ठीक एक साल पहले यहीं इसी जगह पहली बार ‘बात’ बोली थी। उस समय बात ने तय किया था कि वो ऐसी हर बात पर बात करेगी जिनसे लोगों की ज़िंदगी पर सीधा फर्क पड़ता है। बात ने अपना वादा निभाया या नहीं, लेकिन लोगों की तरफ से इस एक साल में लगा कि उन्हें ऐसी किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता जिसे यहां कही जाने वाली बात, बात किए जाने लायक मानती है।
बहरहाल, वक़्त का गुजरना एक नैसर्गिक घटना है जिसे मनुष्य लंबे समय से तारीखों में ज़ब्त करना सीख गया है। कई बार लगता है कि कैलेण्डर के आविष्कार के बाद वक़्त का बीतना, तारीखों के बीत जाने से तय होता है। यह भ्रम भी होने लगता है कि वक़्त नहीं बल्कि केवल तारीखें बीतती हैं और कई दफा ऐसा भी लगता है कि तारीखों के पास खुद को दोहरा लेने की एक अदद सहूलियत है जो वक़्त से होड़ लेती हैं और बीते हुए वक़्त को ठेंगा दिखा देती हैं। तारीखें ठीक उसी तरह लौटकर आती हैं जैसे वक़्त के एक कबीले को कहीं दूर की यात्रा के लिए किसी बस या ट्रेन में बैठाकर लौट आयी हों। बीता वक़्त विदा लेकर लंबी और लगभग अनंत यात्रा पर निकल जाता है। तारीखें बीतते हुए और आने वाले वक़्त को बस या ट्रेन में बैठाने की जुगत लगाती रहती हैं और सही मौके पर उन्हें छोड़ आती हैं।
वक़्त तारीखों के अधीन हो गया है। तारीखें हैं जो बीतती नहीं। लौट-लौट कर आती हैं। हमें बताती हैं कि उस दिन क्या हुआ था। बीत चुके वक़्त की निशानियां हमें तारीखों के खंडहरों में मिलती हैं। तारीखें चिरजीवी होती हैं। अगर ऐसा न होता तो हमारा विकास अवरुद्ध हो गया होता या जब जितना विकास इंसान की खोपड़ी का हो पाया था उसे बीत चुका वक़्त अपने साथ ले गया होता और आने वाला वक़्त अपने लिए अपनी तरह का मनुष्य रचता, गढ़ता और निर्मित करता रहता।
अच्छा हुआ कि कैलेण्डर और उसकी तारीखों ने वक़्त को उसकी हैसियत बता दी। जैसे कह दिया हो कि तुम बीत भी जाओ, लेकिन तुम्हारे साथ जो हासिल किया है उसे हम यहीं इसी जगह और ऐसे ही सँजो कर रखेंगे। तुम्हारे साथ इसे जाने नहीं देंगे। जिस तरह तुम बीत-बीत कर फिर-फिर नये होकर लौटते हो, हम भी नये-नये होंगे लेकिन बीत चुके को अपने साथ लेकर चलेंगे। हम स्मृतियां रचेंगे। हम लोगों को भूलने से बचाएंगे। हम सब कुछ याद रखेंगे। वह भी जो तुम्हारे साथ बीत गया था।
इस एक साल में कितना कुछ बीता हुआ लगता है लेकिन असल में बीता कुछ भी नहीं। जो आज दिखलायी दे रहा है वह इसी बीते हुए की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। पिछले साल जिन लापरवाहियों की नींव रखी गयी थी अब उस नींव पर वही लापरवाहियां अपना स्वरूप विस्तार करके आपराधिक लापरवाहियां बनकर हमारे सामने हैं। वक़्त अब भी बीत जाएगा, लेकिन उसकी गवाह बन रही ये तारीखें हमें याद दिलाएंगी कि बीते साल क्या-क्या विद्रूप, फूहड़ और अश्लील रचा गया और किस-किस ने रचा और उसके प्रभाव में किस-किस ने क्या-क्या किया।
‘सब याद रखा जाएगा’ अगर 2020 के गर्भ से निकला कालजयी वाक्य बन सका तो उसने अपना विस्तार अब भी जारी रखा है। हर दिन है जिसे कई-कई वजहों से आने वाली सदियों में भी याद रखा जाएगा। जैसे हम इस दौर में 1919 से शुरू हुई वैश्विक महामारी को याद कर रहे हैं। एक सौ साल पहले बीत चुके उस दौर के लिए हम यह कहते हैं कि तब हमारा देश गुलाम था, हम संसाधविहीन थे, हमारे पास विज्ञान नहीं था और हम जादू-टोना और टोटकों का समाज थे इसलिए उस दौर की महामारी की विभीषिका बहुत ज़्यादा थी। एक सौ साल बाद हम कहेंगे कि हम गुलाम तो नहीं थे, संसाधनों की ऐसी कोई किल्लत भी नहीं थी, कम से कम इतने तो थे ही कि देश के नागरिकों की जान बचायी जा सकती थी, विज्ञान भी बहुत उन्नत अवस्था में था फिर भी हम जादू-टोना और टोटकों का समाज बने रहे और एक सदी पहले जो अंग्रेज़ हम पर राज किया करते थे इस सदी में वे अंग्रेज़ न थे पर उनकी तरह ही हमारे लिए निज़ाम की हिकारत ठीक वैसी ही थी।
बात बोलेगी: वबा के साथ बहुत कुछ आता है और जाता भी है!
एक सदी बाद लौटी इस महामारी में हम एक लोकतंत्र थे- दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र, लेकिन जिसका मतलब एक व्यक्ति की सत्ता थी। जब लोकतंत्र एक व्यक्ति में सिमट जाता है तब ऐसे-ऐसे मंज़र ही आम होते हैं कि नागरिकों की हैसियत कीड़े-पतंगों से कम तो नहीं लेकिन उनसे ज़्यादा भी नहीं रह जाती।
हम यह भी याद रखेंगे कि तब निज़ाम के खिलाफ बगावत की अंतर्धारा हमेशा बहती थी, लेकिन अब बगावत एक पतित शब्द बना दिया गया है। हमने एक सभ्य लोकतंत्र की रचना की है जिसमें सही को सही और गलत को गलत कहने के लिए कानून के मुकम्मल सहयोग की ज़रूरत होती है। हम अपने सोचे हुए मात्र को अब सही या गलत नहीं कह सकते। यह नागरिक धर्म हमने अपनाया, संविधान को अंगीकार किया लेकिन शायद वह मानुष धर्म उन्हीं अंग्रेजों के साथ चला गया। हमें अब नागरिक शास्त्र पढ़ा-पढ़ा कर यह बतला दिया गया है कि हमारे कर्तव्य क्या हैं, लेकिन इसके बदले हमसे हमारा नितांत नैसर्गिक मानुष धर्म छीन लिया गया है जिसमें न्याय का सर्वश्रेष्ठ विवेक मौजूद था। हम मानुष होकर सोचना छोड़ चुके हैं और यह हमने एक सदी में हासिल किया है।
सोचते तो हम नागरिकों की तरह भी नहीं, लेकिन तब खुद के सही होने के लिए किसी की गवाही की दरकार न थी। आज हमें सोचना पड़ता है कि हम जो कह रहे हैं वह विधिसम्मत है या नहीं। सरकार विधिसम्मत काम करती है। उसके पास विधि और विधान हैं कि एक साल या दो साल या सालों साल हम नागरिकों पर सौ तरह के प्रतिबंध लगा सकती है। जब एक साल पहले यहां, इसी जगह, पहली दफा बात बोली थी तब भी हम प्रतिबंधित नागरिक थे, अपने-अपने घरों में कैद और आज जब एक साल बाद बात यहीं, इसी जगह बोल रही है तब भी हमारी नागरिकता प्रतिबंधित है। एक नैसर्गिक मनुष्य की तरह हमारी आवाजाही प्रतिबंधित है। और यह विधिसम्मत है। हम विधिसम्मत नागरिक हैं और नैसर्गिक मनुष्य होने के नाते नागरिकता हमारे प्रतिबंधों की शासक एजेंसी है।
इस एक साल में कोरोना से असमय काल कवलित हुए नागरिकों के आंकड़ों ने अब शक्लें ले ली हैं। अब जब हमें बतलाया जाता है कि आज चार हज़ार मौतें हुईं तो उनमें 10-20 चेहरे वो होते हैं जिनके अक्स हमारी आँखों में बन जाते हैं। हम अपनों को खो रहे हैं और उन्हें खोते हुए खुद को बचा रहे हैं। हम बचे हुए हैं और वो खोये जा रहे हैं। किसी रोज़ हम खो जाएंगे और हमारे अक्स कई दूसरी आँखों में होंगे। हम सरकार के लिए आंकड़े और कुछ लोगों के लिए शक्लें बन जाने को अभिशप्त हो चुके हैं।
इस स्थिति में पहुंच जाने की ज़िम्मेदारी न तो वक़्त की है और न ही तारीखों की, बल्कि इस वक़्त और इन तारीखों ने जिस रूप में हमें गढ़ा है और हम जिस रूप में ढल गए हैं कसूर उसका है। एक नितांत मगरूर, अहमक़ और कायर इंसान ने हमारी चेतना का अपहरण कर लिया और हमने हो जाने दिया। हमें उसमें मुक्ति दिखलायी दी। हमने मुक्ति चुनी और अब हम इस लौकिक संसार की भव-बाधा से मुक्त हुए जा रहे हैं।
