असम और मिजोरम के बीच शुरू हुए सीमा विवाद में आर्थिक नाकेबंदी की ख़बर मिली। ये चौंकाने वाली बात थी। आजादी के पचहत्तरवें साल में दो राज्य सीमा विवाद में ऐसे पेश आएंगे इसका जरा भी अंदाजा नहीं था। भारत में दो राज्यों के बीच सीमा विवाद, जल विवाद कोई नयी बात नहीं है। खुद असम का ही विवाद उसके साथ लगे सभी राज्यों से हैं, तो क्या वे सभी राज्य असम से लगती अपनी सीमाओं को सील कर देंगे? या असम, मिजोरम से लगती अपनी सीमा की नाकेबंदी कर देगा? क्या ये राष्ट्रवाद के भीतर पनपते राज्यवाद की कोई नयी परिघटना है? या फिर आजादी के 75वें वर्ष में सबका अपना-अपना क्षेत्रीय राष्ट्रवाद जाग रहा है?
महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच भी पांच दशक से ज्यादा समय से सीमा विवाद है। कुछ महीने पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने विवादित क्षेत्र को ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ की तर्ज़ पर ‘कर्नाटक अधिकृत महाराष्ट्र’ तक कह दिया था। दोनों राज्यों के बीच में बेलगावी, खानापुर, निप्पानी, नंदगाड और कारवार तक उत्तरी कर्नाटक की सीमा को लेकर विवाद है। 1956 में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के दौरान महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने मराठीभाषी बेलगावी सिटी (अब बेलगाम, खानापुर, निप्पानी, नांदगाड और कारवार) को महाराष्ट्र का हिस्सा बनाने की मांग की। ये सभी जिले कर्नाटक में हैं। तब कर्नाटक का नाम मैसूर था जहां की भाषा कन्नड़ है। ये विवाद काफी लंबा है लेकिन हिंसा की ख़बरें नहीं मिलती हैं।
इधर पंजाब और हरियाणा में सतलुज–यमुना लिंक नहर को लेकर अरसे से विवाद है। कैप्टन अमरिंदर कहते हैं कि इस नहर को बनाने की कोशिश की तो पंजाब जल उठेगा। उनका तर्क है कि क्षेत्रीय असुंतलन का फायदा पाकिस्तान उठा सकता है। कैप्टन साहब ने ऐसा क्यों कहा वही जानें, लेकिन सवाल उठता है कि क्या मिजोरम और असम सीमा विवाद से चीन को फायदा नहीं होगा? यदि होगा तो इसका उपाय क्या किया जा रहा है?
2001 में जो तीन नये राज्य बने वे पूर्व की तरह भाषा के आधार पर नहीं बने थे (बिहार से झारखंड, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़) लेकिन इन छह राज्यों में भी कभी सीमा विवाद की ख़बर नहीं मिलती है। तो क्या मान लें कि भाषा के आधार पर बने राज्यों में सीमा विवाद खत्म नहीं हो सकता? या संस्कृति के आधार पर खींची सीमाओं पर विवाद खत्म होना मुश्किल है, जैसा पूरी दुनिया में है?
थोड़ा पीछे चलते हैं। 15 अगस्त 1947 से पहले देश में 17 प्रांत थे जो ब्रिटिश राज के अधीन थे और 584 रियासतें थीं। अब आप दिल-दिमाग पर जोर देकर सोचिए कि 1947 से पहले झगड़ा क्या था? अंग्रेजों से आजादी ही चाहिए थी न? आजादी के बाद रियासतों में से कुछ का पाकिस्तान में विलय हुआ तो कुछ को भारत में मिला लिया गया। दूसरी ओर जो आधुनिक परिभाषा के तहत ब्रिटिशकालीन प्रांत थे, वे महज बीस साल के भीतर भाषा और संस्कृति के आधार पर और बंट गए। यह काम राज्य पुनर्गठन आयोग के तहत किया गया। इस बंटवारे ने क्षेत्रीय और भाषाई पहचानों को संतुष्ट करने के लिए मोटे तौर पर अखिल भारतीय संस्कृति और भारतीय पहचान को नुकसान पहुंचाया।
आज जिस उत्तर प्रदेश के निवासी पश्चिम और पूर्वांचल के बीच सांस्कृतिक अंतर की बात करते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि दिल्ली भी इसी प्रांत का हिस्सा था। तब सभी भारत के नागरिक थे और आजादी की ललकार साथ लगाते थे, लेकिन आज सत्तर साल बाद एक-दूसरे से श्रेष्ठता के भाव में सब मदहोश रहते हैं। आजादी के बाद राजपुताना इलाके की रियासतों का एकीकरण हुआ। सबसे पहले कोटा और मेवाड़ भारत संघ में शामिल हुए। कई वर्षों तक कोटा राजपुताने की राजधानी रही। फिर उदयपुर राज्य भी शामिल हो गया और उसके बाद जयपुर ने भी भारत संघ में विलय स्वीकार कर लिया, जिसके बाद राजस्थान राज्य अस्तित्व में आया जिसकी राजधानी जयपुर बना। दक्षिण-पूर्व राजपूताना के कुछ क्षेत्र मध्य प्रदेश और दक्षिण-पश्चिम में और कुछ क्षेत्र अब गुजरात का हिस्सा हैं।
