हर्फ़-ओ-हिकायत: दलित चिंतकों का सवर्णवादी आदर्श बनाम कांशीराम की राजनीतिक विरासत


विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े उत्तर प्रदेश में आज दलित राजनीति जिस दुविधा में है, उसी दुविधा पर 1982 में कांशीराम ने “द चमचा एज” नाम से एक किताब लिखी थी। 1985, 1987 के उपचुनाव में मायावती ने उन्हीं चमचा राजनीति के लीडरों को कड़ी टक्कर दी थी। आज राजनीति में रुचि लेने वालों की नजरें जब बसपा पर लगी हैं और राजनीतिक दलों की नजरें बसपा के बेस वोट पर हैं, तो सवाल पैदा हो गया है कि जिस राजनीतिक उत्कर्ष के लिए कांशीराम ने बामसेफ और डीएसफोर को बसपा जैसी राजनीतिक पार्टी दी थी उस सफल प्रयोग से क्‍या दलित कैडर का मोहभंग हो चुका है?

मई के अंतिम सप्‍ताह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के यूपी के दौरे के बाद बहुत से प्रभावशाली दलित नेता और चिंतक बसपा से सिर्फ इसलिए दूर जा रहे हैं क्‍योंकि मायावती परिवारवाद में फंस गई हैं। कोविंद के कानपुर, उन्नाव और लखनऊ के दौरे के बाद दलित वर्ग में जो रूझान देखने को मिला है उससे चिंतित होकर कई युवा साथी पूछ रहे हैं कि बसपा तो कभी जमीन पर संघर्ष नहीं करती है। दलित समाज की छाती चौड़ी रहे सिर्फ इसलिए विधायकों को जमीन पर बैठाने वाली मायावती से आज कुछ उत्साही दलित पूछ रहे हैं कि वो परिवारवाद क्यों कर रही हैं।  

इन सवालों के जवाब अतीत में छुपे हैं। 1970 में महाराष्ट्र में जन्मी दलित पैंथर्स उग्र राजनीति में विश्वास करती थी। कम समय में ही वो महाराष्ट्र में चर्चित हो गयी, लेकिन उसके उग्र हस्तक्षेप से दलितों पर अत्याचार की घटनाएं भी बढ़ गयीं। मराठी दलित साहित्य के दिग्गजों ने 29 मई 1972 को अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स की नीतियों से प्रभावित होकर दलित पैंथर्स की स्थापना की। कवि नामदेव ढसाल इसके अध्यक्ष बने, जेवी पवार महासचिव, राजा ढाले, संतोष महेतकर जैसे तमाम बड़े दलित बुद्धिजीवियों ने जुझारू तरीके से संगठन को आगे बढ़ाया। 15 अगस्त 1972 को स्वतंत्रता दिवस का आक्रामक तरीके से विरोध किया और काला स्वतंत्रता दिवस बताया जिसके बाद पार्टी के कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई। पार्टी का विस्तार गुजरात के साथ दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में तेजी से हुआ। दलित समाज के युवकों को इसने प्रभावित किया, लेकिन सिर्फ पांच साल बाद 7 मार्च, 1977 को मुंबई में आयोजित एक प्रेस वार्ता में दलित पैंथर्स पार्टी को भंग करने की घोषणा कर दी गयी। बिलकुल वैसे ही जैसे बाबा साहेब अंबेडकर के जाने के बाद आरपीआइ के दर्जनों खंड हो गये थे।

यहां यह जोड़ने वाली बात है कि दलित पैंथर्स की वजह से दलित साहित्य का तेजी के साथ विकास हुआ और आम आदमी के बीच दलित साहित्य ने अपनी जड़ें जमायी थीं जिसका व्यापक असर आज भी दिखता है, लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर किताबों के बाहर जमीनी फैसले लेने होते हैं। कांशीराम इन्हीं जमीनी फैसलों के लिए याद किये जाते हैं और बसपा की सफलता का राज उनके राजनीतिक फैसले ही हैं। तभी तो सड़क से संसद तक जाने की राजनीति की लीक को तोड़कर उन्होंने संसद से सड़क पर दलितों के सम्मान जीतने की थ्योरी को रखा। कांशीराम सत्ता के जरिये सामाजिक परिवर्तन में विश्वास रखते थे। और देखिए कि जब वो खुद मुख्यमंत्री बन सकते थे उससे पहले वह अगली पीढ़ी का नेतृत्व मायावती में सींच चुके थे ताकि ये आंदोलन ज्यादा मठों के मतभेदों में खोकर खत्म न हो जाए, जैसा आरपीआइ और दलित पैंथर्स के साथ हुआ।

