बात तो मौज-मस्ती की ही थी!
मुझे तो माननीय भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबड़े साहब की जीवंतता अद्भुत लगी। औपचारिकताओं का लबादा उतारकर वे किसी सुभक्त की महंगी मोटरसायकिल से दिल्ली की सड़कों पर निकल गये, हालांकि उनकी वायरल तस्वीर देखकर मैं पहचान नहीं पाया कि ये वही हैं। लेकिन बात जब अनेक पोस्टों से बार-बार होने लगी तो मैंने मिलान किया। वही थे। लेकिन मुझे कतई बुरा नहीं लगा। बल्कि अच्छा लगा कि जस्टिस साहब में अभी कितनी ज़िंदादिली है।
एक तरफ हमारा देश लगातार बूढ़ा होता जा रहा है। उसकी चूलें हिली जा रही हैं। कोई भी इकाई ठीक से काम नहीं कर रही है। रेल काम नहीं कर रही है। खेल काम नहीं कर रहा है। सेल काम नहीं कर रहा है। गेल काम नहीं कर रहा है। भेल काम नहीं कर रहा है। सब कबाड़ हुआ जा रहा है लिहाजा प्रधान सेवक जी उसे इत्मीनान से बेचते जा रहे हैं। जनता के भी मन में यही भावना है इसलिए उसने चुप रहना ही अच्छा समझ लिया है। संसद पुरानी हुई जा रही है इसलिए एक नयी संसद बनायी जा रही है। पुरानी वाली संसद में नेहरू जी पहले प्रधानमंत्री थे। नयी वाली में पहले प्रधानमंत्री मोदी जी रहेंगे। पुरानी कांग्रेस बदल रही है। पुराना संघ बदल रहा है। सबके पीछे एक बड़ा कारण है– अप्रासंगिकता। हिलती हुई चूलें। और ऐसे विपरीत समय में जस्टिस बोबड़े साहब का इतनी शानदार मोटरसाइकिल पर खुलेआम घूमना उन्हें लोकजीवन का आदमी बनाने के लिए काफी है। वरना कौन नहीं जानता सुप्रीम कोर्ट के जज लोक को कोई महत्व नहीं देते। लोक उनके लिए प्रायः घृण्य होता है। वे अक्सर लोक के फैसले बहुत जल्दी निपटा देते हैं। लेकिन प्रधान न्यायाधीश का लोक में ऐसे घूमना पूरे इतिहास को बदल देने की शुरुआत है।
मैंने ढेरों कहानियों में पढ़ा है कि पुराने जमाने में अनेक राजा-बादशाह ऐसे हुआ करते थे जो भेस बदल कर लोक में पहुँच जाते थे। वहाँ वे पहचान छुपाये लोगों से मिलते-जुलते और उनके दुख-सुख को सुनते थे। उनके साथ हुए अन्याय की बात सुनते थे और खड़े-खड़े न्याय कर देते थे। जनता जय-जयकार कर उठती थी। भ्रष्ट अफसर, मंत्री भयभीत हो जाते थे कि न जाने किस भेस में राजा का सामना करना पड़ जाय इसलिए कम से कम उसे भरोसा होने तक तो ठीक से काम करें। शिव ने अनेक बार भेस बदल कर लोगों की भक्ति की परीक्षा ली है। अनेक देवताओं ने इस पद्धति का सहारा लिया है। भेस बदलना भारत की विशिष्ट परंपरा है। अगर उस क्रम में देखा जाय तो तो जस्टिस बोबड़े ने भारतीय परंपरा का विस्तार किया है। नया आयाम दिया है। मोटरसाइकिल पर सवार उनकी हेलमेटविहीन फोटो मुझे एक नयी उपलब्धि लगती है। उन्होंने औपचारिकताओं के पाखंड में घुट रहे जीवन को सांस देने की बेमिसाल कोशिश की है। और ऐसे में उनकी सराहना की जानी चाहिए।
लेकिन कहते हैं कि दुखी व्यक्ति कबीर की तरह तल्ख हो जाता है। वह सुख को देखता है तो उसे दुख याद आता है। मेरे एक बहुत अनन्य मित्र जनता से बहुत जुड़े हुए थे। उनको जनता के भोजन का इतना गहरा ज्ञान था कि सब्जी के काटे जाने के तरीके से वे समझ जाते कि कौन किस वर्ग से आता है। किसके यहां कितनी मेहनत से रोटी का जुगाड़ हो पाता है। इसलिए कभी किसी के यहां उन्हें दो प्रकार की सब्जी और दाल आदि मिल जाती तो वे गुस्से से बौखला जाते। घर या बाहर कहीं भी होते तो लोगों पर बिगड़ खड़े होते। यह क्या अय्याशी है। जनता आलू-प्याज को तरसे और तुम लोग पकवान उड़ाओ? कैसे मुंह में पैठता है जी? छप्पन भोग तो उनके लिए गाली था। इसलिए प्रायः लोग उनकी थाली में आधी प्याज और एक मिर्च रख देते। मेरे मित्र को लगता कि वे वही खा रहे हैं जो मेहनत मशक्कत करने वाली जनता खा रही है। यह वास्तव में बहुत दुर्लभ भावना है।
