कई दफा अच्छी बात कहने के लिए उसके कहन का तरीका भी अच्छा होना चाहिए। ‘पंचतत्व’ में फिल्म समीक्षा नहीं लिखी जा रही है, पर चर्चा फिल्म ‘शेरनी’ की ही है। शेरनी, न्यूटन बनाने वाले निर्देशक अमित मसूरकर की फिल्म है पर यह डॉक्युमेंट्री और फीचर के बीच की चीज है। डॉक्यु-ड्रामा सरीखा कुछ-कुछ, पर मामला ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ वाला होकर रह गया है।
फिल्म में अच्छा कहे जाने लायक सारा मसाला है। विद्या बालन, जो सामान्यतया गहराई से अभिनय करती हैं, पर शेरनी में वह बुझी-बुझी सी लगी हैं। बृजेंद्र काला, जिन्होंने अपनी स्क्रीन प्रेजेंस को दोहराया है पर उनके लिए जितना लिखा गया है, वह अपने किरदार में सटीक हैं (काला जैसे किरदार को लेखक ने तवज्जो नहीं दी है)। विजय राज, जिनकी रेंज कमाल की है, वह टुकड़ों में अच्छे दिखे भी हैं।
और विषय, जिसकी वजह से यहां उसकी चर्चा कर पा रहा हूं- वह है वन्य जीव बनाम इंसानों का संघर्ष। शुक्रवार को ही बिहार से खबर आयी कि वहां बेतिया के पास एक बाघ ने घास काटने गये एक नौजवान पर हमला करके उसे मार डाला।
फिल्म शेरनी में कुछ कमजोरियां ऐसी हैं जिसकी वजह से विषय पर रहते हुए भी फिल्म बांधकर रख नहीं पाती। कहन का तरीका, शिल्प में बिखराव और लंबे-लंबे सीक्वेंस इस फिल्म का धागा कमजोर कर देते हैं। फिल्म का संपादन औसत से खराब है। फिल्म माध्यम की एक जरूरत होती है उसमें क्लाइमेक्स का होना। शेरनी का क्लाइमेक्स अवरोह पैदा नहीं करता।
फिर भी एक ऐसी चीज है जिसकी वजह से मैंने पूरी फिल्म देख ली- वह है इसका ऑथेंटिक लोकेशन। फिल्म की हरियाली और पहले न देखे गये जंगल कमाल के हैं और उस जंगल को समेट कर विभिन्न कोणों से दिखाने के लिए सिनेमटोग्राफर की तारीफ की जानी चाहिए।
कई जगह फिल्म जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन सरीखी लगने लगती है। बेशक फिल्म की कहानी टी2 नामक बाघिन पर है, पर फिल्म में आगे चलकर कई विषयों को एक साथ साधने की तनी रस्सी पर चलना निर्देशक के लिए भारी पड़ा है। दर्शकों के लिए भी।
मसलन, एक डीएफओ की सास का उस पर गहने पहनने का दबाव बनाना, पिंटू भैया बने शरद सक्सेना जो विलेन की तरह बरताव करते हैं, दो राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच मुद्दे की छीना-झपटी, ये सारे सीक्वेंस सतही लगते हैं।
पूरी फिल्म में जब यह कथासूत्र उजागर हो जाता है कि डीएफओ जंगल बचाने की मुहिम में है, तो मुझे लगा था कि पुलिस बनाम वनरक्षकों की तकरार का एक अध्याय होगा और उसी के तहत शेरनी के शिकार की कहानी बुनी जाएगी। वनरक्षकों के पास हथियार नहीं होते, फिर वे कैसे निबटते हैं शिकारियों से, इसको निर्देशक और कहानीकार एकदम भूल गये हैं। बेशक, पर्यावरण बनाम विकास का मुद्दा उठाया गया है, पर निर्देशक कई सारे मुद्दे को एकसाथ मिलाकर देखने की कोशिश में हैं, जो समझाने के लिहाज से बेशक ठीक है।
फिर भी, फिल्म को झालमुड़ी नहीं बनाना चाहिए था।
निर्देशक ने कुछ किरदारों के साथ न्याय नहीं किया है, जैसे शरत सक्सेना को सतही बनाया गया है और अफसर नीरज काबी को तो खिलने का मौका दिये बगैर सीधे विलेन ही घोषित कर दिया गया।
असल में, शेरनी ने एक अच्छे विषय के साथ वही कर दिया है जैसा पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर हमारे अफसरान कर गुजरते हैं। मानव-जीव संघर्ष की गहराई को उकेरने के लिए हमें बेशक ‘कड़वी हवा’ जैसी फिल्म का रुख करना चाहिए, जो कई परतों में समस्या को उघाड़ती है।
शेरनी ने बिला शक, अच्छे-भले मुद्दे को ज़ाया कर दिया है।
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