साल भर हुआ होगा, जब कोयला आधारित ताप बिजलीघरों पर पंचतत्व में लिखा गया था। समस्या यह थी कि कोयला आधारित ताप बिजलीघर पानी को सोख्ते की तरह पीते हैं। सरकार ने पिछले कुछ बरसों में 1,17,500 मेगावाट शक्ति के ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दी थी, गैर-सरकारी संगठन प्रयास का आकलन है कि इसमें करीबन 460 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा। यह इतना पानी है कि पूरे मध्य प्रदेश की आबादी के पानी की साल भर की जरूरते पूरी हो सकती हैं।
पर्यावरणविदों के साथ परामर्श के बाद सरकार ने कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को कहा है कि वे नयी तकनीक अपनाएं, हालांकि इस नयी तकनीक में भी एक मेगावाट बिजली उत्पादन करने के लिए दो से तीन क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है। फिर भी, सरकार ने पानी की खपत के मानदंड लागू कर दिए।
यह मानदंड लागू हुए छह साल गुजर गए और कोयला आधारित तापबिजली उद्योग पानी के नियमों की अनदेखी करता चला आ रहा है। इस बारे में सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवॉयर्नमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट आयी है। ‘वॉटर इनएफिशिएंट पावर‘ में कहा गया है कोयला आधारित तापबिजली उद्योग हिंदुस्तान में सबसे अधिक पानी खर्च वाले उद्योगों में एक है और यह उद्योग देश के सभी उद्योगों के खर्च किए जा रहे कुल मीठे पानी की निकासी का लगभग 70 फीसद हिस्सा पी जाता है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कोयला ताप बिजलीघर दुनिया के बाकी हिस्सों के बिजलीघरों के मुकाबले दोगुना पानी खर्च करते हैं।
सरकार ने 2015 में इसके लिए मानदंड स्थापित किए थे जो 2018 में फिर से संशोधित किए गए। इसके मुताबिक 1 जनवरी, 2017 से पहले स्थापित संयंत्रों को प्रति मेगावाट 3।5 क्यूबिक मीटर पानी की एक विशिष्ट खपत सीमा को पूरा करना जरूरी था और 1 जनवरी, 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों को शून्य तरल निर्वहन अपनाने के अलावा, प्रति मेगावाट तीन क्यूबिक मीटर पानी के मानदंड को पूरा करना था।
इसके अतिरिक्त सभी मीठे पानी आधारित संयंत्रों को कूलिंग टावर्स स्थापित करने और बाद में प्रति मेगावाट 3।5 क्यूबिक मीटर पानी के मानदंड को प्राप्त करने की आवश्यकता थी। सभी समुद्री जल आधारित संयंत्रों को मानदंडों को पूरा करने से छूट दी गयी थी।
इस संदर्भ में सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पानी के मानदंडों को पूरा करने की समय सीमा दिसंबर 2017 थी जो पहले ही बीत चुकी है। कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के लिए जल मानदंड 2015 में उत्सर्जन मानदंडों के साथ पेश किए गए थे, हालांकि 2017 में एक बार और हाल ही में 2021 में कोयला मंत्रालय द्वारा क्षेत्र के लिए उत्सर्जन मानदंडों की समयसीमा को दो बार संशोधित किया गया, लेकिन इन मानदंडों के पालन को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।
पूरी रिपोर्ट नीचे पढ़ें:
water-inefficient-powerसीएसई ने कुल कोयला आधारित बिजली उत्पादन क्षमता के 154 गीगावाट से अधिक का सर्वेक्षण किया है और पाया कि मीठे पानी पर आधारित लगभग 50 प्रतिशत संयंत्र अनुपालन नहीं कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर प्लांट सरकारी कंपनियों के हैं। असल में, भारत के कई सारे ताप बिजलीघर, जो 1999 से पहले के हैं वह पुराने हैं और उनसे काफी प्रदूषण फैलता है।
सीएसई के अनुमानों के अनुसार भारत में मौजूदा कोयला आधारित बिजली उत्पादन इकाइयों का लगभग 48 फीसद महाराष्ट्र के नागपुर और चंद्रपुर जैसे पानी की कमी वाले जिलों में स्थित है। कर्नाटक में रायचूर हो; छत्तीसगढ़ में कोरबा; राजस्थान में बाड़मेर और बारां; तेलंगाना में खम्मम और कोठागुडेम; और तमिलनाडु में कुड्डालोर, यहीं पर पानी की कमी भी है और ताप बिजलीघर भी। और जाहिर है, इन उद्योगों और स्थानीय लोगों के बीच पानी के उपयोग को लेकर संघर्ष की खबरें आती रहती हैं।
वैसे, एक स्थिति के बारे सोच कर देखिए- जो एक मेगावाट बिजली विदर्भ में मीठे पानी को खर्च करके (करीबन तीन क्यूबिक मीटर) बनती है, वो बिजली पंजाब में 120 मीटर की गहराई में मौजूद भूजल को ऊपर खींचने में खर्च होती है।
आप बिजली से पानी पीजिए, बिजली आपका पानी पिएगी।