कोरोना महामारी के बीच जब पूरा देश इससे तबाह हो गया है, बिहार की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां चुनाव की तैयारी में व्यस्त हो गयी हैं. इसका दूसरा दुखद पहलू यह है कि केन्द्र में मौजूद मोदी सरकार के साथ जिस रूप में राज्य सरकारों ने (केरल की सरकार को छोड़कर) जनता को अपने भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है, भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. चुनावी तैयारी के बीच विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग से मांग की है कि जब तक कोरोना से स्थिति बेहतर न हो तब तक राज्य में चुनाव न कराये. तेजस्वी ने तो आगे बढ़कर यह भी कहा है कि चुनाव टालने के लिए हो सके तो राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है.
तेजस्वी के इस बयान को एक सामान्य राजनीतिक प्रतिक्रिया के रूप में लिया जा सकता है क्योंकि बिहार में चुनाव नवम्बर में हो जाना है. चूंकि कोरोना के चलते राज्य के हालात बहुत खराब हैं इसलिए अगर चुनाव टाले जाएं तो संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति शासन लगाने की जरूरत होगी. इस लिहाज से इसे सामान्य राजनीतिक उलटफेर कहा जा सकता है, लेकिन अगर गहराई से सोचें तो इसमें एक नयी आशंका भी दिखायी दे रही है. इसका कारण यह है कि जब प्रतिपक्ष राष्ट्रपति शासन की मांग करने लगे तो यह कई तरह की शंकाओं को जन्म देता है.
पिछले कई महीनों से जिस रूप में प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल ने अकेले नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे लगता है कि बिहार की बदहाली के लिए सिर्फ और सिर्फ नीतीश जवाबदेह हैं जबकि पिछले 15 वर्षों में से 13 वर्षों तक जदयू ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलायी है. कहने के लिए तो यह भी कहा जा सकता है कि नीतीश के ग्राफ को नीचे ले जाने में खुद उनके अलावा नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही है लेकिन अगर इसी बात को उलट दिया जाए, तो यह भी कहा जा सकता है कि जिस रूप में तेजस्वी यादव राजनीति कर रहे हैं वह बीजेपी को अभयदान भी दे रहा है.
जब से महागठबंधन टूटा है, तेजस्वी यादव के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार रहे हैं. कायदे से विरोधी दल के नेता को सरकार की असफलता का ठीकरा जेडीयू-बीजेपी दोनों पर फोड़ना चाहिए था न कि सिर्फ नीतीश कुमार पर लेकिन तेजस्वी की पूरी रणनीति से ऐसा लगता है कि उनका एकमात्र दुश्मन नीतीश कुमार हैं, उन्हें बीजेपी या प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों से कोई परेशानी नहीं है. तेजस्वी के पिछले कुछ महीनों के ट्वीट पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि उन्होंने किसी भी ट्वीट में प्रधानमंत्री या बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को निशाने पर नहीं लिया है, जबकि हर एक ट्वीट में नीतीश कुमार निशाने पर हैं.
पिछले लगभग पंद्रह साल से बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चल रही है (कुछ महीने जीतनराम मांझी के कार्यकाल को हटा दिया जाए तो). इन पंद्रह वर्षों में डेढ़ साल को छोड़ दिया जाए तो लगभग तेरह वर्षों से स्वास्थ्य विभाग भारतीय जनता पार्टी के पास रहा है. पहले अश्विनी चौबे बिहार के स्वास्थ्य मंत्री थे और जब वह चुनाव जीतकर दिल्ली आ गये तो यह मंत्रालय बीजेपी के मंगल पांडे को मिला. बिहार में स्वास्थ्य विभाग का हाल जितना खराब है उससे ज्यादा खराब शायद ही किसी राज्य का हो, लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में भी मुख्य विपक्षी दल राजद ने एक बार भी बीजेपी का नाम लेकर उसकी नाकामी को चिन्हित नहीं किया है. हकीकत यही है कि बीजेपी व नीतीश कुमार की प्राथमिकता में स्वास्थ्य नहीं है, लेकिन राज्य में स्वास्थ्य की असफलता के लिए तेजस्वी कभी भी भाजपा को कठघरे में खड़ा करते नजर नहीं आते.
वैसे तकनीकी तौर पर बात करें तो कहा जा सकता है कि सरकार के मुखिया नीतीश कुमार हैं, इसलिए उन्हें ही जवाबदेह ठहरा देने से बात बन जाती है लेकिन गठबंधन की राजनीति में उस दल को पूरी तरह से छूट दे देना जो दल देश की सत्ता पर काबिज है, यह इतनी आसानी से पच नहीं पाता है.
