एक विद्वान टिप्पणीकार ने बातचीत के क्रम में कहा था कि जिस बात को अंग्रेजी वाला अपने वक्तव्य की शुरुआत में सेकेंडों में खत्म कर देता है, उसी को हिंदीवाले आधे घंटे तक जलेबी बनाकर घुमाएंगे, जबकि उनकी बात शुरू भी नहीं होगी, समय भले खत्म हो जाए। यही बात हिंदी के एक लेखक ने भी पूछी थी, ‘’बोले बहुत, पर कहा क्या’’? आसपास के माहौल को देखिए, अमिताभ कांत का दुख समझ में आएगा।
हम औत्सविक परंपरा के लोग हैं। मृत्यु में भी उत्सव मनाते हैं, फटेहाली में भी, समृद्धि में भी और कंगाली में भी। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में जहां पूरी दुनिया दुबक कर कोने में पड़ी है, हमारे यहां देखिए। बिहार चुनाव पूरे गाजे-बाजे और रास-रंग के साथ, तमाम भीड़ के साथ और हरेक एहतियात को किनारे रख कर निबटा दिया गया। अब, शादियों का मौसम है तो ‘ये देश है वीर जवानों का…’ की धुन पर नाचते-थिरकते वीर-बांकुरों की टोली कहीं भी, किसी भी सड़क पर आपको कोरोना की ऐसी-तैसी करती नज़र आ जाएगी।
उत्सव के लिए बस बहाना चाहिए। बहाना कोई मुद्दा भी बन जा सकता है। देश हमारा उत्सव-प्रधान है, उसी तरह मुद्दा प्रधान भी है। जब भी आपको लगेगा कि अरे, दो-चार दिनों से कुछ नहीं हो रहा है, तभी कुछ न कुछ ‘कांड’ हो जाएगा। हम लोग प्रकृति से इतने त्योहार-प्रिय हैं कि हमने गंभीर मुद्दों पर होने वाले प्रदर्शनों-प्रतिकारों को भी ‘मेगा-इवेंट’ बना दिया है। सहस्राब्दि के दूसरे दशक के शुरुआती वर्षों में मुद्दा आधारित विमर्श और आंदोलन को मध्यवर्ग का उत्सव बनाने का काम अन्ना हजारे-केजरीवाल की युति ने किया था, जब दिल्ली का खाया पीया अघाया सर्विस क्लास भ्रष्टाचार का वीकेंड विरोध आइसक्रीम खाते हुए करता था।
बीते दस वर्ष में ऐसे उत्सव कब हमारी सामाजिक-राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बन गए, पता ही नहीं चला। आज तमाम संस्थानों को बचाने की लड़ाई से होते हुए नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुआ आंदोलन, शाहीनबाग आदि से अब यह उत्सवधर्मिता दिल्ली के बॉर्डर पर जाकर टिक गयी है। पंजाबी वैसे भी उत्सवी मिजाज़ के लोग होते हैं। मौजूदा किसान आंदोलन जैसा औत्सविक दिख रहा है, वह मुद्दे के उत्सव बनने में मध्यवर्ग से संपन्न किसानों तक आए शिफ्ट को दर्शाता है। ऐसा खुशमिजा़ज़ किसान आंदोलन वाकई कभी अतीत में नहीं देखा गया। पूरा मीडिया किसान आंदोलन के भीतर के उत्सवधर्मी तत्वों को ही दिखा रहा है, भले ही उसका स्वर दूसरा हो। मनोरंजन के सामाजिक स्तरों में आया शिफ्ट देखने के लिए इतना जानना ही काफी है कि लोग अब न्यूज़-चैनल को सिनेमा या गानों-धारावाहिकों के चैनल की जगह देखने लगे हैं।
बात सीधी सी थी। किसानों को वे तीन कृषि कानून नहीं चाहिए थे, जो सरकार पास कर चुकी है। सरकार ने उन्हें पांच बार बातचीत के लिए बुलाया। जब संवाद का कोई साझा बिंदु ही नहीं था, तो पांच राउंड में क्या बात हुई होगी? वो भी घंटों? अमिताभ कांत वैसे ही दुखी नहीं हुए होंगे। इतनी बातचीत और नतीजा ढाक के तीन पात? कांत ने ‘टू मच डेमोक्रेसी’ का जिक्र किया और चुप हो गए। अब गेंद आलोचकों के पाले में थी। कांत के तीन शब्दों पर भी तीन दिन बहस चली। कांत अपनी बात से पलट गये। कांत पर दो दिन देर से शुरू हुआ हिंदी वालों का विमर्श अब भी चल रहा है।
