दक्षिणावर्त: दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख…


एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। बातों-बातों में बात ट्विटर ट्रेंड्स पर चली गयी। उसने दुखी होकर बताया कि यार, दिन भर में पचीसियों तो ट्रेंड होते हैं और आप अभी एक ट्रेंड को समझ कर, रिसर्च कर उठे ही होते हैं कि पता चला कुछ दूसरा ट्रेंड होने लगा।

जैसे, उत्तराखंड के सीएम के बयान के बाद रिप्डजीन्स ट्रेंड कर रहा है और आप उसके बारे में समझ ही रहे हैं कि अचानक से अभिषेक बच्चन ट्रेंड करने लगते हैं क्योंकि उन्होंने कोई फिल्म साइन की है। इससे आगे बढ़ आप करीना के दूसरे बच्चे की पहली फोटो देखकर निपटते ही हैं कि कुछ और हो जाता है और आप उसी में थके रह जाते हैं। इससे भी बड़ी नेमत तो यह है कि अगली सुबह जब किसी के फोन से आपकी नींद खुलती है, तो अगले की अपेक्षा रहती है कि दुनिया में घट रही हरेक घटना से आप सुपरिचित हों।

मित्र की बात कई दिन बीतने पर भी याद इसीलिए रह गयी क्योंकि ट्विटर के इस जमाने में हमारी याददाश्त घटना के ‘मेरिट’ पर दर्ज न होकर उसकी छवियों के तौर पर दर्ज होती है। पालघर के साधु की हाथ जोड़े छवि, मुस्कुराती हुई लहुलूहान छवि भी हमारे दिमाग पर वह प्रभाव नहीं डालती, उतनी सशक्त छाप नहीं छोड़ती, जितनी हमने गुजरात दंगों के समय हाथ जोड़े कुतुबुद्दीन की फोटो ‘इंडिया टुडे’ में छपी देखकर महसूस की है। कारण एक ही है, हजारों छवियां दिन भर में हमारे पास आती हैं, गुज़रती हैं। पानी पीने गए आसिफ की छवि से लेकर गरजते हुए स्वामी नरसिंहानंद तक, अपूर्वानंद के सिसकने से लेकर तेलंगाना के भैंसा में दंगों तक। इसीलिए, हमारा दिमाग भी ‘पार्टिसिपेटरी’ न रहकर ‘ऑब्जर्वर’ मात्र रह गया है।

छवियों के अपने अर्थ होते हैं। हमारे एक कॉमरेड मित्र ने “बॉम्‍बे बेगम्स” देखकर कहा कि या तो वे (मने, सीरियल के पात्र) किसी दूसरे ग्रह के हैं या फिर हम ही लोग दूसरे ग्रह के हैं। जिस तरह का बदलाव वेब-सीरीज में दिख रहा है, क्या कहीं सचमुच ऐसा कुछ घटित तो नहीं हो चुका हमारे समाज में जिस पर बात करने से मैं और मेरे मित्र दोनों ही डर रहे थे, क्योंकि विचारों के उल्टे सिरे पर खड़े हम दोनों के बीच इतना ‘भारत’ बचा हुआ था, जिसके पुल पर हम दोनों मिल लेते थे। यहां तो उस ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ यानी उस विचार, जो भारत है, के ऊपर ही हमला हो रहा है।

कहीं हम दोनों ही उस सत्य से भागना या बचना तो नहीं चाह रहे थे, जो चीखकर हमारे बीच खड़ा है- 20 वर्षों में हम इतने वर्षों की यात्रा कर चुके हैं कि अधेड़ हो गए हैं और नयी दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। नामी-गिरामी बड़े स्कूलों में बच्चों ने इंटरनेट पर कैसे प्राइवेट चैट ग्रुप बना रखे हैं या सातवीं के बच्चे के जानलेवा हमला करने की ख़बरें भी हम देखते रहे हैं। इसीलिए, “बॉम्‍बे बेगम्स” की वह बच्ची (राइट नाओ 13, गोइंग टु 14) कोकीन के स्नार्ट्स लेती दिखायी गयी है, या उसके जैसे दोस्त दिखाए गए हैं, शायद वैसे ही बच्चे हमारे आसपास भी हों। हम अपनी खुशफहमी में उस सच्चाई को दफन किए रखते हैं और भूले से भी सच का सामना नहीं करते। 


हमारे समय किशोर क्या सोचते थे? सचमुच, सोचते भी थे? मैं अगर खुद को याद करूं या उस ज़माने के दोस्तों की बातों पर गौर करूं, तो दिखता है कि कोई सोच ही नहीं थी। फिर, इस पीढ़ी के किशोरों पर यह बोझ क्यों लादा जा रहा है, एक 16-17 साल के किशोर-किशोरी की राय क्यों होनी जरूरी है जलवायु-परिवर्तन पर, परमाणु-युद्ध पर या फिर टॉल्सटॉय पर। हो, तो अच्छी बात है, लेकिन ‘हो ही’, यह अनिवार्यता न रहे।

