तन मन जन: कोरोनाकाल में कैंसर के उपेक्षित रोगी


कोरोनाकाल में सभी गम्भीर रोगों की हालत भीगी बिल्ली जैसी है। मरीजों यानी रोगियों की तो बात ही न करें। आज दुनिया में सबसे निरीह, बेबस और मजबूर अगर कोई है तो वह है मरीज। वह मरीज यदि भारत का है तो पूछिए ही मत। उसे सरकार, सरकारी फरमान और अस्पतालों के रहम-ओ-करम पर ही जीना है। और कोई चारा नहीं।

मार्च 2020 के बाद से अभी तक लगभग बीते छह महीने में सभी सामान्य व विशिष्ट तथा विशेषज्ञ अस्पताल ‘‘कोविड-19’’ के नाम पर या तो बन्द कर दिये गये या आरक्षित कर दिये गये। दुनिया में मानो आपातकाल की स्थिति आ गयी हो। डॉक्टरों से ज्यादा पुलिस पावर में आ गयी और कोरोना के नाम पर लोकतंत्र की खाल में छुपे तानाशाही भेड़िये काम पर लग गये। इस कोरोनाकाल में कितने अमीर रोगियों (दूसरी बीमारियों से ग्रस्त) की जिन्दगी तबाह हुई, इसका कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन वर्ष 2019 में अप्रैल से अक्टूबर के बीच विभिन्न गम्भीर रोगों से ग्रस्त लोगों की पड़ताल करें तो आज जितने कोरोना रोगी दुनिया भर में हैं उससे लगभग दोगुना ज्यादा आम मरीज अपनी बीमारी के मुकाबले इलाज न मिलने और उनके प्रति सरकारी बेरुखी से परेशान रहे। इस दौरान बड़ी संख्या में बीमारों की मौत भी हो गयी। इन मौतों में मानसिकता, मानवीय व्यवहार, लोकाचार व रस्म रिवाज सब मुंह ताकते रहे लेकिन एक कथित खौफ ने आम आदमी को पिद्दी बनाकर उसे उसी के घर में नजरबंद कर दिया।

Categorisation of patients with cancer with COVID-19 and treatments they received, The Lancet

इस लेख में मैं इस बार कैंसर रोगियों की हालत, उनकी तकलीफों तथा उनसे जुड़े कई मानवीय पहलुओं पर चर्चा करूंगा जो इस कोरोनाकाल में देखने को मिला। मैं एक 68 वर्षीया कैंसर रोगी की हकीकत बताता हूं। ये विगत 6 वर्षों से ब्रेस्ट कैंसर की मरीज हैं। दो-दो सर्जरी करा चुकी हैं। कीमोथेरेपी एवं रेडियोथेरेपी के कष्ट से इतनी परेशान थीं कि उन्होंने एलोपैथिक उपचार से दूरी बना ली। फिर वे अपने इलाज के लिए एक होमियोपैथ के पास गयीं। डेढ़ दो साल तक होमियोपैथिक दवा लेती रहीं। बीमारी नियंत्रण में रही, फिर अचानक जब कैंसर बढ़ने लगा तब भी उस वृद्ध महिला ने एलोपैथी में जाना स्वीकार नहीं किया। अब इस कोरोनाकाल में जब उनकी तकलीफ बहुत ज्यादा बढ़ गयी है और उन्हें रेडियेशन की जरूरत है तो विगत तीन महीने से उन्हें कोई समुचित अस्पताल नहीं मिल रहा जहां रेडिएशन दी जा सके। निजी अस्पताल में जाकर रेडिएशन करवाने की उस वृद्ध महिला की स्थिति नहीं थी।

