुसीबतों को न्योत रहे हैं।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद दुनिया में कुछ खास प्रकार की बीमारियों का जिक्र ज्यादा होने लगा है। भारत में अब कई ऐसे रोग अब मुख्य चर्चा में है लेकिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इसे बेहद खतरनाक बीमारी बताया गया है। यहां पहले से ही व्याप्त मलेरिया, कालाजार, टी.बी., डायरिया आदि के खतरनाक होते जाने की उतनी चर्चा नहीं होती जितनी इन अंतरराष्ट्रीय रोगों की हो रही है। एच.आई.वी./एड्स या हिपेटाइटिस-बी जैसे रोग ही देश के स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं जबकि इन रोगों का स्थायी उपचार अभी तक ढूंढा नहीं जा सका है। वैश्वीकरण के दौर की महामारियों को देखें तो इन रोगों के लक्षण और उपचार यों तो अलग-अलग हैं लेकिन एक बात सब में समान है। वह है- इनका अंतरराष्ट्रीय खौफ और प्रचार। कोई 13 वर्ष पूर्व जब गुजरात के सूरत में अचानक प्लेग का आतंक फैला था तब ऐसी अफरा-तफरी मची थी कि भारत का ‘मैनचेस्टर’ कहा जाने वाला ‘सूरत’ बेरौनक हो गया था। कोई चार लाख लोग (लगभग दो तिहाई आबादी) कुछ ही दिनों में सूरत छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। करोड़ों को कारोबार चैपट हो गया था।

‘सार्स’ ने चीन की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया था। बर्ड फ्लू ने थाइलैण्ड को हिलाया। वियतनाम तो वैसे ही मृतप्राय है। इराक, अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया सब कुछ न कुछ ‘रहस्यमय’ व ‘घातक’ बीमारियों की चपेट में हैं। समझा जाना चाहिए कि जब देशों की अर्थव्यवस्था वैश्विक हो रही तो वैश्विक महामारियों से भला कैसे बचे रहा जा सकता है। इससे उलट भारत में मलेरिया, टी.बी., कालाजार, दिमागी बुखार आदि ऐसे रोग हैं जिन्हें वैश्वीकरण के दौर में ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही जबकि इन रोगों से होने वाली इन्सानी मौतें लाखों में है। मलेरिया को ही लें तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश अफ्रीका में प्रति वर्ष 7 लाख बच्चे इसके चपेट में आते हैं, लेकिन एच.आई.वी. के दहशत ने वहां मलेरिया को नजरअन्दाज कर दिया है।

विगत कुछ वर्षों से पशुओं से इन्सानों में इस बीमारी के फैलने का मामला ज्यादा ही देखा जा रहा है। बर्ड फ्लू, सार्स, एन्थ्रेक्स, मैडकाऊ डिजीज, स्वाइन फ्लू ये सब ऐसे ही रोग हैं। आदमी इन रोगों से इतना आतंकित है कि वह आशंका होने पर लाखों की संख्या में इन जानवरों को मार कर नष्ट कर देता है। वैश्वीकरण के दौर में बढ़े औद्योगीकीरण की प्रक्रिया ने मनुष्य की जीवनशैली ही बदल दी है। पहले जहां पशुओं को खुले में रखने और पालने का प्रचलन था वह अब बिल्कुल बदल गया है। बाजारीकरण में पशुओं/पक्षियों को जीवन से इतर महज ‘‘खाद्य पदार्थ’’ के रूप में देखा जाता है। मसलन, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए पशुओं को क्रूरता से फैक्ट्री में तैयार किया जाता है। उन्हें कृत्रिम और रासायनिक आहार दिए जाते हैं। उनमें ज्यादा मांसवृद्धि के लिए हार्मोन आदि दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है।

अब सवाल है कि इन अंतरराष्ट्रीय रोगों का उपचार क्या है? जाहिर है इन रहस्यमय रोगों के रहस्यमयी उपचार का ‘‘सीक्रेट’’ दुनिया के चन्द शक्तिशाली दवा कम्पनियों के पास ही है और उनके पास इन दवाओं पर एकाधिकार भी है। इन कम्पनियों ने तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों के पेटेन्ट कानून को अपने फायदे के लिए बदलवा भी लिया है। पोलियो को ही देखें तो 10 हजार करोड़ों से भी ज्यादा रुपये खर्च कर हम पोलियो से भारत को मुक्त नहीं करा पाए हैं बल्कि पोलियो की स्थिति और खतरनाक होती जा रही है क्योंकि पोलियो के वायरस खतरनाक स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि पोलियो उन्मूलन का हम अंतरराष्ट्रीय फार्मूला ही प्रयोग कर रहे हैं। यह भी प्रश्न है कि इन ग्लोबल बीमारियों की सही दवा कैसे ढूंढी जाए? देश के कर्णधारों व योजनाकारों को यह समझना होगा। इन कथित रोगों की असली दवा तलाशनी होगी। अमीर देशों के हथकण्डे और ग्लोबल रोगों के आपसी रिश्ते को समझना होगा। जब तक रोग के सही कारण का पता नहीं लग जाता तब तक सही उपचार नहीं किया जा सकता। बर्ड फ्लू से डरने की बजाय उसका मुकाबला किया जाना चाहिए। यह जानलेवा रोग जरूर है लेकिन लाइलाज नहीं।

दुनिया में धीरे-धीरे कोरोना का असर कम हो रहा है तो कोरोना के नये स्ट्रेन की भयावहता को प्रचारित किया जा रहा है। इधर फिर से बर्ड फ्लू या एवियन फ्लू का खौफ भी खड़ा किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि भारत में अब तक 5 लाख से ज्यादा पक्षियों की मौत हो चुकी है। केन्द्रीय पशुपालन मंत्री गिरीराज सिंह ने अपने अन्दाज में बयान भी दे दिया है कि बर्ड फ्लू में विदेशी हाथ है। गिरीराज जी के बयान से साफ है कि जहां प्रवासी पक्षियों का आना जाना है वहां से बर्ड फ्लू की शिकायतें मिल रही हैं।

बहरहाल 1920 के स्पैनिश फ्लू के बाद 2020 में पूरी दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण और बर्ड फ्लू नाम की यह महामारी खासी चर्चित है और पूरी दुनिया के लिए एक सबक है। सबक यह भी कि स्वार्थ के लिए आदमी पर्यावरण की इतनी क्षति कर रहा है कि उसमें असंतुलन पैदा हो गया है। नये वायरसों के लिए पर्यावरणीय असंतुलन भी काफी हद तक जिम्मेवार है। क्या हम अब भी भविष्य की चिंता कर रहे हैं? क्या हमारी सोच में भविष्य की खुशहाली के सपने हैं? यदि बीमारी या महामारी की दवा के रूप में हम केवल वैक्सीन पर निर्भर हैं तो मैं विनम्रतापूर्वक यह बता देना चाहता हूं कि वैक्सीन तलाशते-बनाते रहिए। नयी महामारियां आती रहेंगी। तेज, खतरनाक और जानलेवा बल्कि उससे भी ज्यादा।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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