पॉलिटिकली Incorrect: जस्टिस काटजू तक पहुंचती आहटें, जिन्‍हें हम अनसुना किये बैठे हैं!

जस्टिस काटजू की हर बात में विवाद खोजने वाले भारत के कार्पोरेट मीडिया, वैकल्पिक मीडिया और लिबरल खेमे तक ने इस बयान को तवज्जो देना भी गवारा नहीं समझा। उन्होंने भी एक शब्द नहीं कहा, जो इससे मिलती-जुलती बातें वर्षों से करते आ रहे हैं।

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तन मन जन: कोविड संक्रमण के पलटवार का दौर और बढ़ता खतरा

रोजाना ऐसे मामले दुनिया भर में प्रकाश में आ रहे हैं जिन्‍हें नजरअन्दाज करना भयंकर भूल होगी। मेरे स्वयं की निगरानी में ऐसे तीन मामले उपचार के लिए आ चुके हैं जिन्हें होमियोपैथिक उपचार से लाभ मिला और फिलहाल वे ठीक हैं।

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गाहे-बगाहे: सूरत में कटे-फटे नोट बिना बट्टे के चल जाते हैं!

चाहे नोट दो ही टुकड़ों में क्यों न फट चुका हो लेकिन हर कोई बेझिझक उसे स्वीकारता है जबकि मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में जरा सा मुड़ा-तुड़ा नोट चलाना भी बिना चार बात सुने असंभव है. भारतीय करेंसी का इतना सहज स्वीकार, उस शहर में जहां हज़ार के नोटों की उपस्थिति स्वाभाविक रूप से अधिक हो सकती है, सचमुच एक आश्चर्य ही था.

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छान घोंट के: स्‍वामी अग्निवेश को काशी से आखिरी सलाम

2014 में जब कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार मिला, तो स्वामी जी ने बिहार से मुझे फ़ोन कर के करीब दो घंटे लम्बी बात की। मैंने स्वामी जी से कहा कि “आप विस्तारवादी देशो के खिलाफ हैं, इसलिए आपको Right Livelihood award मिला जबकि कैलाश जी को नोबेल।”

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पंचतत्‍व: सुबर्णरेखा की लड़खड़ाती जीवनरेखा

स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण पाये जाते हैं, पर उद्योगों और घरों से निकले अपशिष्ट के साथ खदानों से निकले अयस्कों ने इस नदी के जीवन पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह नदी सूखी तो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कई इलाके जलविहीन हो जाएंगे

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आर्टिकल 19: आजतक नहीं, रिपब्लिक! जब खालिस दुर्गंध यहां मिले तो कोई वो क्‍यूं ले, ये न ले…

आजतक की ये दुर्गति इसलिए हुई है कि अरुण पुरी ने अर्णब गोस्वामी बनने में पूरी ताकत झोंक दी। उसके पास न अपनी रिपोर्टें थीं, न अपना कोई पत्रकारीय विमर्श और न ही कोई स्वतंत्र सोच। आजतक बस ईवेंट जर्नलिज्म कर सकता था।

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तिर्यक आसन: विकास की रेसिपी और अपनी बीट से पौधे उगाने का अस्तित्‍ववादी हुनर

कभी रुपये की कीमत गिरने से प्रधानमंत्री अपनी गरिमा खोते थे, अब नहीं खोते। कभी जनता और विपक्ष पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि की आग से झुलस जाते थे, अब नहीं झुलसते। पेट्रोल की धीमी आँच पर पक रही विकास की रेसिपी में अखिल भारतीय मंत्रिमंडल के खानसामों द्वारा प्रतिदिन डाले जाने वाले धर्म के चटपटे मसालों ने कीमतों को पचाना सिखा दिया है।

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बात बोलेगी: महापलायन की ‘चांदसी’ तक़रीरों के बीच फिर से खाली होते गाँव

लॉकडाउन की लंबी अवधि को पार करते हुए, अनलॉक की भी एक लंबी अवधि पूरी करने के बाद, आज सच्चाई ये है कि गाँव लौटे 100 में से 95 लोग शहरों और महानगरों की ओर लौट चुके हैं। उन्हें कोई मलाल नहीं है कि शहरों और महानगरों ने कैसी बेरुखी दिखलायी।

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राग दरबारी: GDP, बेरोज़गारी, बीमारी पर जनता की चुप्‍पी का राज़ 200 सीटों में छुपा है!

जहां कहीं भी किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी निर्भरता कॉरपोरेट मीडिया से हटाकर अपने मीडिया संस्थानों पर कर ली है, उसकी हालत वहां इतनी खराब नहीं है. महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है.

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