ऐसे ही 67 वर्ष के एक और रोगी के पुत्र ने अपने पिता के पैर के घाव के गैंगरीन में बदल जाने के मामले में मुझसे चिकित्सीय मदद मांगी। मैंने फौरन ऑप्रेशन की सलाह दी, लेकिन मुझे बताया गया कि वह विगत एक महीने से अस्पताल और डॉक्टरों के बीच में ही भटक रहा है। दिल्ली के दो बड़े अस्पतालों ने उन्हें घर पर ही रखने की सलाह दी। वास्ता उनकी उम्र का और कोरोना महामारी का दिया गया है। मैंने मजबूरी में कुछ दवाएं दीं, लेकिन खबर मिली कि दवा लेने से पहले ही उनकी मौत हो गयी। कोरोनाकाल में अन्य बड़े रोगों से ग्रस्‍त लोगों की लगभग ऐसी ही कहानियां हैं, लेकिन न मीडिया, न जनसंगठन, न ही राजनीतिक दल इस पर अपनी आवाज उठा रहे हैं या कोई संवेदना दिखा रहे हैं। इस समय जनता अपनी लड़ाई खुद लड़ रही है। आजादी के सात दशकों में सम्भवतः ऐसी स्थिति पहली बार है।

भारत में कैंसर रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) के अनुसार प्रत्येक दस भारतीय में से एक अपने जीवन में कैंसर का सामना करेगा तथा प्रत्येक पन्द्रह (15) में से एक की मौत कैंसर से होगी। वर्ष 2020 में विश्व कैंसर दिवस (4 फरवरी) पर जारी एक विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में ये छह प्रकार के कैंसर, जैसे स्तन कैंसर (162,500 मामले), मुंह का कैंसर (120,000 मामले), गर्भाशय कैंसर (97,000 मामले), फेफड़ा कैंसर (68,000 मामले), पेट के कैंसर (57,000 मामले) तथा आंत व गुदा के कैंसर (57,000 मामले) सब मिलकर कैंसर के 49 फीसद मामले होते हैं, जो डरावना है। अनुमान है कि अगले कुछ वर्षों में भारत में सबसे ज्यादा कैंसर के रोगी होंगे। भारत में कैंसर की मुख्य वजह तम्बाकू को माना जाता था, लेकिन अब प्रदूषण इसकी मुख्य वजह बन गया है। प्रदूषण की वजह से फेफड़े, त्वचा एवं मस्तिष्क कैंसर के मामलों में वृद्धि चिंताजनक है। डब्लू.एच.ओ. कह रहा है कि अगले 20 वर्षों में कैंसर के मामले में 60 फीसद की वृद्धि होगी। इसमें भारत सहित दुनिया के देशों के मध्यम आय वर्ग के लोगों की तादाद ज्यादा होगी। मतलब साफ है कि गरीबी और बीमारी के रिश्ते में अब कैंसर एक ऐसे रोग की तरह शामिल है जिसे समुचित साधन व धन की मदद से नियंत्रित किया जा सकता है जो बढ़ती असमानता के देशों में सम्भव नहीं है।

कोरोनाकाल में कैंसर रोगियों की उपेक्षा ने न केवल कैंसर बल्कि अन्य भयावह रोगों की गिरफ्त में फंसे असहाय लोगों के ज़ख्म पर नमक छिड़कने का काम किया है। साथ ही अमानवीयता के उदाहरण भी पेश किए हैं। कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर भारत में जो सरकार की शुरूआती गतिविधियां रहीं उस पर गौर करें तो प्रशासनिक गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार, अमानवीयता, नफरत को बढ़ाने वाले सारे निर्णय विशुद्ध राजनीतिक थे। दुनिया के अन्य हिस्सों में जहां कोरोना वायरस संक्रमण की आड़ में ‘‘लॉकडाउन’’ किया गया था वहां की सरकारों की कोशिश थी कि नागरिकों की सुविधाओं का खयाल रखते हुए कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने की कोशिश की जाय, लेकिन भारत में यहां की सरकार अपने स्वार्थ के चलते जनता को अन्धविश्वास में अटका कर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करती रही। कैंसर अस्पतालों की ओपीडी रजिस्टर देख लें, हमें समझ में आएगा कि इस दौरान गम्भीर कैंसर रोगियों का भी अस्पताल आना जाना लगभग न के बराबर रहा। भारत में कुल कैंसर रोगियों में लगभग 60 फीसद रेडियोथेरेपी एवं कीमोथेरेपी पर निर्भर रहते हैं। ऐसे में नियमित उपचार न मिलने से कैंसर के लाखों गम्भीर रोगियों की स्थिति बदतर हो गयी और कई तो काल के गाल में समा गये।