कांशीराम सत्ता से सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं। आज जब मायावती स्वास्थ्य कारणों से कुछ फैसले लेती हैं तो दलित चिंतक शोर करने लगते हैं। ये दलित चिंतक दलित आंदोलन से कम वामपंथी विचार से ज्यादा प्रेरित हैं। उन्हें संघर्ष करने में मजा आता है। संघर्ष उनके लिए फैशन है। कांशीराम ने 1978 में ये भांप लिया था कि पहले से ही दमित समाज को संघर्ष की नहीं सत्ता की जरूरत है और सत्ता से ही सामाजिक परिवर्तन होगा। यही भाव कांशीराम से मायावती में अक्षरश: स्थानांतरित हुआ। इतिहास इसका गवाह है।

1988 में इलाहाबाद लोकसभा सीट का उपचुनाव था। बोफोर्स तोप कांड में आरोप लगने पर अमिताभ बच्चन ने राजनीति से संन्यास ले लिया। वह इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से सांसद थे। उनके इस्तीफा देने के बाद यहां उपचुनाव हुआ। पूरे देश की नजर इलाहाबाद पर टिकी थी। मुकाबला वीपी सिंह और सुनील शास्‍त्री के बीच था, लेकिन चर्चा में कांशीराम थे। कांशीराम अपनी नयी-नवेली पार्टी बसपा से चुनाव मैदान में थे। जिले की हर दीवार पर चुनाव चिन्ह हाथी छपा पड़ा था, साथ में “नोट भी दें वोट भी दें” अभियान दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में अपना प्रभाव छोड रहा था। नतीजे आये और कांशीराम को 69715 वोट मिले, सुनील शास्‍त्री को 92 हजार और वीपी सिंह को दो लाख से ज्यादा। बाकी किसी प्रत्याशी की कोई गिनती ही नहीं थी।

ये वक्त मंडल कमीशन के लागू होने का था और पिछड़ों व सवर्णों के बीच राजसत्ता का बंटवारा हो चुका था। इन मुश्किल हालात में कांशीराम ने दलितों की राजनीतिक ताकत खड़ी की थी। इससे पहले 1985 के उपचुनाव में बिजनौर लोकसभा सीट पर मायावती ने दिग्गज दलित नेता जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार को तगड़ी टक्कर दी थी और 1987 के उपचुनाव में हरिद्वार में गैर-कांग्रेसी दलों के दलित आइकन रामविलास पासवान को तीसरे नंबर पर धकेल दिया था। कांशीराम अपनी दलितों की ताकत को समझ चुके थे। बामसेफ और डीएसफोर की ताकत को उन्‍होंने बसपा का राजनीतिक स्वरूप दिया और देश भर में बसपा के उभार की चर्चा शुरू हो गयी। इसके ठीक बाद 1989 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने तीन लोकसभा सीट जीतीं। बिजनौर से मायावती संसद पहुंचीं और आजमगढ़, पंजाब के पिल्लौर से भी बसपा के उम्मीदवार जीते। उसी के साथ हुए यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 13 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की।     

सम्बोधन करतीं मायावती और कांशीराम: बसपा के शुरुआती दिन

इसके बरक्‍स अस्‍सी के दशक में पिछड़ी जातियों की सामाजिक परिवर्तन की लडाई देखिए, उनके पहली पीढ़ी के नेता समाज में गढे गये सवर्णवादी नैरेटिव के आदर्श में उलझे रह गये और अपनी राजनीतिक विरासत अपने परिवार की जगह सामाजिक संघर्ष की अगली पीढ़ी को दे दी। इसी वजह से पहले दलित मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर अब सिर्फ किताबों में हैं। जब जनता पार्टी ने कर्पूरी ठाकुर के साथ-साथ उनके बड़े बेटे रामनाथ ठाकुर को टिकट दे दिया था तो कर्पूरी ठाकुर ने अपना नाम यह कहते हुए उस लिस्ट से काट दिया था कि एक परिवार से एक व्यक्ति ही रहेगा, अगर पार्टी मेरे बेटे में इतनी राजनीतिक प्रतिभा देखती है तो मैं अपना नाम वापस लेता हूं। कर्पूरी ठाकुर के बाद के नेताओं को उनका खींचा आदर्श अव्यावहारिक लगा। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, बीजू पटनायक, चौधरी अजित सिंह, एमके स्टालिन, चौटाला परिवार आज तक राजनीति में कायम है और ये पिछड़ों के सर्वमान्य नेता भी हैं।

