पंचतत्व: अब भी दस साल का वक्त है, संभल जाइए वरना जीते जी प्यासा मरना पड़ सकता है!


पिछले साल की बात है जब मैंने अपने एक पत्रकार मित्र से कहा था कि बारहमासी नदियों में पानी कम हो रहा है. उन्होंने तपाक से कहा था-  हां, गरमियों में नदियां सूख जाती हैं.

नहीं. समस्या इतनी सतही नहीं है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से बिला शक दुनिया गरम होती जा रही है. हाल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक बड़ी नदियों के बेसिन में पानी की मात्रा घटती जा रही है. शोध के मुताबिक हिमालय की नदी घाटियों में पानी की कमी अब स्पष्ट दिखने लगी है. दूसरी ओर नए मिजाज वाले नए जमाने के हम लोग सोख्ते की तरह सारा पानी पी जा रहे हैं.

जाहिर है, इसे एक चेतावनी के तौर पर लेना चाहिए. आने वाले वक्त में जल सुरक्षा को लेकर हमारी चिंताएं गहरानी चाहिए क्योंकि यह जल उपलब्धता पर गहरा असर डालने वाली बात है.

जल उपलब्धता इस बात पर निर्भर करती है कि कितना पानी सतह पर या भूमिगत रूप से भंडारित होता है. इनमें जलाशय, नदियां और भूमिगत जल शामिल हैं ही, साथ ही मिट्टी में मौजूद नमी, बर्फ और हिम भी शामिल हैं. जलग्रहण की इस गतिविधि को ही जल भंडार का रिचार्ज होना कहते हैं.

बढ़ते तापमान का मतलब है कि वाष्पीकरण के जरिये अधिक पानी का नुकसान हो रहा है और पौधे भी इसलिए अधिक से अधिक पानी अवशोषित कर रहे हैं. साथ ही, मौसमी पैटर्न में आए बदलाव से नदी घाटियों के हिस्से में कम पानी आ रहा है. भारत में औसतन मूसलाधार बरसात के दिनों की संख्या बढ़ गई है इसलिए पानी मिट्टी में ज्यादा देर रुकता नहीं और बहकर निकल जाता है. इससे बेसिनों में जलस्तर कम होता है. यह पैटर्न आने वाले समय में बढ़ेगा ही.

भारतीय विज्ञान संस्थान और ऑस्ट्रेलिया के यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के वैज्ञानिकों ने यह बात अपने शोध में कही है. इसके लिए उन्होंने 31 नदी घाटियों का अध्ययन किया है. इस अध्ययन के मुताबिक, इन 31 नदी बेसिनों में से 23 में तापमान बढ़ने के साथ जलभंडार के रिचार्ज में कमी दर्ज की गई है.

उनकी गणना के मुताबिक, तापमान में हर एक डिग्री की बढ़त के साथ इरावदी बेसिन में जलभंडार का रिचार्ज 39 फीसद, सिंधु बेसिन में 24 फीसद, मेकांग में 15 फीसद और गंगा-ब्रह्मपुत्र में 14 फीसद कम हो रहा है.

जलभंडार के रिचार्ज होने पर तापमान के असर का आकलन करने के वास्ते शोधकर्ताओं ने उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर टेरेस्ट्रियल वॉटर रिचार्ज (टीडब्ल्यूआर) पर काम किया. इसका मतलब है कि उन्होंने जल की उस मात्रा को मापने की कोशिश की जो सालाना तौर पर सतही और उपसतही भंडारों में जमा होती है.

इस अध्ययन में अप्रैल, 2002 से जनवरी, 2017 के बीच के आंकड़े लिए गए हैं और इसकी तुलना हर बेसिन में सापेक्ष रिचार्ज और सालाना तापमान के साथ की गयी है.

इंडिया क्लाइमेट डायलॉग में प्रकाशित इस शोध के ब्योरे में कहा गया है कि यह ट्रेंड दक्षिण एशियाई देशों के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि हम पानी का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं. कृषि व शहरीकरण के विस्‍तार की वजह से यह इस्‍तेमाल बढ़ता जा रहा है.

इसका एक आयाम यह भी है कि दक्षिण एशियाई नदियां अपने बहाव के लिए मॉनसून पर निर्भर हैं और जलवायु परिवर्तन का मॉनसून पर क्या असर रहने वाला है यह अभी बहुत स्पष्ट नहीं है. इतना तय है कि गरम जलवायु में वाष्पीकरण अधिक होगा और इसलिए नदियों के बहने के लिए या झीलों और भौमजल भंडारों को भरने के लिए पानी कम ही बचेगा.

सचाई यह भी है कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन, ये चार देश मिलकर दुनिया के सालाना भूमिगत जल का आधे से अधिक हिस्सा हड़प लेते हैं. इसलिए इन देशों में नदी बेसिनों में जलभंडार का रिचार्ज होना बेहद अहम है क्योंकि खेती, क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था और विकास की तकरीबन सारी गतिविधियों के लिए पानी अपरिहार्य है.

मिसाल के तौर पर, सिंधु बेसिन और गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन दुनिया के दो सबसे बड़ी कृषि क्षेत्रों के लिए जरूरी है लेकिन इस इलाके में पहले से ही भूमिगत जल के भंडार पर भारी दबाव है.

इस शोध में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में ही, गंगा बेसिन में, भंडारित भौमजल का 70 फीसद हिस्सा हर साल खींच लिया जाता है. इसी तरह, सिंधु घाटी में स्थित पंजाब भंडारित पानी का 150 फीसद खींच लेता है.

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की हालिया रिपोर्ट ने उन 80 शहरों की फेहरिस्त तैयार की है जो 2030 तक भयानक जलसंकट से दो-चार होने वाले हैं. इनमें से 30 हिंदुस्तानी शहर हैं. हुगली तट पर बसा कोलकाता और यमुना तट पर बसी दिल्ली इनमें से टॉप पर हैं.

कोलकाता का इस सूची में आना जरूर चौंकाने वाला होगा क्योंकि इस शहर के आसपास ऐसे वेटलैंड हैं जिससे भौमजल भंडारण होता रहना चाहिए.

बहरहाल, इन पूर्वानुमानों को झुठलाया जा सकता है यदि हम एक समुदाय के तौर पर अपने बरताव में बदलाव लाना शुरू कर दें. विकास की अंधी दौड़ में कुदरत को नजरअंदाज करेंगे तो कुछेक दशकों के बाद कुदरत हमारे अस्तित्व को नजरअंदाज करने लगेगी.



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