कोरोनाकाल में कैंसर के बढ़ते खतरे को लेकर इकोनोमिस्ट इन्टेलिजेन्स यूनिट (ईआईयू) की एक हालिया रिपोर्ट बेहद चर्चित हुई है। वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध इस संस्था ने दस एशियाई देशों पर ‘‘कोरोनाकाल के दौरान कैंसर’’ पर एक अध्ययन किया जिसमें साफ तौर पर देखा गया है कि कोरोना वायरस की वजह से कैंसर का खतरा बहुत गम्भीर हो सकता है। अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार बदलती जीवनशैली ने कैंसर जैसे घातक रोग को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी है। आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, मलेशिया जैसे देश कैंसर से लड़ने के लिए लगभग अच्छी तरह से तैयार हैं, लेकिन भारत और फिलीपींस जैसे देश अब भी इस बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। इआईयू ने कैंसर को लेकर जो चेतावनी जारी की है उसमें इसे ‘‘मिनी सुनामी’’ का नाम दिया है। अध्ययन का निचोड़ है कि कोरोना वायरस के डर से कैंसर के रोगियों ने अस्पताल जाने से परहेज किया है। यहां तक कि अस्पतालों ने कोविड-19 मामलों को ठीक करने के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में कैंसर के इलाज में बेहद कोताही बरती है।

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रिपोर्ट में 45 संकेतकों का इस्तेमाल किया गया है। इसमें दस एशियाई देशों की तैयारियों को परखा गया और हर देश के लिए एक स्कोरकार्ड बनाया गया। जिस देश को 100 अंक के करीब मिले उसे बेहतर और जिसे सबसे कम मिले उसे चिंताजनक बताया गया है। भारत इसमें ‘‘चिन्ताजनक’’ देशों में है।

भारत में कैंसर के बढ़ते मामले इतने डरावने हैं फिर भी सरकार और स्वास्थ्य महकमे में इसको लेकर कोई बड़ी चिंता नहीं देखी गयी है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2019 के अनुसार देश में विगत वर्ष 6.5 करोड़ लोग एनसीडी क्लिीनिक (नान कम्यूनिकेबल डिजीज क्लिनिक) में स्क्रीनिंग के लिए पहुंचे थे। इनमें से लगभग  1.6 करोड़ लोगों को कॉमन कैंसर सहित मुंह में कैंसर, गर्भाशय कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर की बीमारी थी जबकि यह आंकड़ा वर्ष 2017 में मात्र 34,635 था। हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार वर्ष 2018 में कैंसर के सबसे ज्यादा मामले गुजरात से आये हैं जिनकी संख्या 72,169 है। इसके बाद कर्नाटक में 20,084 तथा महाराष्ट्र में 14,103 मरीज दर्ज किये गये थे। इन प्रदेशों के अलावा तेलंगाना तथा पश्चिम बंगाल में भी कैंसर के मरीजों के बढ़ने की बात की गयी थी। वर्ष 2018 में कैंसर से दुनिया में 96 लाख लोगों की मौत हो गयी थी। इसमें भारत की हिस्सेदारी 8.17 फीसद थी। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में कैंसर के 11.6 लाख मामले सामने आये थे। वर्ष 2016 तक भारत में स्तन कैंसर की घटनाओं में 39.1 फीसद वृद्धि हुई है। उल्लेखीय है कि यह भारत में महिलाओं में होने वाला सबसे आम कैंसर है।

