हमारे प्रधानसेवक ने कहा, ‘आपदा में अवसर है’। मैंने सुना, ‘आपदा ही अवसर है’। अमेरिकी लोगों ने सुना, ‘आपदा का अवसर है’। फिर, यहां से वहां तक सब जुट गए अवसर को भुनाने और इसका लुत्फ़ उठाने में।
मौका संजीदा था, ग़मज़दा था। जॉर्ज फ्लॉयड नामक अश्वेत की पुलिसिया हिरासत में लिए जाने के दौरान हुई मौत का विरोध करना था। बात लेकिन निकली तो दूर तलक चलती गयी, काबू में न रही। अब अमेरिका दंगों की गिरफ्त में है। आपदा को अवसर में बदल दिया गया है। चचा गालिब ने कहा था, ‘इश्क पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब…“। आज वे होते तो कहते कि नफ़रत पर कहीं ज़ोर नहीं है, और ये ये आतिश भी नहीं, रंगे दोज़ख है। दावानल है, बड़वानल है।
अमेरिका में कोलंबस की मूर्ति ढाह दी जा रही है। पुलिस की कारों पर लोग मल-विसर्जन कर रहे हैं। सुपर-मार्केट लूटे जा रहे हैं। आदमी पर आदमी टूट पड़े हैं। पुलिस-प्रशासन नाकाम दिख रहा है। आग वहीं नहीं रुकी, ब्रिटेन तक पहुंच गयी। चर्चिल की मूर्ति तोड़ दी गयी। फिलाडेल्फिया में मथायिस बाल्डविन के बुत को तोड़ने की कोशिश हुई। असफल रहने पर उसके मुंह पर कोलतार पोत दिया गया। ये बाल्डविन न्यू जर्सी में जन्मे थे। जीवन भर गुलामी का विरोध किया, अश्वेत बच्चों को पढ़ाया, आज उन्हीं की मूर्ति पर ‘कॉलोनाइज़र’ और ‘मर्डरर’ लिख कर आपदा को अवसर में बदल दिया गया।
कोरोना का संकट अभूतपूर्व है, सारी मानवता के लिए। इसके परिणामस्वरूप क्या कुछ बदल गया है या बदलेगा, यह तो खैर भविष्य बताएगा। अभी एक चीज़ तो दिख रही है वो ये है कि एक समाज के तौर पर हम सभी का दिमागी तवाजुन बदल गया है। बताइए, एक अश्वेत की मौत के नाम पर जो तथाकथित आंदोलन शुरू हुआ, वह पाखाना करने, मूर्तियां तोड़ने, म़ॉल लूटने और दंगा करने के अवसर में बदल गया। इसके बावजूद, सेलिब्रिटीज़ से लेकर टिक-टॉकिए तक ‘मोर पावर टु यू’ की अफ़ीम चाट कर इन दंगाइयों का हौसला बढ़ा रहे हैं।
हम भारतीय तो खैर ‘आपदा ही अवसर है’ में पुराने समय से यकीन रखते हैं। प्रधानसेवक कहें या न कहें, हम तो बल्कि ‘आपदा’ और ‘अवसर’ दोनों ही रच भी डालते हैं। जो चीज कहीं हो नहीं, हम उसका भी हौवा खड़ा कर या तो आपदा को बुला लेते हैं, या उसका अवसर गढ़ लेते हैं। कोरोना से पहले दिल्ली का हाल ज़रा याद कीजिए। एक कानून (जो संसद से पारित हो चुका था) के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन सड़क घेरने और दंगे तक पहुंच गया। हमारे छायावादी विमर्शक ‘यूं होता, तो क्या होता’ की तर्ज़ पर खेल गए। परिणाम? चार सौ से ऊपर एफआइआर, जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों ही लगभग बराबरी से दर्ज़ हैं। एक समुदाय से दूसरा समुदाय 10-12 एफआइआर ही पीछे होगा। सारे सेलिब्रिटी, चिंतक, एक्टिविस्ट, फिलहाल मास्क लगाने और हाथ धोने का ज्ञान दे रहे हैं। जिनके लिए अवसर को आपदा बनना था, वह बन चुका।
लोग सरकार को गाली दे रहे हैं, सरकार लोगों को आत्मनिर्भर बनने को कह रही है। इसी मौके का फायदा उठाकर गृहमंत्री विशाल वर्चुअल रैली कर डालते हैं। बना लिया न आपदा को अवसर। सबसे बड़ी पार्टी ने कहीं कोई चूक नहीं की। सबसे पहले, सबसे बड़ी डिजिटल रैली कर डाली। अब जलने वाले जो भी कहें, ‘लोगों का तो काम ही है कहना’!