हिंदीवाले लगातार बोलने की इस कला में खासे माहिर हैं। मसलन, हिंदी की वरिष्ठ कहानीकार मैत्रेयी पुष्पा जी को रह-रहकर यह ख्याल आता है कि महिलाओं का ‘सिंदूर’ लगाना बड़ी परिघटना है। भारत की स्त्रियों की हरेक मुश्किल का मूल उनको सिंदूर में ही दिखता है। अभी उन्होंने इसे लेकर फिर से फेसबुक पर कुछ लिखा है। आजकल की युवतियां, महिलाएं कोई अनिवार्य तौर पर सिंदूर नहीं लगाती हैं। महिलाएं अब तो सुहाग-चिह्नों के इस्तेमाल को ‘मिनिमल’ करती जा रही हैं। सिंदूर ही क्यों, बिछिया, चूड़ी, बिंदी आदि भी उनकी चिंता का अब बायस नहीं रहा है। दुनिया बहुत बदल चुकी है, लेकिन हिंदी का स्त्रीवाद अब भी सिंदूर पर अटका है। सिंदूर पर मैत्रेयीजी ने इतना बोला, लेकिन कहा क्या?
बड़ा संकट है! हमारे यहां बुद्धिजीवियों को अपने लेखन की नहीं, अपनी रचनात्मकता, सर्जनात्मकता की नहीं, ‘खबरों में बने रहने’ की चिंता ज्यादा होने लगी है। जिस सोशल-मीडिया को हमारे लिक्खाड़ कभी गाली देते थे, अब उसी पर प्रासंगिक बने रहने को कोई भी द्रविड़-प्राणायाम करने को तैयार हैं। लॉकडाउन में हमने लगातार देखा कि कैसे हिंदी की पुरानी पीढ़ी के लेखक-आलोचक और कवि खुद को फेसबुक लाइव में हास्यास्पद होने की हद तक प्रासंगिक बनाये रखने की चेष्टा करते रहे। ‘’आवाज़ आ रही है?’’ कोरोनाकाल का प्रतिनिधि वाक्य जैसा बन गया। जिसे देखो वही पूछता है, ‘’आवाज़ आ रही है क्या?” यह कोई नहीं पूछता बात समझ आ रही है क्या? बोलने और लगातार बोलने के क्रम में अर्थ सारे कहीं पीछे छूट गये। अभी सबकी चिंता अर्थ और शब्द से आवाज़ तक आकर सिमट गयी है।
आवाज़ तो बहुत आ रही है। खूब बोला जा रहा है। जिसे देखिए वो बोल रहा है। जिसे पता है वो तो बोल ही रहा है, जो कुछ नहीं जानता वो भी पूरे अधिकार के साथ बोल रहा है। हर मुद्दे पर हर आदमी बोल रहा है। किसी लोकतंत्र में एक लिहाज से यह बेहतर ही है कि लोग बोलें। हर बोलता हुआ आदमी लोकतंत्र को अपने अपने तईं समृद्ध कर रहा है। इन आवाज़ों से मिलकर पैदा हुआ कोलाहल लोकतंत्र को ‘’टू मच’’ बना रहा है। इस ‘’टू मच’’ का केवल अर्थ पकड़ में नहीं आ रहा।
मैं नहीं जानता कि अमिताभ कांत जब लोकतंत्र को ‘’टू मच’’ कह रहे थे तो उनका मूल आशय और मंतव्य क्या था। वे झूठ बोल रहे हों तो बात अलहदा है, जैसा कि सभी आलोचक एक स्वर में कह ही रहे हैं। हां, अगर लोकतंत्र वाकई इधर बीच ‘’टू मच’’ हो गया है या लग रहा है उनको, तो मैं यह जानने में वाकई दिलचस्पी रखता हूं कि इस ‘’टू मच’’ में कोई अर्थ है भी या नहीं। सवाल अमिताभ कांत के दुख का नहीं है, असल सवाल उनके कहे के पीछे छुपी अर्थछवियों का है। जिसे वे “टू मच” कह रहे हैं, कहीं वह मचमच तो नहीं?