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मौत। दर्द। चीख-ओ-पुकार। फोन को साइलेंट मोड पर डाल दिया है। ब्लू लाइट चमकती है, तो दिमाग में कहीं कुछ चमकता है। पता है, फिर भी उठाकर मैसेज देख लेता हूं, फोन सुन लेता हूं। बेहिस की तरह। एक समाचार की तरह। बस्स… हां-हूं कर समस्या को टालता हूं… कुछ देर और। ऑक्सीजन, दवा, बेड, आइसीयू की गुहार। अपने बौनेपन का अहसास। दूर कहीं एक एंबुलेंस का सायरन। दो कमरों के घर में बेटे की बाहर जाने की गुहार। खीझ। गुस्सा। बेचैनी। कमतरी का अहसास। अव्यवस्था। अराजकता। आपराधिक लापरवाही।
अल्बेयर कामू की याद आती है। उनका लेखन याद आता है। उनका एकांत, उनकी पीड़ा, उनका दुःख याद आता है। उनका ‘प्लेग’ याद आता है। महामारी के बारे में वह कहते हैं कि प्लेग से पहले भी मौते होती थीं, हरेक बार जैसी होती हैं। अब हमने उनका आंकड़ा रख लिया है। यही हमारी प्रगति है। कामू बहुत कम अवस्था में चले गए, दुनिया से। कहते हैं कि सोवियतों ने उनके लेखन से चिढ़कर हत्या करवायी थी उनकी। वह होते तो अभी क्या रचते, वह क्या अब भी यह लिखते?
हरेक महामारी से हमने यही सीखा कि मनुष्यों में नफरत से अधिक पसंद करने की वजहें होती हैं।
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मौत अब केवल एक नंबर है। वह एक ह्वाट्सएप मैसेज है, एक ट्वीट है, एक फेसबुक पोस्ट है। मौत अब मौत नहीं है। भारत के लोगों ने मौत को प्रहसन बना दिया है। श्मशानों से लाइव रिपोर्टिंग हो रही है। उस श्मशान से, जो अंतिम विश्राम का स्थल है। कहते हैं कि मृत्यु के बाद उस शरीरधारी व्यक्ति से सारी कटुता, सारा वैमनस्य, सारी शत्रुता भुला देनी चाहिए, उसे शांति से इस लोक से जाने देना चाहिए। यहां श्मशान में फोटोग्राफी और लाइव से मुर्दों को यह भी मयस्सर नहीं है। हां, कब्रिस्तान अब भी शहर-ए-खमोशां बने हुए हैं, वहां से ऐसी कोई तस्वीर नहीं आय़ी है।
मीडिया में घमासान है। हरेक दल के हरावल दस्ते के पास आंकड़े हैं, तस्वीरें हैं, वीडियो हैं और सुंदर प्रस्तोताएं हैं। सीमाएं खिंची हुई हैं, युद्ध चल रहा है। सही सवाल, सही खबर, न तो पूछे-कहे जा रहे हैं, न ही किसी की उसमें दिलचस्पी है। विदेशी मीडिया श्मशान की सामूहिक चिताओं के साथ हौलनाक शीर्षक और संपादकीय छाप रहा है, राय दे रहा है। कुछ का कहना है कि यह उनकी ईर्ष्या है, तो कुछ देसी पत्रकार भी विदेशी प्लेटफॉर्म पर जाकर कोरोना से फैली बदहवासी, बदइंतजामी और मौतों का वर्णन पूरे विद्रूप के साथ कर रहे हैं। उनका कहना है कि जनता को सच जानने का हक है और जनता से कोई भी बात छिपायी नहीं जानी चाहिए।
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तकनीक अजाब भी है, अजीब भी। सोशल मीडिया आजकल नोटिस-बोर्ड बना हुआ है। दो-तीन वर्ग हैं लोगों के। पिछले साल भी थे। एक वर्ग मृत्यु की सूचना बांट रहा है। अगर मृतक कोई पब्लिक-फिगर है तो उसके साथ के अपने फोटो लगाकर सूचना दे रहा है। फेसबुक या ट्विटर खोलते ही मृत्यु की सूचनाओं से साक्षात् होता है। दूसरा वर्ग है, जो समाज-सुधारक बनने का, कोरोना-वारियर होने का इश्तिहार दे रहा है। वह ऑक्सीजन से लेकर बेड की मांग को लगातार अपनी वॉल पर डाल रहे हैं। यह हमारी सामूहिक अक्षमता का प्रायश्चित है।
काफ्का अपनी एक कहानी में लिखते हैं:
उसने अपने हिस्से का थोड़ा कर्ज चुका दिया था। घर की सीलती दीवारों पर पलस्तर फिरवा दिया था। अब वह थोड़ा कंधे ऊंचे कर चलने लगा था।
सोशल मीडिया पर चिपकते इश्तिहार हमारी सामूहिक चेतना का कर्ज चुकाना ही हैं, उस मध्यवर्गीय नैतिकता का प्रकटीकरण है जो व्यक्तिगत प्रयासों में सामूहिक दायित्वबोध खोज रहा है, जो 20 रुपए की दवा को 15 हजार में बेचते, ऑक्सीजन सिलिंडर और हॉस्पिटल बेड की कालाबाजारी, मुफ्तखोरी, जमाखोरी के त्रिआयामी भंवर में फंसे मानवीय-बोध को इसी से तार रहा है।
ह्वाट्सएप पर एक ग्रुप में शाम सात बजे एसओएस आता है। वह रसूखदार लोगों का समूह है। ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी और पत्रकार आदि उसमें हैं। नोएडा के एक सेक्टर में वह व्यक्ति है, जो किसी मल्टीनेशनल में बड़े पद पर कार्यरत है। 12 घंटे विमर्श होता है, लेकिन कोई भला आदमी उसके घर पर नहीं जाता कि उठाकर उसे हॉस्पिटल में डाल दे। आखिरकार, वह मर जाता है। ग्रुप में रेस्ट इन पीस, ऊं शांति के मैसेज एक के बाद एक फ्लैश होते हैं। कर्तव्य पूरा होता है। कंधे थोड़ा और ऊंचे।