अभी हाल ही में प्रदूषण की वजह से बढ़े कैंसर पर एक और रिपोर्ट आयी है। यह रिपोर्ट दिल्ली के राजीव गांधी कैंसर इन्स्टीच्यूट (आरजीसीआईआरसी) की है। संस्‍थान के निदेशक डॉ. विनीत तलवार कहते हैं कि विगत दो हफ्ते में दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में अचानक वायु प्रदूषण बढ़ा है। डब्लूएचओ के अनुसार अचानक बढ़ा यह वायु प्रदूषण बेहद खतरनाक है। वर्ष 2016 में मौलाना आज़ाद मेडिकल कालेज के सामुदायिक चिकित्सा विभाग द्वारा किये गये एक अध्ययन में 3019 व्यक्तियों को स्पाइरोमेट्री के माध्यम से देखा और जांचा गया। इनमें करीब 34.35 फीसद मरीजों के फेफड़े में दिक्कत पायी गयी। अध्ययन में कहा गया है कि वायु प्रदूषण फेफड़े की आन्तरिक परत को नुकसान पहुंचा रहा है। कोविड-19 के इस दौर में यह समस्या और ज्यादा बढ़ी है।

डॉ. तलवार का कहना है कि शुरूआत में फेफड़े के कैंसर को आम तौर पर फेफड़े का टी.बी. मानकर इलाज किया जाता है। इसमें बहुत रक्त बरबाद हो जाता है और इस दौरान मरीज का कैंसर खतरनाक स्थिति में पहुंच जाता है। अध्ययन में चेतावनी दी गयी है कि वैसे लोग जो नियमित धूम्रपान करते हैं और छाती में तकलीफ महसूस करते हैं उन्हें नियमित जांच करवाते रहना चाहिए। यह कैंसर का गम्भीर मामला है। आम तौर पर फेफड़े के कैंसर के मात्र 10 फीसद मरीज ही समय पर इलाज के लिए आ पाते हैं। इस मामले में 60-70 फीसद मरीज तो जब चिकित्सक के पास पहुंचते हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है।

हमारे देश में कैंसर उपचार के नाम पर मरीज को कंगाल बना देने का प्रचलन भी है। कैंसर के नाम पर लगभग मुफ्त में सरकारी सुविधा प्राप्त निजी अस्पताल बेहद महंगे हैं और मरीजों से मनमाना शुल्क वसूलते हैं। कैंसर उपचार की आधुनिक (एलोपैथी) चिकित्सा पद्धति भी स्पष्ट नहीं है कि उपचार की यह महंगी विधि वास्तव में कितनी कारगर है। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति जैसे आयुर्वेद, होमियोपैथी में भी कैंसर के उपचार के नाम पर गोरखधंधा ज्यादा है। फर्जी दावे के साथ अनेक देशी चिकित्सक मरीजों को बेवकूफ बनाते हैं और उनसे नाजायज धन वसूलते हैं। देशी चिकित्सा (आयुष पद्धति) में कैंसर के उपचार पर सघन व प्रामाणिक शोध की जरूरत है। होमियोपैथी में कुछ अध्ययनशील चिकित्सक हैं लेकिन उन्हें अनुसंधान और उच्च अध्ययन की न तो सुविधा है और न ही मान्यता।

इस दौर में जब कैंसर जैसे जानलेवा रोग और जटिल हो रहे हैं तब सस्ते और प्रमाणिक उपचार की जनता को जरूरत है। कोरोनाकाल में यदि हम कुछ ऐसा सोच सकें और सरकार पर दबाव बना सकें कि कैंसर उपचार को वह बाजार से छीनकर मुफ्त सरकारी सेवा में ले सके, तो कैंसर रोगियों का ज्यादा भला होगा।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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