हमारे आदरणीय प्रशांत भूषण जी ने प्रधान न्यायाधीश महोदय को बिना हेलमेट हरले डेविडसन मोटरसाइकिल पर देखा तो उनको भी जनता का दुख याद आ गया। उन्होंने अपने शब्दों में वही दुख दोहरा दिया कि कोरोना के डर से कोर्ट बंद है और आप इस तरह लोकजीवन में आ रहे हैं। हम सब जानते हैं कि कोर्ट में लाखों मामले हैं जिन पर सुनवाई नहीं हो रही है। कोरोना के डर ने सबको घर में बैठने पर मजबूर कर दिया। सबको जीवन प्यारा है। होना भी चाहिए। मास्क लगाना चाहिए। सेनीटाइजर से बीस सेकेंड तक हाथ धोना चाहिए। नाक में सुरसुरी महसूस हो तो कसकर छींकना चाहिए। नियमित रूप से काढ़ा वगैरह पीना चाहिए। यह जीवन का सवाल है। किसको इंकार हो सकता है। जीवन के लिए लोगों ने ताली-थाली बजाना स्वीकार कर लिया। जान है तो जहान है। प्रशांत भूषण जी को भी भला क्या ऐतराज हो सकता है? लेकिन उन्होंने प्रधान न्यायाधीश को ऐसे घूमते देखा तो रहा नहीं गया। उन्हें लगा कोरोना-वोरोना देश में है नहीं, बस देश को बनाया जा रहा है।
कोरोना होता तो प्रधान न्यायाधीश इस प्रकार क्यों घूमते ? आदमी डेयर वहां करता है जहां डूबने का खतरा न हो। बरमूडा त्रिकोण में वह अपनी नाव लेकर क्यों घूमेगा। तो इसका मतलब यह निकला कि प्रशांत भूषण ने कोरोना और देशबंदी के समीकरण पर सवाल खड़ा किया। यह सवाल महज सुप्रीम कोर्ट पर नहीं ठहरता बल्कि देश की सारी व्यवस्था तक जाता है। यह सरकार की कार्यप्रणाली और उसकी नीयत पर भी सवाल है। संसद भले बंद हो लेकिन तमाम काम हो रहे हैं। रेल का निजीकरण हो रहा है। मुकेश अंबानी की दौलत बढ़ रही है। और मुकेश अंबानी से मुझे कोई मतलब नहीं है। वे अमेरिका को भी खरीद लें। मेरी बला से। लेकिन मुकेश अंबानी की भाजपा सरकार से बहुत गहरी साथ-गांठ हैं। सरकार बेच रही है और वे खरीद रहे हैं। तो कहने का मतलब यह कि प्रशांत भूषण ने कोरोना को उतना भयानक नहीं माना जिसका बचाव न किया जा सके। बल्कि वह तो निर्बाध रूप से फैला ही जितना फैल सकता है। फिर जब कोई सार्वजनिक व्यक्तित्व निर्द्वंद्व घूम रहा है इसका मतलब खतरा बड़ा नहीं है। फिर क्या अदालतबंदी, क्या संसदबंदी, क्या बाज़ार बंदी! रोज़मर्रा के काम के साथ कोरोना से भिड़ंत हो।
लेकिन मुक्तिबोध एक जगह कहते हैं कि ‘वे मुझे और सताएंगे। और और सताएंगे। क्योंकि मैंने उन्हें नंगा देख लिया है।’ ऐसे में अगर कथित रूप से अवमानना होती है या मान ली जाती तो इसका मतलब यह नहीं कि प्रशांत भूषण ने केवल अदालत की आलोचना की या जजों की आलोचना कर दी। नहीं। उन्होंने सारी की सारी सत्ता-व्यवस्था की आलोचना कर दी है जो फिलहाल सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों को नागवार गुजरा है। अधिक ईमानदारी से कहा जाय तो प्रशांत भूषण ने उस कॉकस के मर्म पर चोट कर दी जिसे झेलना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। और जब झेलना मुम्किन नहीं है तो सजा उन्हें मिलेगी। लेकिन प्रशांत भूषण भी कोई इंसान हैं। उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया।