1991 में जो लोग 12-13 साल के थे, उनमें से कुछ भले ही गैट और डब्ल्यूटीओ पर जनसत्ता के विशेष लेख काटकर रखते रहे होंगे, लेकिन उसके पीछे उनके पिता की समृद्ध लाइब्रेरी भी थी, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां भी थीं। उनके साथ के अधिकांश अगर तथाकथित निम्न वर्ग से आते थे, तो उनके लिए पहली शर्त तो सरवाइवल की थी। स्कूल शायद कुछ देर का मनोरंजन था और पलायन भी। यह बड़ी मज़े की बात है। पहले लोग घर से स्कूल मौज के लिए आते थे, अब तमाम तरह की सरकारी स्कीम के बावजूद बच्चों में वह खुशी नहीं दिखती है।

देखने की बात है कि अब भोजपुरी सिनेमा के होली-गीत में भी ह्विस्की और रम की बात हो रही है। उसका भी फिल्मांकन किसी फाइव स्टार होटल के पूल के किनारे हो रहा है… भंग के तरंग और ढाक-ढोल की बात नहीं है, हरियाली और चटख शोख रंग नहीं दिख रहे हैं।

समस्या है कि गांव में वह दिखाएंगे क्या, जो शहर से अलग है? पक्की सड़कें अब गांवों तक हैं, फूस की झोंपड़ी अब नहीं दिखती, ईंटों के घर ही दिखते हैं। गांव से रहट गायब है, बैलगाड़ी गायब है, कुएं गायब हैं, मेले भी बदल रहे हैं या सिमट रहे हैं। कपड़ों से लेकर बोलचाल तक गांवों में अब लगभग सब कुछ शहर के समान ही है। हां, प्रदूषण, भ्रष्टाचार और ज़हर का स्तर भले गांवों में मात्रात्मक तौर पर कम हो, गुणात्मक तौर पर कतई कमज़ोर नहीं है।

यह सांस्कृतिक परिवर्तन का संकेत है, जिस पर समाजशास्त्रियों को सोचना चाहिए। अफसोस कि हमारे देखते-देखते दुनिया बदल जाती है, पर हम ध्यान देकर सोचते नहीं उन पर। हमारी नैतिकता की जो समझ है, निम्न-मध्यवर्गीय तबके में, उसका प्रतिनिधि ‘’बॉम्‍बे बेगम्स’’ में इस बार समाज का अत्यंत निम्न वर्ग है। एक पीढ़ी का रास्ता तय हो गया है। सीरियल में एक बार-डांसर है, जो अपने बेटे के लिए सारी सौदेबाजी कर रही है। निम्न-मध्यवर्गीय प्रतिनिधि जो इंदौर की लड़की है, वह अब मुक्तिकामी हो गयी है। क्षणिक मदहोशी में बहकर भी वह वापस घर आ जाती है, अपने सत्य की रक्षा करती है और आखिरकार, एक क्रांति (?) को जन्म देती है।

नॉस्टैल्जिया या पूर्व-राग का होना अच्छा है, लेकिन उससे चिपक कर बैठे रहना कहां तक संगत कहा जा सकता है। टीवी सीरीज में या पूरे समाज में जो हो रहा है, वह एक-दूसरे का पूरक है या प्रतिबिंब? यदि प्रतिबिंब है तो जो बेचैनी, जो क्रांति न्यूज-चैनल्स को देख कर महसूस होती है, वह मोटे तौर पर समाज में अनुपस्थित क्यों है, जो समस्याएं या टकराव बहुमत वाले समाज में हैं, वह टीवी या सिनेमा से अनुपस्थित क्यों है?

दरअसल, किसी एक पक्ष में चीजों को, लोगों को, मुद्दों को देखने की जिद ने हमें इस मकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां हम कुछ भी संतुलित नहीं देख सकते, उसकी हसद नहीं रख सकते। अभी डासना के मंदिर वाले मसले पर आप कोई भी चैनल देख लीजिए, कहीं भी ‘न्यूज’ नहीं है, वह सबके ‘व्यूज’ हैं। कहीं आसिफ मात्र पूरी कहानी पर हावी है, कहीं महंत जी का युद्ध-आह्वान मात्र ही दिख रहा है। पत्रकारिता के ओल्ड-स्कूल के हिसाब से तो पैकेज कुछ यूं होता कि कुछ सेकंड घटना का बयान, उस पर आसिफ और महंत जी का बयान होता। ऐसा एक पैकेज, एक न्यूज-रिपोर्ट मुझे अभी तक देखने को नहीं मिला है। छपा या प्रसारित हुआ हो, तो मेरी अज्ञानता। 

इंसान कर भी क्‍या सकता है ऐसे में। कुछ हिला तो सकते नहीं! दुआ देने लायक कुछ बचा नहीं और बदकार बेअसर हो चुकी है। बकौल गालिब: वाइज़! तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख।



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