हर्फ़-ओ-हिकायत: जाति-वर्चस्व के खांचे में आजादी के नायकों को याद करने की राजनीति


23 जुलाई को बाल गंगाधर तिलक और चंद्रशेखर आजाद के जयंती मनायी गयी। तमाम लोगों ने सोशल मीडिया पर तिलक और आजाद के संघर्षों को अपनी-अपनी जानकारी के मुताबिक याद किया। यह देखना-सुनना सुखद है कि हम उन पुरोधाओं को अभी भूले नहीं हैं जिन्होंने अपना जीवन भारत को अर्पित कर दिया था, हालांकि ज्‍यादातर को भूल चुके हैं और याद उन्हीं को करते हैं जिनमें खुद की सहूलियत होती है।

यह सहूलियत अपनी-अपनी पहचान के हिसाब से तय होती है। पहचानों को पुष्‍ट करने का काम यहां इतिहास से किया जाता है और इस प्रक्रिया में इतिहास को संकुचित व विकृत कर दिया जाता है।  जैसे, बालगंगाधर तिलक को कट्टर हिन्दूवादी और ब्राह्मणवादी बताया गया, तो सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी की स्थापना करने वाले क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को पंडित बता दिया गया। महापुरुषों को याद करने में दिक्‍कत यहां है। लगता है जैसे हमारी पीढियां इतिहास में स्थापित किए गए किसी गलत नैरेटिव के जाल में फंसी हुई हैं। कुछ लोग जातिवादी नैरेटिव से बाहर निकलना नहीं चाहते हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही अंग्रेजी हुकूमत की दुनिया पर पकड़ कमजोर पड़ती जा रही ही थी। भारत में औपनिवैशिक शासन को बनाए रखने के लिए ब्रिटिश संसद इंडियन गवर्नमेंट एक्ट के तहत स्‍थानीय लोगों की एक सरकार बनाना चाहती थी जो जमीन पर चल रहे असंतोष और अंग्रेजों के बीच सेफ्टी वॉल्व का काम करे। भारत की आजादी के संघर्ष की सबसे बड़ी कमजोरी हिन्दू-मुसलमान का विभाजन था। हिन्दू गुलाम थे और गुलाम रहें, लेकिन मुसलमान शासक से गुलाम बन गया था। हिन्दू राजा और रियासतें पहले मुगल बादशाह की हाजिरी लगाते थे, फिर अंग्रेजों की, लेकिन मुसलमान नायबों और नवाबों का सब कुछ पलट चुका था। अब उन्हें भी अंग्रेजों की जी हुजूरी करनी पड़ रही थी। दूसरी तरफ कांग्रेस के नेताओं की भी। इसकी टीस उन्हें बहुत अरसे तक सालती रही। इसके इतर गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक और मोतीलाल नेहरू की कांग्रेस हिन्दू जनता की प्रतिनिधि बनकर उभरी तो मुस्लिम लीग मुसलमानों की, लेकिन राजे महाराजे कांग्रेस के विरोधी रहे। ऐसे राजनीतिक और अविश्वास के हालात में अंग्रेजों को कोई चुनौती नहीं थी।  

इंडियन गवर्नमेंट एक्ट बनने के साथ काले हुक्मरानों की दूसरी कतार खड़ी करके अंग्रेजों ने जमींदारों और नवाबों के खिलाफ जनता में व्याप्त असंतोष को साधने की राजनीति तो खूब की, लेकिन बाल गंगाधर तिलक और गोपालकृष्ण गोखले ने इस राजनीति का जवाब बहुत सब्र के साथ दिया। पहला, कि लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का अधिवेशन एक ही समय पर हुआ ताकी सूचना और समीकरण फुलप्रूफ तैयार हो सके। दूसरा, दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के खिलाफ अश्वेत आंदोलन में झंडा फहरा चुके मोहनदास करमचंद गांधी को स्वतंत्रता की आगे की लडाई सौंपने का प्लान तैयार किया गया। बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों से ही लखनऊ में मुस्लिम लीग के जिन्ना के बीच हिन्दू-मुस्लिम फार्मूला तैयार हुआ जिसके तहत इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में जिन प्रदेशों में मुसलमान अल्पसंख्यक थे वहां अनुपात से ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया। लखनऊ समझौते में इंडिया गवर्नमेंट के तहत हिन्दू मुसलमान समुदाय के संबंधों के व्याख्या भी की गयी। तिलक और जिन्ना के इस प्रयास से अंग्रेजी नीति की चूलें हिल गयीं और आजादी की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम एकता का महत्व पहली बार समझ में आया।

आज अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हम ऐसे समाज सुधारक तिलक जी को सिर्फ गणेश पूजा के लिए याद करते हैं जबकि गणेश पूजा भी आजादी के संघर्ष से आम जनता को जोड़ने की ही योजना थी। अब समस्या ये है कि आज के युवाओं को लगता है कि आजादी तो अंग्रेजों ने थाली में सजाकर दे दी थी क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध में वो आर्थिक रूप से कमजोर पड़ गए थे। बेशक वे कमजोर हो गए थे, लेकिन पूछना बनता है कि उससे मजबूत कौन हुआ- भारत की जनता या भारत की जनता का नेतृत्व?

