डिक्टा-फिक्टा: चीन, रूस और ईरान की उभरती तिकड़ी के बीच अमेरिकी पाले में भारत


साउथ चाइना सी में चीन और अमेरिकी नौसेना के बीच तनाव की ख़बरें भारतीय मीडिया में ख़ूब चलायी जा रही हैं, लेकिन मसले के विविध पहलुओं पर चर्चा की जगह समुद्र में खड़े नौसैनिक बेड़ों के वीडियो दिखाकर कभी तीसरा विश्वयुद्ध होने की बात चहकते हुए की जा रही है, तो कभी चीन के बर्बाद होने की भविष्यवाणी की जा रही है. इसमें अचरज की बात नहीं है कि कुछ दिन पहले चीन और ईरान के बीच हुए अहम समझौते की ख़बर को हमारे मीडिया में लगभग अनदेखा कर दिया गया. बहुत आहिस्ते से यह बता दिया गया कि ईरान ने चाबहार रेल परियोजना में निवेश न करने की वजह से भारत से क़रार तोड़ने का ऐलान कर दिया है.

यह भी दिलचस्प है कि ईरान में भारत के राजदूत रह चुके केसी सिंह ने एक चैनल पर कह दिया कि चाबहार परियोजना बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी और उसे हमारी सरकार ने बढ़ा-चढ़ा कर जनता के सामने पेश किया था. हर बात पर प्रचार का ढोल पीटने की आदत सरकार और मीडिया को ज़रूर है, लेकिन ईरान, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, मध्य एशिया और अरब तक सीधे तथा परोक्ष रूप से आर्मेनिया, रूस, यहां तक कि यूरोप तक मुंबई से पहुँच को आसान बनाने वाली परियोजना किसी भी तरह से कम महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है! मुंबई से चाबहार की दूरी 1400 किलोमीटर से कुछ ही अधिक है. यह भी मज़ेदार है कि चाबहार को कम अहम बताने वाले राजदूत सिंह ट्विटर पर लिखते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा और सचिन पायलट के मामलों के बीच हम झूल रहे हैं और उधर अमेरिका ने साउथ चाइना सी में आवाजाही की आज़ादी को लेकर अपनी नीति को बदल दिया है, जिस पर हमारा ध्यान नहीं गया.

दूसरी तरफ़ ईरान ने यह स्पष्ट किया है कि चाबहार रेल परियोजना को लेकर भारत से कोई क़रार ही नहीं हुआ था, सो क़रार टूटने का सवाल नहीं है. तकनीकी रूप से यह बात सही है, पर एक असलियत यह भी है कि भारत पूरी परियोजना में मुख्य भागीदार है और बदलती परिस्थितियों में यह भागीदारी सिमटती हुई दिख रही है. ईरान का स्पष्टीकरण द्विपक्षीय संबंधों को संभालने की एक कोशिश प्रतीत होता है.

सोचिए, चाबहार से न केवल ईरान के साथ हमारा सहयोग बढ़ता, बल्कि हमारे व्यापार के लिए भी बड़ा दायरा मिलता. अफ़ग़ानिस्तान में हम ज़्यादा प्रभावशाली हो सकते थे. मध्य एशिया से तार जुड़ सकते थे. पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का विकास चीन कर रहा है तथा ऐसी ख़बरें भी आती रहती हैं कि वहां चीन अपना नौसैनिक बेड़ा भी रख सकता है. अगर सामरिक पक्ष को अलग भी रख दें, तो यह अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है कि आमने-सामने स्थित ग्वादर और चाबहार बंदरगाहों से चीन कितनी व्यावसायिक बढ़त हासिल कर सकता है और भारत की अनुपस्थिति से भारत को क्या नुकसान हो सकता है.

साउथ चाइना सी में हमारे लिए क्या रखा है और वहां के झगड़े से हमारा क्या लेना-देना है? अगर हम सिर्फ़ इस बात से ख़ुश होना चाहते हैं कि अमेरिका या अन्य देश चीन पर दबाव बना रहे हैं, तो क्या ही कहा जा सकता है! या फिर हम यह मानें कि चीन और अमेरिका के बीच तनातनी में हम अमेरिका के पाले में खड़े हैं और राष्ट्रीय हित से संचालित हमारी कोई स्वतंत्र विदेश नीति नहीं है या नहीं होनी चाहिए.

