हर्फ़-ओ-हिकायत: नया बनारस बन रहा है, काशी का दम उखड़ रहा है!


बनारस एक नगर नहीं है, इस देश का प्रतीक है। 15 जुलाई को भारत के इस प्रतीक नगर में भारत-जापान की वर्षों से चली आ रही मित्रता के प्रतीक के तौर पर रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर का उद्घाटन हुआ। दशकों से ऐसे सभागार की यहां मांग थी। भारत को 1860 से हिन्दी भाषा के जरिये बांधने का काम करती रही नागरी प्रचारिणी सभा भी बनारस में ही है, जो बनारस की विद्वता और साहित्यिक परंपरा का प्रतीक है। इसकी भव्‍य इमारत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। बरसों पुराना ट्रस्‍ट का मुकदमा अब जाकर निपटा है, तो उम्‍मीद है कि‍ शायद इस दीवाली रंगाई-पुताई हो जाए।

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ये दो तस्‍वीरें हैं बनारस में हो रहे विकास के आर-पार की। कोई कहता है कि बनारस विकास कर रहा है, तो मैं दावे से कहता हूं कि वह बनारस को नहीं जानता है। बनारस के ऐतिहासिक प्रतीकों को आज संरक्षण की जरूरत है, लेकिन धार्मिक नगरी का सर्टिफिकेट देकर इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को हमेशा कमतर किया जाता रहा है। बीते तीन-चार साल में बाकायदे इन प्रतीकों का विध्‍वंस हुआ है विकास के नाम पर। इन्‍हीं में एक अहम प्रतीक है भारत माता का मंदिर, जिसका निर्माण 1924 में कराया गया था। बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने गणितीय सूत्रों के आधार पर इस मंदिर का निर्माण कराया था, जिस प्रक्रिया में दुर्गा प्रसाद खत्री की देखरेख में 25 शिल्पकार और 30 मजदूर लगे थे। इन सब के नाम मंदिर के एक कोने में लिखे हुए हैं। 450 पर्वत श्रृंखलाएं, चोटियां, मैदान, पठार, जलाशय, नदियां, महासागर सब के सब ऊंचाई और गहराई के साथ यहां उपस्थित हैं। भारत माता मंदिर का उद्घाटन महात्मा गांधी ने 25 अक्तूबर 1936 में किया था। अखंड भारत के इस मंदिर का बनारस में होना ही सारे समकालीन राजनीतिक नैरेटिव को खोलकर रख देता है, लेकिन अखंड भारत के नाम पर इसका सुंदरीकरण ही करा दिया जाता तो बनारस के इतिहास का बखान प्रधानमंत्री के मुख से समझ में आता।         

अखंड भारत के इस मंदिर का बनारस में होना ही सारे समकालीन राजनीतिक नैरेटिव को खोलकर रख देता है

मगध साम्राज्य को जीत कर अखंड भारत की नींव रखने वाले चाणक्य की सामरिक नीति का केन्द्र है बनारस और भक्तिकाल के संतों के तप से खींची भारत की चौहद्दी की तपोभूमि है बनारस। अफ़सोस, कि बनारस में न तो चाणक्य का कोई प्रतीक है न ही शंकराचार्य का। बस कहानियां हैं, जो जब किसी को याद आती हैं सुना देता है। जब जिसे जानने की जरूरत पड़ती है, खोज खाजकर पढ़ लेता है।  

बनारस को इस देश का प्रतीक कहने का सबसे पुरातन सिरा आदिकेशव मंदिर तक जाता है। राजघाट के पास इस मंदिर में भगवान विष्णु का आदिकेशव स्वरूप स्थापित है। भगवान शिव की काशी में वापसी के इस पहले प्रतीक का कोई पुरसाहाल नहीं है। आदिकेशव मंदिर का वर्तमान स्वरूप ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के दीवान माणो जी ने 1806 में निर्मित करवाया था। अंग्रेजों के समय में यह मंदिर क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मुगल राजपरिवार के दो शहजादे निर्वासित होकर शिवाला किले में अंग्रेजों के पेंशन पर रहते थे। यहीं भदैनी में मराठा पेशवा भी निर्वासन में रहते थे जिनके एक कर्मचारी की बेटी मणिकर्णिका रानी झांसी के तौर पर इतिहास प्रसिद्ध हैं। अवध के नवाब वजीर का निर्वासित परिवार भी बनारस में ही रहता था। अब अंग्रेजों की ये कौन सी नीति थी यह बता पाना तो संभव नहीं है लेकिन दो बड़े साम्राज्यों के परिजनों को निर्वासित तौर पर बनारस में रखना कोई आसान फैसला नहीं रहा होगा।