तिलक की नीतियों से प्रभावित जिन्ना कांग्रेसी हो गए। इधर मोहनदास करमचंद गांधी बिहार के चंपारण में नील किसानों के पक्ष में सत्याग्रह कर किसान आंदोलन को सफल साबित करते हैं और गुजरात के खेडा में भी किसान आंदोलन सफल होता है। याद रखिए, नील किसानों के वकील राजेन्द्र प्रसाद थे और खेड़ा किसानों के वकील सरदार वल्लभ भाई पटेल थे। ये दोनों ही गांधी के प्रबल रणनीतिकार थे। दोनों ही कांग्रेस के गरम धड़े से थे, जैसे गरम धड़े के बाल गंगाधर तिलक। 1920 आते-आते जिन्ना कांग्रेस से नाराज होकर वापस मुस्लिम लीग में चले जाते हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि उन्हें लगता था कि मोहनदास करमचंद गांधी भारत में हिन्दूवादी सरकार बनाना चाहते हैं। गजब है न!

इतिहास की किताब में सिर्फ तथ्य होते हैं। उन तथ्यों के पीछे की कहानियां नहीं। हम और आप उन तथ्यों को पढ़कर अपनी राय बना लेते हैं। ये जानने की जरूरत नहीं महसूस करते कि गणेश पूजा के पीछे उद्देश्य क्या था। हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले लखनऊ समझौते की वजह क्या थी। जिन्ना को जीते जी पाकिस्तान में क्यों भुला दिया गया, लेकिन गांधी हिन्दूवादी होकर भी अहिंसा के महात्मा क्यों कहे जाते हैं?

चलिए, पंडित चंद्रशेखर आजाद की जयंती की भी चर्चा कर लेते हैं। इन्हीं मोहनदास करमचंद गांधी से  14 साल का एक बच्चा चंद्रशेखर तिवारी भी खूब प्रभावित था। आज के 24 साल के लडकों से वो ज्यादा समझदार था, तभी तो हम उन्हें क्रांतिकारी कहते हैं। 1921 में असहयोग आंदोलन के समर्थन में चंद्रशेखर तिवारी सड़क पर उतरे और प्रदर्शन किया। तब ट्वि‍टर नहीं होता था। अंग्रेजी पुलिस पकड़ ले गयी। मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई और चंद्रशेखर तिवारी ने जाति-धर्म के ऊपर उठकर जवाब दिया और जवाब ही नहीं, मिसाल पेश की। मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा तो तिवारी जी ने कहा- आजाद! मजिस्ट्रेट ने पूछा पिता का नाम तो तिवारी जी ने कहा- स्वतंत्रता! अब मजिस्ट्रेट ने पूछा घर का पता? तिवारी जी ने कहा- जेलखाना। तिवारी जी तब से चंद्रशेखर आजाद हो गए, लेकिन सौ साल बाद सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों ने उन्हें तिवारी जी और पंडित जी घोषित कर दिया।

असल में हमारे देश में सबका अपना-अपना इतिहास है। उत्तर भारत के रहने वाले एक खिलाड़ी ने दक्षिण भारत की संस्कृति से मेल बैठाने के लिए ब्राह्मण होने को कारगर बताया था। उसके बाद एक अन्य खिलाड़ी ने राजपूत ब्वॉय लिखकर जय हिंद लिखा। इन दोनों वाकयों से एक राय बनती है कि जातिगत अस्मिता को लेकर सवर्ण कहीं ज्यादा चिंतित रहते हैं जबकि इसका आरोप लगता है दलितों पर, जो कि शोषण के खिलाफ बराबरी का समाज चाहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इतिहास को लेकर सबसे ज्यादा भ्रम सवर्णों में ही है। चंद्रशेखर आजाद अगर सिर्फ तिवारी ही थे तो वे देश की सभी जातियों के नायक कैसे साबित होंगे, ये ब्राह्मणों को समझना पड़ेगा। और बाल गंगाधर तिलक अगर कट्टर हिन्दूवादी नेता थे तो हिन्दुओं को बताना पड़ेगा कि 1916 में उन्‍होंने मुसलमानों से लखनऊ समझौता क्यों किया?

बार-बार किसी घटना के बहाने उठने वाले ‘मैं भी ब्राह्मण’, ‘मैं भी तिवारी’ और ‘राजपूत ब्वॉय’ के जयघोष के बीच ‘जय हिंद’ और ‘जय भारत’ का नारा खो जाता है। यह तभी याद आता है जब चीन सीमा पर दादागिरी दिखाता है और पाकिस्तान सरहद पर घुसपैठ करता है। ऐसे जातिगत उद्घोष की हवा विदेशी हमलों के समय क्यों खराब हो जाती है? अतिउत्साही युवा ये समझ लें तो इतिहास के तथ्यों को क्रमवार समझने में आसानी होगी और उन सवालों का जवाब मिल जाएगा कि हम क्यों बरसों मुगलों के गुलाम रहे। ये भ्रम भी टूट जाएगा कि अंग्रेज खुद भारत छोड़कर नहीं गए थे बल्कि मोहनदास करमचंद गांधी ने उनके साथ वही राजनीति कर दी थी जो राजनीति करके उन्होंने प्लासी के युद्ध में मुर्शिदाबाद के नवाब को हराया था और बक्सर के युद्ध में अवध के नवाब और मुगल बादशाह को पराजित किया था। आज सात सौ वर्ष बाद भी अगर हम जातिगत वर्चस्व की गलतफहमी पाले हुए हैं तो जाहिर है कि हम गलत इतिहास के फंदे से निकल नहीं पाए हैं।



About अखौरी अवतंस चित्रांश

Editor-Poorva Post, Ex AajTak, India TV, Sahara, Crime Patrol (Sony), TOI, IIMCian

View all posts by अखौरी अवतंस चित्रांश →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *