गाहे-बगाहे: मशीनों के आगोश में बुनकरी है, तबाही के पहलू में कारीगरी है!


एक खबर ने कल यानी चौबीस जुलाई को बहुत विचलित कर दिया और यह बात बहुत तेजी से आकार लेने लगी कि बुनकर वास्तव में इस स्थिति तक पहुँच चुके हैं, बस क्रमशः उनका लटकना बाकी है. आज एक लटका है, कल कहीं से फिर कोई खबर आएगी और फिर यह रूटीन की बात होती जाएगी.

फेसबुक को मैं कुछ मामलों में जन-अभिव्यक्ति का प्लेटफार्म मानता हूँ जहाँ लोग आस-पास की घटनाओं पर अपनी राय व्यक्त करते हैं या उनकी सूचना देते हैं. इस बात के सैकड़ों उदाहरण हैं कि देश-दुनिया की तमाम खबरें और सूचनाएँ केवल फेसबुक से ही मिलती हैं. न केवल मिलती हैं बल्कि उनको लेकर लोगों के मन-मिजाज का भी पता चलता है. इसलिए जैसे ही कल किसी ने फोटो सहित यह खबर पोस्ट की कि बनारस में एक बुनकर ने करघे से लटककर जान दे दी, तब लगा कि हालात वाकई बहुत ख़राब हो चुके हैं.  

निश्चित रूप से यह ह्रदय-विदारक दृश्य था. जिस करघे से परिवार का पालन-पोषण हो रहा था उसी पर लटककर कोई जान दे दे, यह साधारण बात नहीं.  जैसा कि होता है, अगर किसी खबर से असामान्य सूचना मिलती है तो उसे बार-बार देखा और तस्दीक किया जाता है. यह घटना इसलिए भी मेरे लिए महत्त्व रखती है क्योंकि पिछले चार साल से मैं बनारस के कई इलाकों में अनेक बार जाकर लोगों से मिलता रहा हूँ और इस बात को जानने की कोशिश करता रहा हूँ कि वास्तव में बुनकर किन हालात में जी रहे हैं? इस सिलसिले में टांडा, मुबारकपुर और मऊ भी गया. मेरा सरोकार यह है कि इन जगहों पर लोग कैसे जी रहे हैं? मुझे बुनकरों, दस्तकारों, किसानों और कामगारों की दुनिया मुसलसल ‘सुसाइडलैंड’ लगने लगी है. जो हालात हैं उनमें कब कहाँ से आत्महत्या की ख़बरें आ जाएँ यह कहा नहीं जा सकता.

यह मामला कहाँ का है इसका कुछ पता नहीं चल रहा था. अगले दिन के अखबार में तो इस खबर का कुछ अता-पता नहीं था, लेकिन शाम तक मनीष शर्मा की वॉल पर उसी फोटो सहित यह टिप्पणी देखने को मिली कि यह फोटो और इससे सम्बंधित जो पोस्ट वायरल हो रही है वह फर्जी है. मनीष शर्मा भाकपा (माले) बनारस के जाने-माने सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और वे छात्रजीवन के बाद से लगातार इस शहर के मजदूर आंदोलन और दीगर समाजी सरगर्मियों के मुख्य किरदार हैं. लॉकडाउन के दौरान उन्होंने सामूहिक रसोई के माध्यम से बनारस के हाशियाई समाजों के एक बड़े हिस्से के लिए भोजन का प्रबंध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आजकल वे बुनकर बस्तियों में लगातार लोगों से मिलते-जुलते उनकी समस्याओं को सुन और दर्ज कर रहे हैं. उनका सीधा राब्ता लल्लापुरा, मदनपुरा, शिवाला, बजरडीहा, अलईपुर, लोहता और कोटवा जैसे बुनकर बहुल इलाकों के लोगों से है. स्वयं मनीष ने इस खबर की वास्तविकता जांचने के लिए सभी जगहों के लोगों को फोन किया और कहीं से ऐसी किसी घटना की पुष्टि नहीं हुई. यह फोटो कहाँ की है यह एक पहेली है लेकिन इतना जरूर हुआ जैसा कि फेसबुक पर अक्सर होता रहता है कि लोगों ने धड़ाधड़ अपनी संवेदनाएं व्यक्त करना शुरू किया और प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र में बुनकरों की ऐसी दशा पर नाराजी भी ज़ाहिर की.

बेशक आत्महत्या की खबरें हमारे समाज की बड़ी बीमारी का संकेत देती हैं. आत्महत्या की घटनाएँ किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक असंतुलन की भयावह परिणतियाँ हैं जिनका जिम्मेदार राज्य है और जिम्मेदार नागरिकों को इसके लिए राज्य को लगातार कठघरे में खड़ा करना चाहिए, लेकिन यह तभी संभव है जब सनसनीखेज मानसिकता पर वास्तविक तथ्यों की बढ़त होगी. जिस समय राजसत्ता स्वयं वास्तविकता को सनसनीखेज बनाकर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति में लगी हो उस समय यह अत्यंत जटिल सवाल होगा कि उत्पादक समाजों का जीवन दूभर करने वाली राजनीति और राजसत्ता से कैसे बात की जाय.

फिलहाल सबसे भयानक बात यह है राज्य की सारी मशीनरी अनुत्पादक कॉर्पोरेट और व्यावसायिक ताकतों को मजबूत करने में लगी हुई है. अर्थव्यवस्था एक ही दिशा में मजबूत हो रही है और इस प्रक्रिया में वह लगातार वीभत्स होती जा रही है. उसे संचालित करने वाली राजनीति उससे भी अधिक वीभत्स हो चुकी है. अपनी शक्ल-सूरत को देखने लायक बनाने के लिए उसे कभी-कभी नहीं बल्कि लगातार झूठे-सच्चे किस्सों की जरूरत पड़ती है और जाहिर है कि इसमें अपने आप को दिलासा और जनता को झांसा ही दिया जाना संभव है. इसके साथ ही इस राजनीति के ढेरों छिपे हुए एजेंडे हैं जिनकी पूर्ति भी उसे करना है. चीजें और स्थितियां चाहे जितनी गड्ड-मड्ड दिखें लेकिन वे एक दूसरे के स्वार्थों की पूर्ति कर रही हैं और इसीलिए अपराजेय दिखायी दे रही हैं.

ऐसे में किसी बुनकर का अपने करघे से लटक जाना बहुत बड़ी खबर कैसे बन सकती है. वह भी तब जबकि बुनकरों की पूरी की पूरी जमात ही जिन्दगी और मौत के बीच में पड़ चुकी हो और प्रदेश व देश की सरकारें उनका कोई हल निकालने की जगह उन पर और भी घातक प्रहार कर रही हों. फेसबुक पर सक्रिय लोग चाहे जितनी भी त्वरित टिप्पणी कर दिये हों लेकिन बुनकरों के भयावह जीवन की जानकारी तो उनके पास है ही. जानकारी है तो समझ भी इतनी साफ़ बन गयी है कि इतने ख़राब हालात में आत्महत्या कोई आश्चर्यजनक बात कैसे हो सकती है? जहाँ खाने का ठिकाना न रह गया हो वहां आदमी कब तक दीवाल थामे खड़ा रह सकता है?

अगर थोडा पीछे चलिए तो बुनकरों के यहाँ यह ठिकाना कब था? आठवें दशक में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बनारस के बुनकरों पर एक उपन्यास लिखा– ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’. यह बनारस के बुनकरों की अंदरूनी जिन्दगी की दास्तान है . उनकी गरीबी, बदहाली, बीमारी और मौत के मुहाने तक फैली जिंदगी इसके पन्ने दर पन्ने पर फैली है. बीते पैंतीस-चालीस वर्षों में बहुत कुछ बदल भी चुका है लेकिन बुनकर और गद्दीदार का फर्क बहुत अधिक नहीं बदला है. उसमें एक मुख्य किरदार मतीन है जो सरकारी योजना का लाभ लेकर अपने निजी करघे का सपना देखता है जिससे वह चार पैसा अधिक कमा और बचा सके ताकि अपनी क्षयग्रस्त बीवी अलीमुन का इलाज करा सके और अपने एकमात्र बेटे को स्कूल भेज सके, लेकिन इसके लिए बुनकरों की एक सोसायटी होना जरूरी है. किसी तरह वह बीस बुनकरों को अपनी योजना समझाकर सोसायटी बनाने के लिए तैयार कर लेता है लेकिन एक चुनौती और है कि सभी बुनकरों को दो-दो सौ रुपये देकर बैंक में सोसायटी का खाता भी खुलवाना है. अब फंसा पेंच. किसी के पास दो सौ रुपये रक्खा तो है नहीं कि जेब में हाथ डाला और निकाल कर दे दिया. यह दो सौ रुपया एक गैर-मामूली पहाड़ है. और सचाई यह है कि जिसकी साड़ी पुजती है वह जब गद्दीदार के यहाँ जाता है तो कभी मत्ती-छीर के नाम पर तो कभी बाकी के नाम पर अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा गंवाकर आता है. बचे रुपयों में घर का राशन, बिजली-पानी, दवा आदि डरावनी खाइयों की तरह मौजूद हैं. दो सौ रूपये का पहाड़ चढ़ने की कोशिश करते हैं कि अचानक किसी न किसी खाई में लुढ़क जाते हैं. सभी यह सपना देख रहे हैं कि काश! उनका अपना करघा हो, लेकिन क्या कहा जाय!

बेचारा मतीन बार-बार लोगों के घर जाकर रूपये का तगादा करता है और बाज़ दफा तो उसे अहसास होता है कि वह भीख मांग रहा है. उसके किरदार की खासियत यही है कि वह पक्का सपना देखता है. आखिर कई महीनों की मुहिम के बाद वह तीन हज़ार रूपये इकट्ठा कर लेता है और ख़ुशी-ख़ुशी बैंक के मैनेजर के पास फार्म और पैसा लेकर जाता है .

कितनी अच्छी बात है कि मज़बूत आदमी जो सपना देखता है उस पर डटा रहता है, लेकिन मतीन पर तो वज्रपात हुआ. मैनेजर ने उसे धमकाते हुए कहा कि चूतिया समझते हो! चार सौ बीसी करने आये हो! अब तुम जाओगे जेल. मतीन उजबक की तरह खड़ा पूछ रहा है कि हुआ क्या. मैनेजर ने बताया कि बुनकरों की सोसायटी तो बन चुकी है जिसके चेयरमैन इलाके के प्रमुख गद्दीदार हाजी साहब हैं. बैंक कोई धर्मखाता थोड़े चला रहा है कि जो चाहे मुँह उठाये सोसायटी बनाने चला आये. तो हुआ यह कि मतीन अपना सा मुँह लेकर रह गया. उसकी सोसायटी नहीं बनी. अपने करघे का सपना टूट गया. और कुछ ही दिनों बाद हाजी साहब की सोसायटी में सरकार के लाखों रुपये आ गए. उनके पौ बारह हुए जाते हैं. जल्दी ही उनके घर में एक भाई विधायक भी बन गया. एक लड़का पडोसी बुनकर की लड़की के साथ ऐसी मनमानी करता है कि स्कित्जोफ्रेनिक बनाकर छोड़ देता है, लेकिन हिम्मत किसमें है जो हाजी साहब के कुरते पर धूल फेंकने की कोशिश करे. मतीन क्या कर लेगा? बीवी अंततः चल बसती है. कितना फर्क है. वह भी अंसारी और हाजी साहब भी अंसारी, लेकिन अंसारी-अंसारी में कितना फर्क है.

क्या यह कहानी आज बदली है? जी नहीं. बनारस में बुनकर अंसारी मरने की कगार तक जा पहुंचा है और गद्दीदार अंसारी हवा में बातें कर रहा है. कई साल तक बनारस के बुनकरों के बीच सक्रिय रहे अफलातून देसाई बताते हैं कि नयी परिस्थियों में बनारस के गद्दीदारों का कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन बुनकर आज सड़क पर हैं. अधिकतर के काम बंद हो चुके हैं और वे दूसरी जगहों पर जाकर मेहनत-मजूरी करके जीवन चला रहे हैं. बनारस के बुनकरों के मुहल्लों में जहाँ घर-घर में हथकरघे हुआ करते थे अब वे बीते ज़माने की स्मृतियाँ रह गये हैं. पॉवरलूम ने लोगों के हाथ के हुनर पर ताला लगा दिया है. दूसरी बात कि पॉवरलूम गरीब बुनकरों की पहुँच से बाहर की चीज हो गये हैं. कम लागत से अधिक उत्पादन और ज्यादा मुनाफा अमीरों के लिए तो बरदान ही साबित हुआ है. गरीबों की कौन पूछने वाला है.

इसके उलट सरकार ने बुनकरों को लेकर एक अलग विद्रूप रचा है. सबसे पहले रेशम की आवक कम होने से बिनकारी का काम घटने लगा और इस पर कोई भी ध्यान नहीं दिया गया. काम चलने की ही जहाँ परवाह न हो वहां पुनर्वास और बेहतर स्थिति की कल्पना क्या की जा सकती है. बुनियादी सहूलियत बनाने की जगह एक सफ़ेद हाथी खड़ा कर दिया गया है बुनकर फेसिलिटेशन सेंटर. शहर के बाहर निछद्दम में एक शानदार और भव्य इमारत जिसे देखकर विदेशी पर्यटक खुश भले हो लें और बनारस के लोग विकास-विकास गाते हुए नाचने लगें, लेकिन वास्तव में यह वह जगह है जहाँ जाते हुए बुनकर सहज नहीं रह सकता. उसका कौन सा काम यहाँ निसरता है? शायद यह गद्दीदार अंसारियों के लिए बनाया गया हो. और इस बात से क्या इंकार किया जा सकता है कि बुनकरों के नाम पर चलने वाली योजनाओं पर बंदरबांट होती हो? जिस देश में कागज़ पर तालाब लबालब हों और सड़कें गड्ढामुक्त; जिस देश में दूसरे के सर्टिफिकेट पर एक-दो नहीं दर्जनों जगह एक ही व्यक्ति नौकरी कर ले; जिस देश में झूठी बैलेंसशीट दिखाकर देश दुनिया के बैंकों से पैसा लिया जा सकता हो; वहां इसमें कितनी ज्यादा गुंजाइश हो सकती है कि बुनकरों के नाम पर गैर-बुनकर वहां के सरमाये के हिस्सेदार हों .

मनीष शर्मा एक और भयावह बात की ओर इशारा करते हैं. वे कहते हैं कि लॉकडाउन ने बुनकरों को भुखमरी और मौत के कगार पर ला खड़ा किया है. काम चलने का कोई आसार नहीं है. ऊपर से उत्तर प्रदेश सरकार ने बिजली का दाम बहुत ज्यादा बढा दिया है. पहले जहाँ हज़ार-डेढ़ हज़ार रुपये बिजली का बिल आता था वहीं अब मनमाने ढंग से कहीं तीस हज़ार तो कहीं चालीस हज़ार आ रहा है. कहीं कोई सुनवाई नहीं है. पॉवरलूम वाले अलग रो रहे हैं कि अगर ऐसा ही रहा तो काम बंद करना पड़ेगा.

बनारस में बुनकरों ने कई बार विरोध में मुर्रीबंदी की लेकिन अब हालात उससे भी आगे जा चुके हैं. मुर्रीबंदी का असर हथकरघे वाले दिनों में ज्यादा होता था. अब पॉवरलूम का बोलबाला है और इसकी संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि सारे के सारे बुनकर सड़क पर निकल आयेंगे, बल्कि अब तो वे बिनकारी की अर्थव्यवस्था से ही बहिष्कृत हो रहे हैं. अब उन्हें कौन पूछने वाला है. मुट्ठी भर गद्दीदारों और पॉवरलूम मालिकों को भी अकेले ही पड़ना है और अब शायद बुनकरों के सवाल का सड़क पर व्यापक असर नहीं होगा. कम से कम जब तक हर हाथ के लिए काम की मांग नहीं उठेगी तब तक कोई असर और हासिल नहीं होने जा रहा है.

तो फिर रास्ता क्या है? गलियों के दोनों किनारों पर बजबजाती नालियों से एकाध फुट ऊपर बने दरवाजों के भीतर घुटती जिंदगियों का क्या होगा? उनके भीतर से उठती भूख की पुकार कहाँ तक जाएगी? जिस काम से बनारस की एक-तिहाई आबादी अपना जीवन चला रही थी उसका भविष्य क्या है? और कई दशकों की जद्दोजहद से बर्बादी के कगार पर पहुंचे इतने विशाल मानव समुदाय का क्या होगा?

चार साल पहले मैं शिवाला इलाके में मक़सूद अंसारी के घर गया था. उनके अधिकांश काम बंद थे. बस अमेरिकी सैनिकों के कोट पर लगने वाले बैज का काम चालू था. उन्हीं दिनों स्थानीय शायर सलीम शिवालवी भी टकराए. उनका भी जरदोजी का काम बंद हो चुका था. वे दूसरे कामों में अपना भविष्य ढूंढ रहे थे और शायरी भी उनके लिए एक चीज़ थी जिनमें वे उम्मीद देखते थे और मुशायरों में कहीं मंजिल सी थी. सलीम भाई ने बिनकारी को लेकर एक कता सुनाया था –

कहाँ चल रही आज ढरकी नरी है
मशीनों के आगोश में बुनकरी है
न क्योंकर करे ख़ुदकुशी आज बुनकर
तबाही के पहलू में कारीगरी है!

इन पंक्तियों में जो दृश्य और हालात आये हैं क्या वे कोई आयरनी हैं? मशीनों के आने से बुनकरी का चौपट होना, बेरोजगारी, आत्महत्या और पलायन. मक़सूद अंसारी के यहाँ बनते बैज, अमेरिकी साम्राज्यवाद की बढ़ती दखल और भारतीय कॉर्पोरेट का बेहिसाब लालच?

मनीष भाई कहते हैं कि बुनकरों के मन में बहुत गुस्सा है. मुहाना कहीं भी खुल सकता है. हको-हुकूक की बड़ी लड़ाई में भी और आत्महत्या में भी. तब से मैं लगातार सोच रहा हूँ कि काश! फेसबुक की वह तस्वीर सच न हो. जरूरत क्या है ऐसा देखने की. हमारे पास संघर्ष के लिए मुद्दों की क्या कमी है!!


कवर तस्वीर दक्षिण भारत में एक बुनकर की खुदकुशी की है जिसे शनिवार को बनारस का बताकर सर्कुलेट किया गया था सोशल मीडिया पर, तस्वीर केवल प्रातिनिधिक उपयोग के लिए है


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