बीते 2 अक्टूबर को दिल्ली यूपी बॉर्डर पर किसान इकट्ठा हुए थे, लेकिन इस बार भारी पुलिसबल और बैरिकेडिंग के बावजूद तीन साल पहले जैसे किसी टकराव का कोई मंज़र नहीं था। यह प्रदर्शन तीन साल पहले किसानों पर हुए बर्बर पुलिसिया लाठीचार्ज की याद में आयोजित था। इस बार भी पुलिस और बैरिकेड उतनी ही मुस्तैदी से लगाये गये थे।
इस बार फ़्लाइओवर के नीचे का नज़ारा हालांकि बिल्कुल जुदा था। ट्रैफ़िक डायवर्ट करने से फ्लाइओवर के नीचे बनी खाली जगह पर हवन हो रहा था और मंत्रोच्चार की गूंज सुनायी दे रही थी। प्रदर्शनकारी श्रद्धाभाव से हवनकुंड के इर्द-गिर्द खड़े या उकड़ूं बैठे थे। नारों, भाषणों, विरोध-प्रदर्शनों की जगह हरी टोपियों के झुंड ऐसे दिख रहे थे जैसे कोई धार्मिक आयोजन चल रहा हो।
तीन साल पहले भी यही वो जगह थी जहां हज़ारों किसानों का हुजूम ट्रॉली, ट्रैक्टर, बुग्गियों और पैदल चल कर इकट्ठा हुआ था। तब खेती-किसानी पर स्वामिनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की मांग को लेकर किसानों ने दिल्ली के राजघाट पर प्रदर्शन करने का आह्वान किया था, लेकिन भारी बैरिकेडिंग और पुलिसबल ने उन्हें यहीं रोक लिया था।
वे जाने पर आमादा थे। टकराव बढ़ा और पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। कई किसानों के सिर फूटे, गंभीर चोटें आयीं और दर्जनों घायल हुए। उस समय दर्जन भर पुलिसवालों पर अकेले लाठी चलाते एक बुज़ुर्ग किसान की तस्वीर काफ़ी वायरल हुई थी। ये तस्वीरें आज भी ज़ेहन में ताज़ा हैं।
किसान संगठनों ने उसी समय इस जगह का नामकरण कर दिया था- किसान क्रांति गेट।
बीते 14 सितम्बर को कृषि अध्यादेशों के ख़िलाफ़ इसी गेट पर भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेतृत्व में किसान इकट्ठा हुए थे। उस दौरान भी यह जगह एक शांतिपूर्ण धरनास्थल में तब्दील हो गयी थी।
प्रधानमंत्री जिसे क्रांतिकारी क़ानून कहते हैं, उस विनाशकारी कृषि बिल के पास होने के बावजूद इस साल यहां पानी की बौछार, लाठी की मार, आंसूगैस के गोलों की जगह हवन का धुआं हवा में उठ रहा है।
भाकियू (टिकैत) ने “सरकार सद्बुद्धि यज्ञ” का आयोजन किया था। पिछली बार की बुग्गियों और देहात के लोगों की जगह इस बार लक्ज़री गाड़ियों और सफ़ेद कुर्ताधारियों ने ले ली थी।
याद आता है कि तीन साल पहले हुई पुलिसिया ज़्यादती पर किसानों में भारी आक्रोश था। अनुमान लगाया जा रहा था कि मोदी और योगी सरकार के लिए यह घटना काउंटडाउन की शुरुआत होगी, लेकिन इसके एक साल बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने जीत का रिकॉर्ड बनाया।
असल में किसान आंदोलन के केंद्र में आम तौर से धनी किसान और उनके हित ही मुखर होते हैं। इस तबके में माना जा सकता है कि आरएसएस और बीजेपी की पैठ गहरी है। इसलिए इनकी नाराजगी भी ‘अपनों की नाराज़गी’ जैसा ही असर रखती है। ठीक वैसे ही, जैसा बेरोज़गार नौजवानों के ट्विटर आंदोलन को पत्रकार रवीश कुमार ने सरकार की ‘भक्ति’ का नाम दिया था।