इधर आजादी के बहुत बाद पंजाब से अलग होकर हिमाचल प्रदेश बना, फिर हरियाणा बना। 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात बांबे प्रेसिडेंसी टूटकर दो राज्य बने। दुविधा देखिए आज महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को हेय की दृष्टि से देखा जाता है और गुजरात तो खैर बीस साल से विकास का मॉडल ही तय कर रहा है। कुल मिला के कह सकते हैं कि 1947 से पहले का राष्ट्रवाद आज धीरे-धीरे राज्यवाद में बदलता जा रहा है।
लॉर्ड कर्जन ने 1905 में जब बंगाल का विभाजन किया तब बंगाल में काफी विरोध हुआ। रविन्द्र नाथ टैगोर का लिखा आमार सोनार बांग्ला विरोध का गीत बना गया, जिसके फलस्वरुप 1911 में बंगाल का फिर से एकीकरण हुआ। विदेशी शासकों के लिए ये फैसला वापस लेना प्रशासनिक दृष्टि से कितना अपमानजनक रहा होगा इसकी तुलना आप वर्तमान सरकार के किसी निर्णय से कर सकते हैं। खैर, अंग्रेजों ने बंगाली राष्ट्रीयता का ताप ठीक से महसूस किया और प्रशासनिक दृष्टि से ताबड़तोड़ फैसले लिए। सबसे पहले उन्होंने राजधानी कलकत्ता से उठाकर दिल्ली को बना दिया। दूसरा बंगाल को हिन्दी, उड़िया और असमिया भाषा के आधार पर बांट दिया ताकी आठ करोड़ (तब की) की आबादी के संघर्ष को दबाया जा सके। दिसंबर 1911 में दिल्ली राजधानी बनी और 1912 में जन्म हुआ हिन्दीभाषी बिहार का, असमिया बोलने वालों के लिए असम का और उडिया भाषा वालों का उड़ीसा।
साफ है, जिन राज्यों के बीच सीमा विवाद या जल विवाद है उनका अस्तित्व ही ज्यादा से ज्यादा पचास वर्षों का है। ऐसे में अगले पचास वर्षों में कौन सा राज्यवाद आकार लेगा ये कहना मुश्किल है, लेकिन इतिहास बता रहा है कि हमारे समाज को अपने अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है या फिर हमने इतिहास लेखन में भारी गलती कर दी है, जो लोगों को प्रेरणा देना तो दूर समझ ही में नहीं आ रहा है। मसलन, चंद्रशेखर आजाद यूपी के थे या मध्य प्रदेश के ऐसा लिखने की क्या जरूरत है? जब चंद्रशेखर आजाद देश पर मर मिटे तब न मध्य प्रदेश था, न उत्तर प्रदेश। इसी तरह नील के किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ जो आंदोलन किया उसे “बिहार के चंपारण” में लिखने की क्या जरूरत है, जब 1912 तक बिहार राज्य था ही नहीं!
खैर, बंगाल राज्य से अलग हुए असम राज्य के लुशाई हिल्स यानी वर्तमान के मिजोरम राज्य में सीमा विवाद में दो राज्यों की पुलिस का आपस में लड़ना दुखद है। उतना ही दुखद जब बंगाल राज्य से अलग होकर बने बिहार राज्य के पुलिस के मुखिया बांबे से बंबई और बंबई से मुंबई बने महाराष्ट्र की राजधानी की पुलिस पर इमोशनल आरोप लगाते हैं।
चलिए, 1947 से और पीछे चलते हैं। 1856 में आखिरी स्वायत्त रियासत अवध को भी अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला लिया, जिसके बाद तत्कालीन नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया गया था। वाजिद अली योद्धा नहीं थे, लेकिन जनप्रिय थे इसलिए उनके निर्वासन से अवध का माहौल भावनात्मक हो गया था। दिल्ली का मुगलिया शासन कमजोर पड़ चुका था और बहादुर शाह जफर अंग्रेजों के पेंशनर हो गए थे। यही हाल मराठों का था। पेशवा बाजीराव बनारस में निर्वासित रह रहे थे और शानो-शौकत के लिए पेंशन पा रहे थे। मैसूर और दक्कन तो सबसे पहले अंग्रेजों का शिकार हुए थे।
1857 से पहले तक राजपुताना के जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर और उदयपुर राज्य के तौर जाने जाते थे जिनका दिल्ली के मुगल साम्राज्य से तालमेल था। मुगल उनके खिलाफ कुछ नहीं करते थे जिसके एवज में राजपूत दक्कन और मराठाओं के खिलाफ मुगलों का साथ देते थे। राजपूत, महाराणा प्रताप के बाद से मुगलों के साथ सामांजस्य बिठाकर अपनी रियासत बनाए रखे थे। अंग्रेजों ने भी वही नीति अपनायी इसलिए अंग्रेजों को राजपूताने से कोई दिक्कत नहीं आयी थी। इस तरह 1857 से पहले भारत के नक्शे पर मराठों का साम्राज्य और मुगलों को साम्राज्य ही दिखता है। और आखिरी में अवध। इसके बाद इतिहासकार आधुनिक भारत का नक्शा खींचते हैं और 160 बरस बाद हम राज्य की सीमाओं में बंटकर अति-आधुनिक विचार रखते हैं।
हमें 1912, 1947 और 1972 में खींची गयी लकीरों के प्रशासनिक आधार पर सोचना होगा। हमारी पीढ़ियों को भारत का इतिहास पढ़ाने के बजाय भाषा और संस्कृति का विभाजन पढ़ाया गया, उसी का परिणाम असम-मिजोरम के सीमा विवाद के रूप में दिख रहा है।