परिवारवाद किस पार्टी में नहीं है? इस पर लिखना बेकार है। सभी जानते हैं कि परिवारवाद से कोई पार्टी बची नहीं है और जिन पार्टियों ने बचने की कोशिश वह पार्टी ही नहीं बची। ये बहुत व्यवहारिक राजनीति है। किसी भी पॉलिटिकल पार्टी को चुनावी गणित जीतने के लिए जमे जमाये चेहरे की ही जरूरत होती है। राजनीति में त्याग से ज्यादा दूरदर्शिता की अपेक्षा रखी जाती है। दलित काडर को समझना होगा कि उनकी लड़ाई सामाजिक परिवर्तन की है, परिवारवाद और वंशवाद के खिलाफ उन्हें तब रायशुमारी करनी चाहिए जब समाज बदल चुका हो। इससे पहले उन्हें राजनीति के गुणवत्ता की लडाई के ढोंग में नहीं फंसना चाहिए। यह सवर्णों का खड़ा किया राजनीतिक नैरेटिव है जिसके मायाजाल से उन्हें बाहर निकलना होगा। वामपंथी संघर्ष का आदर्श भी इसी मायाजाल का हिस्‍सा है जिसकी दलितों को कोई जरूरत नहीं है। आज कांशीराम होते तो शायद वे भी यही कहते।

आज जब बसपा का सफल प्रयोग उत्तर प्रदेश से बाहर फैलने के लिए छटपटा रहा है तो दलित चिंतक उसी ब्राह्मणवादी आदर्श का रोना-गाना मचा रहे हैं जिनके खोखले आदर्श सिर्फ लोगों को उनकी श्रेष्ठता मनवाने तक सीमित हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि सदियों से दमित समाज को सत्ता की हनक का एहसास कराने वाली मायावती को कांशीराम की तरह अगला नेतृत्व तय करने का अधिकार क्यों नहीं हो? 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बसपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष घोषित किया था जिसे कुछ महीनों बाद ही उन्‍हें वापस लेना पड़ा। नतीजा ये है कि आज बसपा में नेतृत्व का संकट दिख रहा है जिसका फायदा अन्य दल उठाने की कोशिश कर रहे हैं। अंबेडकर स्मारक और सांस्कृतिक केंद्र की महामहिम के हाथों शुरुआत इसी कड़ी का हिस्सा है।

यूपी के आगामी चुनाव में बसपा ने अगली पीढ़ी का नेतृत्व तय करने में कोई आदर्शवादी रोना रोया तो पूरी एक पीढ़ी लग जाएगी बहुजन मूवमेंट से राजनीतिक पार्टी खड़ी करने में। और राजनीति में भविष्य किसने देखा है? 1986 में बनी बसपा को 36 वर्षों तक साथ रहे बामसेफ और डीएसफोर के साथ उस गुरूर का भी साथ चाहिए जिसे मायावती ने अपने जन्मदिन पर उन लोगों के अरमान काटकर जगाया है जिन्हें दलितों के बराबर बैठना पसंद नहीं था- जिसे मायावती ने लाल पत्थरों की दीवारों और हाथियों के बीच खड़ी दलितों की प्रेरणास्‍वरूप मूर्तियों में प्राण की तरह बसा दिया है। बसपा को और उत्‍तर प्रदेश को एक बार फिर उसी कुशल प्रशासक की छवि का गुरूर चाहिए जिसने एक राजा के तालाब को खुदवा दिया था जहां कहते हैं कि मगरमच्छ पाले जाते थे।

मायावती से उम्मीद है कि वे बसपा का अगला नेतृत्व जल्द ही घोषित करेंगी, भले ही वो परिवार से क्यों न हो। बसपा को सिर्फ आदर्शवाद के नाम पर खत्म करने का नुकसान बहुत बड़ा होगा। फिलहाल खतरा यही है कि कांशीराम की यह विरासत कहीं कर्पूरी ठाकुर के आदर्श की तरह भुला न दी जाए। दलित राजनीति के चिंतकों और बुद्धिजीवियों को सोचना होगा कि कहीं वे नामदेव ढसाल और उनकी साहित्यिक जमात वाली गलती तो नहीं दोहरा रहे हैं।   



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