ख़ैर, भारत के आयाम से अलग चीन और ईरान के समझौते तथा साउथ चाइना सी की हलचलों पर नज़र डालते हैं. समझौते के मुताबिक, चीन आगामी 25 साल में ईरान के ऊर्जा और इंफ़्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा. इसका मतलब यह है कि चीन की ज़रूरतों के लिए समुचित तेल मिलने में बहुत सहूलियत हो जायेगी. रूस की तरह ईरान भी क़ीमतों में छूट देगा. इस संबंध में यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि चीन अपना भुगतान डॉलर में न कर या तो अपनी मुद्रा में करेगा या किसी और मुद्रा में. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि विभिन्न पश्चिमी देशों की तरह चीन भी डिजिटल मुद्रा पर बहुत तेज़ी से काम कर रहा है तथा 5जी व अन्य तकनीकी बढ़त की वजह से इसमें उसका काम भी बहुत आगे बढ़ चुका है. भुगतान की यह व्यवस्था न केवल अमेरिकी डॉलर को धक्का पहुँचायेगी, बल्कि ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों को भी बहुत हद तक बेअसर कर देगी.

वैश्विक व्यवस्था और भू-राजनीति पर अमेरिकी व पश्चिमी वर्चस्व के लिए यह समझौता बहुत बड़ा झटका है क्योंकि मध्य-पूर्व में चीन को ईरान का रणनीतिक साथ मिल सकेगा. इसके महत्व को समझना हो, तो सीरिया और रूस के संबंधों को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. कुछ दिन पहले पाँच टैंकर जहाज़ों को वेनेज़ुएला भेजकर ईरान ने भी साफ़ इंगित कर दिया है कि अमेरिकी पाबंदियों की वह अब ज़्यादा परवाह नहीं करेगा.

तेल की ख़रीद में आसानी इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि चीन दुनिया का सबसे बड़ा आयातक देश है. कोरोना संकट से तेज़ी से उबरते चीनी अर्थव्यवस्था के तेवर का एक उदाहरण बीते मंगलवार को मिला, जब कच्चे लोहे की क़ीमतें साल भर में सबसे ज़्यादा हो गयीं क्योंकि चीन ताबड़तोड़ आयात में लगा हुआ है. इस साल मई की तुलना में जून में चीन का लोहा आयात 17 फ़ीसदी बढ़ गया, जो न केवल कोरोना से पहले के स्तर से ऊपर है, बल्कि अक्टूबर, 2017 के उच्च स्तर से भी अधिक है. बाज़ार के विश्लेषक बता रहे हैं कि जून में पूरे वैश्विक माँग का 60 से 70 फ़ीसदी हिस्सा चीन का हो सकता है, जो कि लोहे के इतिहास में अभूतपूर्व है. इस साल की दूसरी तिमाही में यह हिस्सेदारी 75 फ़ीसदी हो सकती है. यह सब तब हो रहा है, जब पूरी दुनिया में लोहे का कारोबार पिछले साल से कम रहने का अनुमान है. कोरोना काल में चीन से मेडिकल वस्तुओं का निर्यात तेज़ी से बढ़ा है.

ऐसे में ईरान के साथ उसके समझौते के महत्व को समझा जा सकता है. इसके साथ ही चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट-रोड परियोजना को बड़ा आधार मिला है. यदि कोई इस परियोजना के कूटनीतिक आयाम को समझना चाहता है, तो उसे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में हांगकांग के मुद्दे पर चीन को मिले बड़े समर्थन को देखना चाहिए, जिसमें अधिकतर देश इस परियोजना के भागीदार हैं. सुनने में यह भी आ रहा है कि जल्दी ही ईरान, रूस और चीन के बीच एक बड़ा सामरिक समझौता हो सकता है.

