दक्षिणावर्त: विश्वास के संकट से घिरा दर्शक और किसान आंदोलन का रंगमंच


एक हॉलीवुड वेब-सीरीज़ है ‘अनबिलीवेबल’। इसकी नायिका बलात्कार-पीड़ित युवती है, जो एक सीरियल रेपिस्ट का शिकार है। यह सीरीज़ वैसे तो बेहद दर्दनाक अनुभव की दास्तान कहती है, लेकिन इसका जो फिल्मांकन हुआ है वह कमाल का है। एक पंक्ति में अगर कहें, तो यह बलात्कार के बाद उससे पैदा दंश और उस दंश को बढ़ाने में सिस्टम के योगदान को दिखाने वाली बेजोड़ फिल्म है।

अगर आप सोचते हैं कि केवल भारत में ही बलात्कार के बाद किसी बच्ची, किशोरी, युवती या महिला की जिंदगी तबाह होती है, पुलिस का ध्यान दोषी को पकड़ने से अधिक पीड़िता को डराने या थकाने में होता है, पीड़िता उस हौलनाक हादसे को बारहां याद करे, प्रशासन इसकी पूरी कोशिश करता है तो आप गलत हैं। यूरोप-अमेरिका में भी लोग वही हैं, तंत्र वही है और बलात्कार को लेकर रवैया वही है, यदि इस सीरीज की मानें तो।

नायिका का अतीत थोड़ा विगलित है, इसलिए उसके साथ रात में एक सीरियल रेपिस्ट ने बलात्कार किया है, यह स्वीकार करने की जगह पुलिस की दिलचस्पी उसे यह यकीन दिलाने में होती है कि वह शायद भूल कर रही है। उनके दबाव डालने की वजह से वह किशोरी भी यह स्वीकार कर लेती है और लगभग मान भी लेती है। बाद में दो कर्मठ पुलिसवालों (महिला) की वजह से वह रेपिस्ट गिरफ्तार होता है, नायिका को स्टेट की तरफ से मुआवजा भी मिलता है, दोषी पुलिसवाले शर्मिंदा भी होते हैं, लेकिन आखिरी सीन में नायिका एक सवाल पूछती है, ‘मुझसे माफी किसी ने नहीं मांगी?’

UNBELIEVABLE

इस महान देश इंडिया दैट इज़ भारत की भी यही विडम्‍बना और त्रासदी है। हम माफी मांगना भूल चुके हैं। ठीक उसी नायिका की तरह। क्‍या हमारे मन में कभी यह सवाल आया अपने किए या अनकिए की हमसे माफी किसने मांगी? या फिर हमने अपने किए या अनकिए की माफ़ी किसी से क्‍यों नहीं मांगी?

ताज़ा किसान-आंदोलन को देखकर यह बात मन में आयी। कपिल मिश्रा द्वारा ट्विटर पर ‘हिंदू-ईकोसिस्टम’ के निर्माण के लिए भर्ती के खुले न्योते को देखकर यह बात कौंधी। न्यूज़ के नाम पर पता नहीं क्या दिखाने वाले तथाकथित न्यूज़-चैनल्स को देखकर याद आयी। नीतीश कुमार के बेहिसाब गुस्से को देखकर इस बात की याद आयी। न जाने किन सैकड़ों मौकों पर कई मर्तबे यह बात याद आयी, कि हम एक समाज के तौर पर क्षमायाचना के मूल्‍य को कब का भुला चुके हैं।   

माफी मांगना हम भूल चुके हैं, इसीलिए दंड की भी मर्यादा और भय हमारे समाज से जा चुके हैं। हम चूंकि माफी नहीं मांगते, इसलिए जिम्मेदारी, रिस्पांसिबिलिटी जैसे शब्दों का भी हमसे वास्ता नहीं रहा है। अपने किए की जवाबदेही भी जाती रही है। हमारे समाज का एक पाया खिसका और वह पूरी छत को ही लेकर बैठ गया है।