कृषि अध्यादेशों के ख़िलाफ़ 250 किसान संगठनों द्वारा बीते 25 सितम्बर को बुलाये गये भारत बंद के दौरान मोदीनगर तहसील पर रास्ता जाम किये किसानों से जब मैंने पूछा, ‘’योगी सरकार से आप खुश हैं?’’ अधिकांश का जवाब था, ‘’गोकशी पर प्रतिबंध लगाकर योगी जी ने बहुत अच्छा काम किया है।‘’
इन धनी किसानों को योगी जी से बस इतना गिला था कि अब उनके ट्यूबवेलों पर बिजली के प्राइवेट मीटर लगाये जा रहे हैं और आने वाले समय में मीटर के हिसाब से और ऊंची दरों पर बिजली का बिल भरना पड़ेगा। मेरे ये समझाने का उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा कि गोकशी बंद होने से आवारा पशुओं की समस्या बढ़ गयी है और उनको बेचने से किसानों को मिलने वाली आमदनी भी चली गयी है, जो खाद, बीज आदि के काम आती थी।
बीते लोकसभा चुनावों के पहले उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं की समस्या एक बड़ा मुद्दा बन गयी थी। आवारा पशुओं को लेकर झगड़े और यहां तक कि हत्याओं की भी ख़बरें आयीं। किसानों को रात-रात भर जागकर अपनी फसल की रखवाली करनी पड़ रही थी। किसान बहुत नाराज़ थे। कुछ विद्वानों को लगा कि किसानों की यह नाराज़गी लोकसभा चुनावों में कुछ गुल खिलाएगी, लेकिन जब मैंने किसानों से पूछा कि ‘’क्या गोकशी पर प्रतिबंध को हटा लिया जाना चाहिए?’’ सबका जवाब एक स्वर में था- ‘ना’!
अब भी कृषि बिल पर तमाम किसान संगठनों की प्रमुख मांग यही है कि क़ानून में एमएसपी को शामिल कर लिया जाए। सरकारी खरीद को और मज़बूत किया जाए। अगर मोदी सरकार उनकी इस इकलौती मांग को मान लेती है तो इन आंदोलित किसानों की क्या प्रतिक्रिया होगी, उसे आसानी से समझा जा सकता है।
किसानों को अभी इस बात का अंदाज़ा ही नहीं है कि उनके ऊपर कितनी बड़ी विपत्ति आ चुकी है। अगर सरकार को एमएसपी और सरकारी मंडी को बनाये ही रखना होता, तो वह निजी कंपनियों और आढ़तियों को मंडी के बाहर खरीद की छूट क्यों देती? अनाज की जमाखोरी से प्रतिबंध क्यों हटाती? ठेका खेती की इजाज़त क्यों देती?
भारतीय किसानों के सामने जितनी बड़ी मुसीबत खड़ी है, उनकी वैचारिक तैयारी उतनी ही कमज़ोर है। वे साम्प्रदायिकता और जातिवादी नफ़रत को अपने बर्चस्व का आधार मानते आये हैं। खेतिहर मज़दूरों, दलितों, भूमिहीन किसानों की समस्या इस पांत में बहुत पीछे छूट गयी है।
जिस सांस्कृतिक ज़मीन पर खड़े होकर किसान आंदोलन मुकाबला करना चाहता है, वहां मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान का राज है। उस ज़मीन से कोई मुकाबला खड़ा नहीं हो सकता, जिस ज़मीन पर वे खुद खड़े हैं।
इसीलिए मोदी इन सबके इनसाइडर हैं क्योंकि ऐसा प्रेम किसी इनसाइडर के लिए ही हो सकता है। उनकी कुछ करतूतें ग़लत हैं, लेकिन उन्हें भरमा दिया गया लगता है। और भरमाये गये व्यक्ति से शाम को घर लौट आने की उम्मीद ज्यादा होती है।
इस मौजू पर अमीर मीनाई का एक शे’र याद आता है-
वो बेदर्दी से सर काटें ‘अमीर’ और मैं कहूँ उनसे हुज़ूर! आहिस्ता आहिस्ता, जनाब! आहिस्ता आहिस्ता।