अब आते हैं साउथ चाइना सी में मौजूदा तनाव पर. इस इलाक़े में अमेरिका ने अपने नौसैनिक बेड़े की तैनाती के साथ कह दिया है कि ‘दुनिया साउथ चाइना सी को चीन द्वारा अपना समुद्री साम्राज्य समझने की अनुमति नहीं देगी’ और ‘अमेरिका अपने दक्षिण-पूर्वी सहयोगी देशों के साथ खड़ा है.’ इसके जवाब में चीन ने कहा है कि इस क्षेत्र में स्थिति सामान्य है और अमेरिका की कोशिश तनाव पैदा करने की है. अमेरिका जहां अंतरराष्ट्रीय नियमों और भौगोलिक स्थितियों का तर्क दे रहा है, वहीं चीन 1948 के नक़्शे को सामने रख रहा है, जिस पर तब किसी भी देश ने आपत्ति नहीं जतायी थी. चीन और अन्य देशों के दावों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है, इसलिए इस मसले के भू-राजनीतिक आयाम पर कुछ चर्चा ज़्यादा ज़रूरी है.

पहली बात यो यह है कि साउथ चाइना सी में नौसैनिक ताक़त दिखाने की कोशिशें इंगित कर रही हैं कि दोनों देशों की आपसी रार व्यापारिक तनातनी से बहुत आगे बढ़ चुकी है. चूँकि आसियान देशों के साथ चीन का व्यापारिक संबंध लगातार बढ़ रहा है और साउथ चाइना सी को लेकर भी इनकी आपसी चर्चा जारी है, सो चीन यह कह रहा है कि आसियान के कंधे पर अमेरिका बंदूक नहीं रख सकता है. इस क्षेत्र में तीन दशकों से अधिक समय से कोई लड़ाई नहीं हुई है और आवाजाही व संप्रभुता को लेकर आपसी समझौते और बातचीत भी होती रही है.

इस मसले पर सिंगापुर के कूटनीतिज्ञ व बौद्धिक किशोर महबूबानी की टिप्पणी बहुत अहम है. इनकी एक किताब ‘हैज़ चाइना वन: द चाइनीज़ चैलेंज टू अमेरिकन प्राइमेसी’ कुछ महीने पहले ही छपी है. वे लंबे समय तक सिंगापुर के विदेश मंत्रालय से संबद्ध रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि रहे हैं तथा सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष रहे हैं. फिलहाल वे सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी में विशिष्ट फ़ेलो हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में 2018 में दिये एक व्याख्यान में उन्होंने रेखांकित किया था कि बीते डेढ़ सौ साल में अमेरिका को कभी भी रणनीतिक समायोजन कराने की मजबूरी नहीं रही है. दूसरी तरफ़, कुछेक मामलों को छोड़ दें, तो चीन अपने सीमा विवादों को सुलझाने में हमेशा नरम रहा है. उन्होंने यह भी कहा था कि अमेरिका के बावजूद चीन चाहे तो साउथ चाइना सी से क्षेत्रीय दावेदारों को 24 घंटे में बेदख़ल कर सकता है. ऐसा अमेरिका ने 1897 में किया था, किंतु चीन ऐसा नहीं करेगा और यह उसके संयम का संकेत है.

महबूबानी की यह बात भी अहम है कि साउथ चाइना सी में दावेदारी के खेल की शुरुआत चीन ने नहीं, बल्कि उसके पड़ोसियों ने शुरू की थी. चीन ने बस इतना किया कि दूसरों के दावे जहां दो-चार एकड़ के थे, उसने दो हज़ार एकड़ का दावा कर दिया. जहां तक समुद्री आवाजाही की आज़ादी का सवाल है, तो महबूबानी के इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि ऐसी आज़ादी का अगर अमेरिका से भी बड़ा कोई हक़दार है, तो वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश चीन है. उनका मानना है कि आख़िरकार साउथ चाइना सी के मसले का समाधान अलग-अलग द्विपक्षीय समझौतों से होगा. अमेरिका बार-बार यह कहता है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र के समुद्री सहमति के प्रावधानों को मानना चाहिए. इस पर चीन का जवाब है कि अगर यह सहमति इतनी ही महत्वपूर्ण है, तो फिर अमेरिका ने उसे अब तक स्वीकार क्यों नहीं किया है. साउथ चाइना सी में अमेरिकी ताक़त का प्रदर्शन असल में उसकी अनैतिकता की ही एक मिसाल है.    



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