विपक्ष, खासकर तेजस्वी यादव ने बिहार की राजनीति को पूरी तरह व्यक्ति केन्द्रित बना दिया है. वह बार-बार सिर्फ नीतीश कुमार पर निशाना साधते हैं जिससे बेशक नीतीश के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है लेकिन यही राजनीति एक नये समीकरण की तरफ भी इशारा करती है. हाल फिलहाल, खासकर कोरोना के बाद से अगर हम बिहार के अखबारों पर नजर डालें तो पता चलता है कि हर अखबार कोरोना में स्वास्थ्य सेवा के विफल हो जाने के लिए नीतीश कुमार को दोषी ठहरा रहा है. इसी तरह यदा-कदा जब बिहार की कोई स्टोरी तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों पर होती है तो वहां भी स्वास्थ्य सेवा में विफलता के लिए नीतीश कुमार को ही दोषी ठहराया जाता है. बची खुची रिपोर्टों में जिस रूप में तेजस्वी यादव को गंभीर विपक्षी नेता के रूप में तरजीह दी जा रही है, वह किसी ‘आशंका’ की ओर इशारा करता है.
कुछ अन्य अहम इशारों की तरफ ध्यान दें. पिछले कई महीनों से मीसा भारती को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पूछताछ के लिए नहीं बुला रहा है, राबड़ी देवी के खिलाफ सीबीआइ ने कोई समन नहीं जारी किया है, किसी बड़े चैनल या अखबार में लालू के खिलाफ कोई स्टोरी नहीं छप रही है, लालू-राबड़ी-मीसा भारती के ‘किये बड़े घोटाले’ तक की ‘तथ्यपरक रिपोर्ट’ नहीं छापी जा रही है- क्या यह कोई संकेत नहीं है? पिछले दिनों एक चर्चा काफी जोरों पर थी कि जनता दल युनाइटेड के कई सांसद- आरसीपी सिंह, ललन सिंह और हरिवंश नारायण सिंह सहित कई अन्य सांसदों के साथ- बीजेपी में शामिल हो सकते हैं! यह अब तक साफ नहीं हुआ है जबकि बिहार के बीजेपी इंचार्ज भूपेन्द्र यादव ने मई के अंत में इकॉनोमिक टाइम्स में यह कहा था कि नीतीश के साथ गठबंधन काफी मजबूत है. अगर मान लीजिए कि बिहार में चुनाव टाल दिया जाये (कोरोना की भयावहता को देखते हुए यह जरूरी भी लगता है) और राष्ट्रपति शासन के दौरान वहां चुनाव हो और बीजेपी, जेडीयू से अलग होकर चुनाव लड़े तो बिहार में क्या स्थिति होगी?
हो सकता है कि त्रिकोणीय या चतुर्कोणीय मुकाबले में बीजेपी विजेता भी हो जाये और अगर न हो तो चुनाव के बाद राजद या बीजेपी के गठबंधन की कोई संभावना बने, इस पर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यह भी हो सकता है कि चतुर्कोणीय मुकाबले में राजद ही विजेता बनकर उभरे. इस हालात में भी बीजेपी को खोने के लिए बहुत कुछ नहीं है क्योंकि मुख्य प्रतिपक्षी दल तो वही होगा!
इसी के मद्देनजर एक और आशंका की तरफ नजर डालना जरूरी है. लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान पिछले कुछ हफ्तों से नीतीश कुमार के खिलाफ लगभग विपक्षी दल की तरह हमलावर हैं. उन्होंने तो अपने कार्यकर्ताओं से विधानसभा के सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू करने को कहा है. हम इस बात को भली-भांति जानते हैं कि रामविलास पासवान बिना सत्ता के एक दिन भी जी नहीं सकते, फिर चिराग पासवान में यह विश्वास कौन भरता है कि वह गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ सकते हैं?
कुल मिलाकर बिहार की राजनीतिक परिस्थिति अलग दिख रही है. पूरा सवर्ण आज भी बीजेपी के साथ है, बीजेपी ने इतने वर्षों में पिछड़ों व दलितों के वोट बैंक में बड़ी सेंध भी लगायी है. चुनाव से पहले रणनीतिक तौर पर बीजेपी दबे स्वर में यह प्रचारित कर दे कि नित्यानंद राय मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो यादवों का बड़ा वोट वैंक बीजेपी में शिफ्ट हो जा सकता है. इसका एक कारण यह भी है कि वोटरों का एक बड़ा तबका अराजनैतिक भी हुआ है.
अगर राजद और बीजेपी के बीच सचमुच कुछ पक रहा है या चुनाव के बाद भी किसी तरह का गठबंधन होता है तो यह सामाजिक औऱ लोकतांत्रिक राजनीति की पिछले तीस वर्षों में सबसे बड़ी हार होगी और निजी तौर पर लालू यादव की सांप्रदायिकता व फिरकापरस्ती के खिलाफ एक नायक के रूप में बनी छवि भी टूटेगी. दुखद यह है कि आज के दौर में राजनीति करने वाले युवाओं को हर हाल में ‘मनी व मसल पावर’ चाहिए, आदर्श उनकी प्राथमिकता में होता ही नहीं है.