दरअसल, गलती सारी इस कोरोना की है। हम उत्सवप्रिय भारतीयों को तीन महीने तक इसने घर में बिठाल दिया। अब आदमी करे तो क्या करे? आपदा को अवसर में ही तो बदलेगा! आप ज़रा खूबसूरती देखिए- हमने लॉकडाउन-1 से लेकर अनलॉक-1 तक किस कदर अवसर गढ़े? दूसरे-तीसरे दिन ही हज़ारों मजदूर सड़कों पर उतर आए। चलो आपदा है, अवसर है, पैदल ही घऱ चलते हैं। फिर, दो महीने तक वे ख़बर नहीं बने। आखिरकार, जब सरकार सब कुछ खोलने लगी, तो फिर से श्रमिक स्पेशल के माध्यम से वे ख़बर में आए। इस बीच हालांकि हमने कभी पुलिसिया पिटाई के जरिए, तो कभी तबलीगी जमात के माध्यम से, कभी किसी नेता की बेटी की शादी के जरिए, कभी क्वॉरन्टीन, कभी थाली बजाकर, कभी दीप जलाकर, हरेक अवसर को आपदा और आपदा को अवसर में बदल दिया। हमें उत्सव चाहिए, हमने बड़े से बड़े संकट का इसी तरह हड़बोंग मचाकर स्वागत और सामना किया है। हमारे चिरयुवा नेता राहुल गांधी जैसा कि कहते भी हैं, ‘मज़ा पूरे देश को आना चाहिए। मैं चाहता हूं, सब ये मज़ा लें।’
एक हॉलीवुड फिल्म है, ‘इन द लाइन ऑफ फायर’। इसमें क्लिंट ईस्टवुड का किरदार केनेडी के सुरक्षा दस्ते का प्रमुख दिखाया गया है, जो उनकी हत्या को रोक न सका। पदावनति के बावजूद वह दो-तीन राष्ट्रपतियों के बाद भी सुरक्षा बेड़े में तैनात है औऱ अब रिटायर होने वाला है। अभी के राष्ट्रपति को एक सिरफिरा मारना चाहता है। वह क्लिंट ईस्टवुड को ही अपनी धमकियों, बातचीत आदि का जरिया बनाता है।
फिल्म का एक दृश्य है, जहां वह कैनेडी की हत्या को याद करते हुए कहता है, ‘मैं बिल्कुल पास में ही खड़ा था। पहली गोली चली, तो मुझे प्रतिक्रिया करनी थी। मैं उस वक्त लेकिन प्रतिक्रिया न कर सका। मैं दरअसल इतना आत्म-विश्वस्त था कि मुझे वह गोली की आवाज़ सुनाई ही नहीं दी। मैं बस, चित्रलिखित सा खड़ा रह गया। शायद मेरी प्रतिक्रिया पर दूसरा परिणाम…।’
हमारे समय का संकट दरअसल, दूसरा है। हम सभी प्रतिक्रियावादी बन गए हैं। ठहराव को हमने भुला दिया है। ठहराव तो तार्किकता से आएगा, हम तो बस इम्पल्सिव लोगों की भीड़ हैं। किसी भी ख़बर को कातने, छानने और बीनने की सलाहियत ही शायद हमने खो दी है। इसलिए, एक दिशाहारा-आवारा भीड़ बस चली जा रही है।
कोरोना का डर जैसे-जैसे खत्म होगा, हमारे यहां शायद अमेरिका या ब्रिटेन से भी बड़े बलवे घात लगाए बैठे हैं।
व्यालोक स्वतंत्र पत्रकार और सोशल मीडिया कन्सल्टन्ट हैं
व्यालोक जी से जैसी उम्मीद थी वो वैसा ही लिख रहे हैं। हालांकि उनसे दक्षिण पंथ की शास्त्रीय व्याख्या सुनने को ज़्यादा आतुर रहा। एक मनोदशा, वैचारिकी, विचारधारा के तौर पर जिसमें भाजपा और भाजपा एनआईआईटी सरकारों की खुली आलोचना को भी शुमार किया जा सकता। मसलन आज हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व राजनीति के बीच भेद करने की सलाइयतें भी हम पाठको को दें।
यह देखना दिलचस्प होगा कि एक सरकार के तौर पर भाजपा जिस तरह सरकार के उद्देश्य और दायित्वों की कसौटी पर सांगोपांग असफल हुई है उसका हल्के ढंग से बचाव करने की कोशिश कहीं व्यालोक की ‘साख’ पर न बन आए ?
ठकुर सुहातियों के बाढ़ में सापेक्षभावसुरक्षित रखते हुये निरपेक्ष विश्लेषण का साहस विरले में ही होता है। वह आप में कूट-कूट कर भरा है।
“अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः”
आपकी लेखनी चरितार्थ करती है।
इसलिये कहीं भी दिख जाने पर हम केवल विहगावरोकन करके नहीं निकल पाते अपितु प्रत्येक पद में उतरना पड़ता है।
और उतरने पर…. बहुत गहिर बुड़की लगावै का पड़त है… जतना गहिर वतना गहिर अर्थ
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