संक्रमण काल: बदलती हुई दुनिया और उभरते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर जिरह


जनपथ पर जल्द ही प्रमोद रंजन का एक स्तम्भ शुरू हो रहा है जिसका नाम है ”संक्रमण काल”। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, कोरोना संक्रमण का यह दौर हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक जीवन और मानस के संक्रमण का भी दौर है। दोनों के रिश्ते को खंगालने की कोई गंभीर कोशिश हिन्दी में अब तक कम ही दिखती है। इस दिशा में कहें तो यह स्तम्भ एक तलाश है, एक जिरह है, एक अन्वेषण भी है।

हिंदी में अपने तरह के इस अनूठे कॉलम में यह बात देखने की रहेगी कि भविष्य की दुनिया किन तकनीकी और आर्थिक प्रक्रियाओं के बीच निर्मित हो रही है और किस प्रकार का एक नया सामाजिक, राजनीतिक (और साहित्यिक-सांस्कृतिक भी) परिदृश्य इस बीच आकार ले रहा है।

प्रमोद रंजन इससे पहले भी इस विषय पर जनपथ पर लिखते रहे हैं और उनके अनुवाद किए कई लेख यहाँ प्रकाशित हुए हैं। फारवर्ड प्रेस, दिल्ली के प्रबंध संपादक रहे प्रमोद रंजन असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक-प्रोफ़ेसर हैं।

प्रमोद रंजन के यहाँ प्रकाशित लेखों को नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ा जा सकता है।

एक महामारी का आविष्कार: इतालवी दार्शनिक जॉर्जो आगम्बेन का चर्चित ब्‍लॉग
बहुजन समाज के आईने में COVID-19 से बनती दुनिया और कार्यभारों का एक अध्ययन
COVID-19: सांख्यिकी, विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना पर एक जिरह
विद्यार्थियों के लिए एक शोकगीत
सच्ची रामायण और हिंदी का कुनबावाद: संदर्भ ललई सिंह यादव


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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