कल मैं दिन भर सोचता रहा कि प्रशांत भूषण से अपना क्या रिश्ता है। क्या हो सकता है? कभी मुलाक़ात नहीं हुई। कोई बात भी नहीं हुई। फिर भी यह आदमी इतना मन के भीतर क्यों घुसा हुआ है? क्यों मुझे प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी ठहराये जाने की इतनी पीड़ा है कि बार-बार उनके बारे में सोच रहा हूँ गोया वे मेरे मित्र हों। उनका तनकर यह कहना कि वे जेल जाना पसंद करेंगे लेकिन माफी नहीं मांगेंगे- यह वाक्य गर्व से भर गया। क्या यह महज़ जुमला भर हो सकता है? नहीं। जैसे लगता है प्रशांत भूषण ने मेरी भी इच्छा को एक वाक्य दिया है। कभी भी किसी सत्ता के सामने झुकने से ज्यादा जरूरी है कि जेल का रास्ता चुना जाय क्योंकि माफी दोबारा संघर्ष का मौका नहीं आने देती। माफी संघर्ष की कोई परंपरा नहीं बनाती। माफी से सावरकर पैदा होते हैं लेकिन भगत सिंह कभी नहीं पैदा होते। भगत सिंह का मतलब यह होता है कि असेंबली में बम फेंकने के बाद अदालत में झूठ नहीं बोल सकते। जेल जा सकते थे और जेल गये। फांसी पर झूल सकते थे लेकिन माफी नहीं मांग सकते। भगत सिंह ने जेल की अभेद्य दीवारों को तोड़कर अपने संघर्ष और विचारों को बाहर उड़ा दिया। उस परंपरा को लोगों के बीच सुरक्शित रहने के लिए छोड़ दिया जिस परंपरा ने उन्हें अपना इतिहास चुनने की समझ दी। प्रशांत भूषण ने भी माफी नहीं मांगी। उन्होने जेल को चुना।
वे जानते हैं कि माफी उनकी ज़िंदगी भर की कमाई और जनता के लिए किया गया उनका संघर्ष एक मिनट में खत्म कर देगी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा कतई नहीं करेगा। और उन्होंने भी नहीं किया। फिर वे किस मुंह से उन संघर्षों को अपने सरोकारों का मेयार बता सकेंगे जिनके लिए उन्होंने हरसंभव जोखिम उठाया? वे सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठम अधिवक्ताओं में से हैं। वे स्वयं अपना केस लड़ सकते हैं। वे कोई भी सजा भुगत सकते हैं। लेकिन वे अपनी जिंदगी को भय के साये में लपेटकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की अवमानना नहीं कर सकते। वे किसी भी सूरत में गलत उदाहरण नहीं पेश कर सकते। प्रशांत भूषण ने माफी न मांगने और जेल जाने की बात कहकर अपनी परंपरा को हमारे जैसे साधारण लोगों तक फैला दिया है। और जब मैं कल से उनके बारे में सोच रहा हूँ कि उनसे मेरा क्या रिश्ता है तो लग रहा है कि अग्रज के रूप में प्रशांत भूषण कह रहे हैं कि कभी भी गलत उदाहरण नहीं पेश करना चाहिए। माफी वह जहरीला पानी है जो मानवीय गुणों और विचारों की लहलहाती फसल को हमेशा के लिए सुखा डालती है। माफी से सावरकर पैदा होते हैं, प्रशांत भूषण नहीं। और सच यही है कि इस देश को सावरकर जैसे ‘वीर’ की नहीं, प्रशांत भूषण जैसे इंसान की जरूरत है।
प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट में भारत की मजबूर और मजलूम जनता की एकमात्र आवाज हैं। उनके सवाल वास्तव में उस जनता के ही सवाल हैं। वह जनता कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़, ओडिशा के लूटे जा रहे इलाकों की प्रतिरोध कर रही जनता है। लेकिन प्रशांत भूषण दरअसल भारत के बहुजनों के सबसे महत्वपूर्ण विधिक प्रतिनिधि हैं जो सुप्रीम कोर्ट जैसी महान संस्था पर ब्राह्मणों के शिकंजे से लगातार अपने हक खो रहे हैं। वे निडर होकर एक निरंकुश सरकार के खिलाफ उसी जनता की तरफदारी करते हैं। इसलिए जब वे बोलते हैं तो बहुत सारी पॉलिश की हुई चीजों का मुलम्मा छूट जाता है और सारी नकली चीजों की कलई उतर जाती है। उन्हें झेल पाना नामुमकिन है। इसलिए उन्हें सबक सिखाने का कोई भी मौका छोडना इस सत्ता-व्यवस्था के बूते की बात नहीं है। इसलिए अच्छा ही है कि उनकी बात का गंभीरता से नोटिस ही नहीं लिया गया बल्कि जल्दी-जल्दी उस पर बहस करके फैसला भी सुना दिया गया। देश-दुनिया के बहुत से लोग प्रशांत भूषण के पक्ष में खड़े हैं और उनके जीवट और साहस को सलाम कर रहे हैं। हो सकता है कल को इस फैसले पर पुनर्विचार हो और प्रशांत भूषण जेल चले जाएं लेकिन उन्होंने एक बर्बर सत्ता-व्यवस्था को उसकी सही जगह बता दी, यह कोई कम बड़ी बात है!