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बहरहाल, 4 जून को परेड ग्राउंड में अंग्रेजी सिपाहियों और देशी सिपाहियों की बीच गोलीबारी हुई। 5 जून को बनारस में मुगलों का चांद तारा लहराने लगा। अंग्रेज कलेक्टर और कमिश्नर जान बचाकर टकसाल घर में आकर इकट्ठा हो गए। सिगरा के गिरजाघर के पादरी मिर्जापुर भाग गए। बनारस पर अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था। क्रांतिकारियों ने आदिकेशव मंदिर से क्रांति की कमान संभाल ली थी। अगले ही दिन कर्नल नील अपनी सेना के साथ बनारस पहुंच जाता है और सबसे पहले आदिकेशव मंदिर को अपने कब्जे में ले लेता है। वरुणा और गंगा के संगम पर बना यह मंदिर 1863 तक अंग्रेजी सेना का क्वार्टर रहा। इस वजह से मंदिर का केवल पौराणिक नहीं, ऐतिहासिक महत्‍व भी है। यहां के पुजारियों ने पुरातत्व विभाग को इसे अपने संरक्षण में लेने के लिए 2008 में एक पत्र लिखा था, लेकिन कौन सा प्रतीक कब बनना है और कब बिगड़ना है यह तो राजनीति ही तय करती है।

अंग्रेजों के समय में यह मंदिर क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था

ऐसा ही एक प्रतीक है शिवाला किले के सामने तीन अंग्रेजों की कब्र और कबीरचौरा पर माधो सिंह का बगीचा, जिसे अब राधास्वामी सत्संग भवन के नाम से जाना जाता है। अंग्रेज मुगलों से बक्सर युद्ध जीत चुके थे और फैजाबाद संधि में अवध के हाथ से बनारस छिटक चुका था। 1781 में बनारस के राजा चेत सिंह और अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्‍स के बीच पैसों की लेनदेन का विवाद बढ गया और हेस्टिंग्‍स बनारस आ धमका।

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कबीरचौरा पर माधोसिंह के बाग में अंग्रेजी सेना ने तम्बू गाड़ दिये गए। शिवाला किले को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया, लेकिन बनारस के लोगों और राजा की सेना ने अंग्रेजी सेना को मार गिराया। अंग्रेजी सेना के मारे गए कैप्टन की कब्र आज भी वैसी ही शिवाला किले पर है, लेकिन मरम्मत के अभाव में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। किला भी जैसे-तैसे बचा हुआ है, लेकिन हमारी सरकार बनारस के प्रतिकार के इस प्रतीक को बचाने की इच्छा नहीं रखती है। हो सकता है कि सरकार को इसमें गर्व का बोध नहीं दिखता हो।

अंग्रेजी सेना के मारे गए कैप्टन की कब्र आज भी वैसी ही शिवाला किले पर है

काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास तो अब तक प्रतीक के तौर पर बरकरार है। 1560 के आसपास राजा मानसिंह के मार्गदर्शन में राजा टोडरमल के बेटे ने विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। 1780 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने राजा चेत सिंह के शासन में इसका जीर्णोद्धार कराया। 1831 में पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर के गुम्बद को सोने से मढ़वाकर इस धार्मिक प्रतीक का मान बढाया। अब केंद्र सरकार काशी कॉरिडोर धाम योजना के तहत विश्वनाथ मंदिर का शानदार सुंदरीकरण करा रही है और इसका नाम कागजों में बदलकर काशी विश्‍वनाथ धाम कर दिया गया है।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धाम का उद्घाटन करते हुए कहा था कि उन्‍होंने ‘भगवान शिव को मुक्‍त’ कर दिया है। विश्‍वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी परिसर के ठीक सामने बने ऊंचे मंच पर चढ़कर गंगा की ओर मुंह किए जब वह ये भाषण दे रहे थे, तो सरस्‍वती फाटक, नीलकंठ महादेव, लाहौरी टोला जैसे ऐतिहासिक स्‍थान और सैकड़ों विग्रह जमीन के नीचे दफनाये जा चुके थे और उनकी आंखों के सामने मिट्टी से पाटा एक खुला मैदान लहरा रहा था।

जहां यह मैदान है, वहाँ कभी गालियां थीं, मकान थे, मंदिर थे। सामने मोदी के मंच का ढांचा बन कर तैयार है। फोटो: अभिषेक श्रीवास्तव, 2019

मिट्टी की इस चादर को तब से ही विकास का सबब बताया जा रहा है। इसके नीचे सदियों से बसी एक सभ्‍यता दबा दी गयी है। पीढि़यों से इस सभ्‍यता के रखवाले, जिन्‍हें बनारस में घाटिया कहते हैं, शहर की चौहद्दी पर बनी गंदी बस्तियों में दम तोड़ रहे हैं। इस बनारस को बचाने के लिए धरोहर बचाओ आंदोलन शुरू हुआ था। वह इतिहास के पन्नों में फुट्नोट में दर्ज होकर रह गया। आंदोलन के चेहरे असमय सदमे से गुजर गए।

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बनारस में जो लोग बचे हैं उनके लिए बनारस में विकास तो हुआ ही है, लेकिन यह बनारस की कीमत पर हुआ है। विकास के बाद जो सामने बरामद होगा, वह चाहे जो भी हो लेकिन बनारस नहीं होगा।



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