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कोरोना का असर मानसिक स्वास्थ्य पर कुछ अधिक ही पड़ रहा है। त्रिपुरा में एक डीएम साब कर्तव्यपालन करते हुए कुछ अधिक ही उग्र हो गए और बंदी के दौरान शादी के लिए दूल्हे को घसीटा, पुजारी को पीटा और पूरी हनक दिखायी। सोशल मीडिया पर लोगों ने इसे दिल पर इतना ले लिया कि ‘सरकार’ को हस्तक्षेप कर डीएम साहब को सस्पेंड करना पड़ा। पर रुकिए, अभी इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या बाकी थी। चूंकि पुजारी को एक यादव डीएम ने मारा, तो लोग इसे आऱक्षण से लेकर ब्राह्मणवादी ताकतों के स्यापे तक जोड़ने लगे। कुछ ने डीएम को मौलवी को मारने या मोमिन की शादी, रमजान की नमाज रोकने की भी चुनौती दे डाली।
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पिछले साल इसी दौरान संझली मामी चली गयी थीं। वह इतनी ‘अनुपस्थित’ थीं कि जल्द ही लोगों को उनके न होने की आदत पड़ गयी। इस बार की लहर में दीदी चली गयीं। बिल्कुल करीबी लगभग दर्जन भर लोग दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन इस सामंती समाज में मामी और दीदी ही याद आती हैं, अधिक। मामी का तो नाम भी नहीं पता, उन्हें अभी तक मामा के नाम से जोड़कर फलाने की पत्नी ही बुलाया जाता है। ये महिलाएं भारतीय मध्यवर्गीय घरों में जब तक मौजूद होती हैं, चौतरफा वही नज़र आती हैं। खाने की टेबल से लेकर घर की सफाई और सोफे-कुशन के कवर तक, उनकी छाप होती है। जब वे जाती हैं तो बिल्कुल नामालूम तरीके से। थोड़े दिनों की रोआ-रोहट के बाद वे बिल्कुल ही भुला दी जाती हैं।
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पुर्तगाली कवि फर्नांडो पेस्सोआ की एक कविता की कुछ पंक्तियां कील सी ठुकी रह जाती हैं। वह कविता इस जीवन की निस्सारता और गहन एकांतिक दुःख का सघन प्रकटीकरण है। लाशों की कतार देखते हुए इस समय लोगों को ‘श्मशान-वैराग्य’ हो जाना कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन इस कविता में व्याप्त ‘एलिनेशन’ बड़ी गहरी चोट करता हैः
खत्म करो यह फानी दुनिया, और शायद कर सको शुरुआत,
हो अगर थकान अपने अस्तित्व से,
ओढ़ो तो उसे कम से कम भद्रता से,
मत गाओ जीवन के संगीत,
क्योंकि तुम हो एक मयनोश।
मेरी तरह, साहित्य के जरिये न करो मौत को सलाम।
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आजकल दोस्त के साथ बातों का वक्त बढ़ चला है। दोनों हंसते हैं, दुनिया भर की बातें करते हैं, पर एक-दूसरे के हृदय में व्याप्त भय को छूने से बचते हैं। दोनों को ही पता है कि वे दरअसल कठोरता की ऐसी कच्ची बर्फ पर खड़े हैं, जिसके नीचे अथाह समंदर है- दुःख और अवसाद का। उस कच्ची बर्फ को तड़कने से बचाने के लिए ही दोनों एक दूसरे के साथ खूब स्वांग करते हैं- वैराग्य और ‘केयर अ डैम’ वाले एटीट्यूड का। एक खेल है दोनों के बीच, जो चल रहा है। वे मृत्यु का स्केल बनाते हैं और एक-दूसरे से ताज़ा स्कोर बताते हैं। उन्हें लगता है कि इससे वे बच जाएंगे- भय से, अवसाद से और इस दुनिया से।
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शराब छोड़े कुछ महीने हुए हैं, पर बेइंतहा तलब उठती है। दोस्त मुद्दतों पहले शराब छोड़ चुका है। वह कहता है कि जब पीना केवल बेहोश होने के लिए किया जाए, तो उसे छोड़ ही देना चाहिए। वह न जाने किस शायर का एक शेर सुनाता है…
क़र्ब-ए-ग़म-ए-शऊर का दरमन नहीं शराब
ये जहर बे-असर है, इसे पी चुका हूँ मैं…
…और, हंस देता है। वह जानता है कि दोस्त पलायन कर रहा है, खुद उसके दुःखों से।
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रात के इस वक्त उसे किसी पुरानी देखी हुई फिल्म का एक डायलॉग याद आ रहा है-
Nostalgia is expensive these days, melancholy nights are dearer…
Cover: Edvard Munch’s Evening. Melancholy I, Google Art Project, Wikimedia Commons