समाज में ये बहस हमेशा से होती आयी है कि फ़िल्में समाज में हो रही घटनाओं से प्रेरित होकर बनती हैं या फिल्मों को देखकर समाज बदलता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। ये बहस होती आयी है और होती रहेगी क्योंकि फ़िल्मों के विषय भी कोई समाज से अलग नहीं होते और हाल के वर्षों में वास्तविक कहानियों, लोगों के बीच की कहानियों और हमारे आसपास के लोगों जैसे व्यवहार करने वाले पात्र फिल्मों के हीरो बन रहे हैं और ऐसी फ़िल्मों की अगर समाज नकल भी करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।
इसके बावजूद अब भी बहुत से विषय ऐसे हैं जो बॉलीवुड के लिए अछूते हैं, जिन पर फिल्म बनाने की हिम्मत अब भी कम निर्देशकों में है और जो फ़िल्मों के बाजार में फिट नहीं बैठते। इन्हीं सब के बीच कुछ निर्देशक हिम्मत दिखाते हैं और पान सिंह तोमर जैसी सच्ची कहानियां और न्यूटन व आँखों देखी जैसे वास्तविक विषयों और सवालों पर फ़िल्म बनाने की हिम्मत करते हैं। ऐसे ही फ़िल्मों के हिसाब से दुर्लभ विषय पर बनी एक फिल्म आयी है शेरनी, जिसे डिजिटल प्लेटफॉर्म अमेज़न पर रिलीज़ किया गया है।
फिल्म में वैसे तो मुख्य भूमिका में विद्या बालन हैं, लेकिन इस फ़िल्म का नायक, नायिका और खलनायक सब उसका विषय ही है। फिल्म में विद्या बालन के अलावा तलवार और शिप ऑफ़ थीसियस में शानदार भूमिका निभा चुके नीरज कबी हैं। इसके अलावा आपको पान सिंह तोमर का इंटरव्यू लेते पत्रकार याद होगा- ब्रजेंद्र काला। फिल्म में कलाकारों और उनकी अभिनय पर बात करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण कहानी पर बात करना है।
फ़िल्म देखते वक़्त किसी की एक्टिंग कहानी के आगे बढ़ने में बाधा नहीं बनती है, न ही इस ओर ध्यान ही जाता है। कहानी की पृष्ठभूमि मध्य प्रदेश का एक जंगल है जहां एक शेरनी जंगल के पास वाले गांव के पास आ जाती है और वह आदमखोर हो चुकी है। उसके बाद जंगल की सुरक्षा में लगे अधिकारी-कर्मचारी शेरनी से गांव वालों को बचाने और शेरनी को जंगल के क्षेत्र में सुरक्षित वापस भेजने के लिए प्रयास करते हैं।
इसी प्रयास के इर्द गिर्द चलती है इस फ़िल्म की कहानी और इसके बीच स्थानीय राजनीति, अफ़सरशाही, प्रशासनिक नाकामी, पर्यावरण का दोहन और अवैध शिकार जैसे खलनायक शेरनी को बचाने का प्रयास करती फ़िल्म की ‘शेरनी’ विद्या बालन को बार-बार रोकते हैं और अंत में इसमें सफल भी हो जाते हैं।
शेरनी के आदमखोर हो जाने और गाँव की ओर आ जाने से वन विभाग गांव वालों को जंगल में अपने मवेशी न चराने को कहते हैं, लेकिन कोई चरागाह ना होने के कारण उन्हें मजबूरन जंगल में जाना पड़ता है और मवेशियों के साथ अपनी भी जान गंवानी पड़ती है। इन सब के बीच यह एक राजनीतिक और चुनावी मुद्दा बन जाता है। कोई गांव वालों को मुफ़्त में चारा देने और शेरनी को मारकर उससे बचाने का वादा करता है तो कोई सत्ता में वापस आने के लिए गाँव वालों को भड़काता है। बड़े अफसरों को शेरनी को बचाने की कोई फ़िक्र नहीं और उससे छुटकारा पाने के लिए प्राइवेट शिकारी को बुलाया जाता है जिसे शेरों को मारकर अपनी ‘वीरता’ के क़िस्सों का नम्बर बढ़ाने का शौक है।
इसमें मीडिया भी पीछे नहीं रहता और इस मुद्दे को भुनाने के लिए दौड़ता भागता है और शेरनी को हत्यारिन साबित कर देता है। शेरनी के भोजन की समस्या, जंगलों के घटते क्षेत्रफल, बिगड़ता पारिस्थितिकी तंत्र और उसके दोहन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इन्हीं समस्याओं को उजागर करने और ये सवाल करने के लिए ही बनायी गयी है यह फ़िल्म।
विद्या बालन इन समस्याओं के बीच एक उम्मीद के तौर पर खड़ी होती हैं, लेकिन इतने सत्तालोलुप और शोषणकारी संस्थानों से अकेले लड़ नहीं पातीं और हार जाती हैं। फिल्म के आखिरी समय में प्राइवेट शिकारी द्वारा शेरनी की हत्या के बाद गुफा में छिपे उसके बच्चों का दृश्य भावुक कर जाता है। बाक़ी बातें आप फिल्म देखकर ख़ुद ही जानेंगे।
मैंने फिल्म देखकर खत्म करने के बाद तुरंत दूसरी बार देखना शुरू कर दिया और सोचता रहा कि ऐसे कितने विषय हैं जिन पर सोचा ही नहीं जाता, फ़िल्म बनने की बात तो दूर है। ऐसी ज़रूरी फ़िल्म बनाने के लिए अमित मासुरकर को धन्यवाद और उन्हें भविष्य में ऐसी तमाम फिल्में बनाने की हिम्मत मिले और फिल्म इंडस्ट्री में और लोग ऐसे ज़रूरी विषयों के साथ आगे आएं तो कई ज़रूरी प्रश्नों पर चर्चा शुरू होगी।