जिस वक्‍त हमें सामाजिक क्रांति की जरूरत सबसे अधिक है, उस वक्‍त हम राजनीतिक छद्म में व्यस्त हैं। मूल्य या वैल्यू-सिस्टम को दुरुस्त करने की दरकार मौजूदा वक्त में सबसे अधिक है, तो हम चौबीसों घंटे सोप-ऑपेरा देखते हुए जीवन को भी वही बना चुके हैं।

यह लेखक नहीं जानता कि दिल्ली पहुंचे लाखों किसान प्रयोजित हैं या स्‍वयं स्‍फूर्त। यह भी नहीं पता कि वे किस उम्‍मीद में आए हैं, जबकि साल दर साल वे आते और खाली हाथ वापस जाते रहे हैं। हां, यह जरूर मालूम है कि इन किसानों को लेकर जो नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं, जो बातें उछल रही हैं या उछाली जा रही हैं उनमें मूल्‍य नहीं है, उनके पीछे राजनीति है।

मैं यह जरूर जानता हूं कि तेजस्वी भले ही बिहार के लिए अच्छी ख़बर नहीं होते, लेकिन नीतीश कुमार को भी प्रचार के दौरान अपनी मर्यादा नहीं खोनी चाहिए थी, लालू प्रसाद पर निजी प्रहार नहीं करने चाहिए थे। मैं यह नहीं जानता कि हाथरस हो या सोनभद्र, वहां के दोषियों को अब तक सज़ा मिली या नहीं, लेकिन यह जरूर जानता हूं कि प्रियंका और राहुल को पिकनिक-प्रोटेस्ट नहीं करना चाहिए।

ये किसान हैं, किसान नेता हैं या जाट नेता?

विश्वास का संकट हमारे सामने उस फिल्म के दर्शक की तरह खड़ा हो गया है। पोस्ट-ट्रूथ और तथ्यहीनता के इस जमाने में ऐसा घालमेल हमारे सामने प्रस्तुत है कि हम हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े हैं।

माफी न मांगने की वजह से ही हमारे देश का घोटालेबाज और बड़ा घोटालेबाज़, अपराधी और बड़े अपराधी और बेईमान-लुटेरे औऱ भी बड़े होते चले जा रहे हैं। दंड का भय नहीं, जिम्मेदारी का अहसास नहीं, फिर भी 135 करोड़ अराजक लोगों को झेलता यह देश चला जा रहा है, यह कम बड़ी बात थोड़े न है।

हम वैसे लोग बन गए हैं, जिनको बिजली चौबीसों घंटी चाहिए, लेकिन बिजली का बिल शून्य चाहिए। समाजवाद की उलटी को हमने अपना राष्ट्रीय चरित्र बनाना चाहा, लेकिन उससे ऐसा कॉकटेल बना, जिसके गंदे नशे में आज तक सारा देश झूम रहा है, जिसके सबसे बड़े ब्रैंड एंबेसडर लालू-मुलायम-नीतीश-सुशील मोदी-पासवान इत्यादि हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश, देश के सबसे बड़े दो राज्य, सबसे बड़ी आबादी वाले क्षेत्र, सबसे अधिक अराजक, गरीब, भुखमरी के शिकार, व्यवस्थाहीन राज्य हैं। यह अकारण नहीं है कि उत्‍तर प्रदेश और बिहार का जि़क्र किसान आंदोलन की फि़ज़ा से गायब है।

हमने 70 साल में समाजवादी लोकतंत्र का जो मेयार खड़ा किया है, उसके चरित्र की निशानदेही पंजाब नहीं, यूपी और बिहार करेंगे। अगर कहा जा रहा है कि यह आंदोलन केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का है, तो यह बात सिर्फ दुष्‍प्रचार के रूप में नहीं एक टिप्‍पणी के बतौर ली जानी चाहिए। यह इकलौता तथ्‍य कई सवालों के जवाब खुद में छुपाये हुए है।


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One Comment on “दक्षिणावर्त: विश्वास के संकट से घिरा दर्शक और किसान आंदोलन का रंगमंच”

  1. बहुत सटीक विवेचना…इस बात से पूरी सहमति कि अभी सामाजिक आंदोलन की जरूरत सबसे ज्यादा है..

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