उसने बिना हमसे पूछे पिछले साल हमारे नाम से हमारे ऊपर कर्फ़्यू थोप दिया और कहा कि ये जनता कर्फ़्यू है। इस एक साल में जनता की जगह कोरोना ने ले ली। अभी इस वक़्त हम कोरोना कर्फ़्यू के बीच अपनों को जाते हुए देख रहे हैं। उसने कोरोना से भी नहीं पूछा होगा कि तुम्हारे नाम पर कर्फ़्यू लगा दूं? उसने किसी से कुछ नहीं पूछा और हम इतनी सलाहियतें पैदा न कर सके कि हमसे पूछ-पूछ कर काम करना उसकी मजबूरी बन जाये। हमने उसे उसकी जिम्मेदारियां नहीं बतलायीं। हमने उसे हर समय अभयदान दिया। अभयदान, मतदान की अंतिम और पहली शर्त न थी, लेकिन हमने उसे वह सब दिया जो उसने मांगा भी नहीं था।
हमने अपनी तरफ से सब कुछ उसको दे दिया और अपने हिस्से की बेबसी आपस में बाँट ली। इस एक साल में हम और ज़्यादा कमजोर, और ज़्यादा लाचार, और ज़्यादा बेबस हुए। हमें बचाने वाली तमाम संस्थाएं हमसे भी ज़्यादा बेबस हो गयीं और हमारी बेबसी बतलाने और निज़ाम की आँखों में आँखें डालकर इस बेबसी में धधकती बगावत की ज्वाला को बतलाने का जिम्मा जिस मीडिया का था वो उसकी ड्योढ़ी का कुत्ता बन बैठा। हमने उस कुत्ते को उठाकर अपने ड्राइंग रूम में बैठा लिया और उसे सहलाने लगे।
हम पिछली सदी से ज़्यादा नाकारा साबित हुए। हमने संविधान को अंगीकार किया और अपनी आवाजाही और बोलने की आज़ादी पर बलात् तालाबन्दी को भी अंगीकार किया। हम एक अभिशप्त शै में तब्दील हो गये। हम न मनुष्य रहे, न नागरिक हो सके। हम कुछ और बन गये, जिसके बारे में अगली सदी में चर्चा होगी। हम तब नहीं होंगे, लेकिन हमारी कायरता तब भी चर्चा में होगी। हमारी बदहवास चेतना अतीत की तारीखों में दर्ज होगी जो आने वाली पीढ़ियों को चीख-चीख कर हमारे अपराधों के बारे में उन्हें बतलाएगी।
हम तारीखों में ज़िंदा होंगे और तवारीखों में दर्ज। हमें विधानों की ईंटों से दीवार में चुन दिया गया होगा। हमारी चीखें, हमारी सिसकियाँ हमारे इन शरीरों के साथ दफन होंगी। हमारी चुप्पियां ईंटों को जोड़ने वाला गारा बन चुकी होंगी- चुपचाप, स्थिर और शांत! कुरेदने पर भी कुछ न बोलने की जो नागरिक प्रतिष्ठा हमने इस सबसे कठिन दौर में अर्जित की है वही हमारा अभिशाप साबित होगी। हम उस अभिशाप के सलीब को गले में लटकाये हुए ज़मीन के नीचे मिलेंगे। या नदियों में बहते शवों की शक्ल में समुद्र के किसी तल पर जमा होते जाएंगे जिसे मछलियाँ अपना चारा बनाना भी पसंद न करेंगी।
क्या हम आने वाली तारीखों को बताना चाहेंगे कि हम क्यों चुपचाप रहे? क्यों अपनी चेतना हमने हमने एक ज़ालिम निज़ाम के आगे रेहन पर रख दी? शायद नहीं। महामारी अपने साथ वह सब ले जाएगी जो हमें प्यारा था। फिर उनके निशानों के साथ हम इसी दुनिया में एक नयी दुनिया रचने का स्वांग करते हुए बीत जाएंगे। हम बीतने से पहले मनुष्यता और मनुष्य होने की तमाम गरिमा से रीत जाएंगे। आने वाली पीढ़ियां बिना रीढ़ के पैदा होंगी और अपने झुके तनों से हमें याद करेंगी कि ये हमारा उनको दाय था। वो रीढ़ की अनुपस्थिति में हमें याद करेंगी। वो ज़ुबान की गैर-मौजूदगी में हमें याद करेंगी।
भारत, पूंजीवाद, राष्ट्रवाद, साहित्य और राजनीति पर अरुंधति रॉय से सात सवाल
फ़ासिज़्म के आने की आहट पर हमने खूब सोचा-समझा और बातें कीं, लेकिन जब वह आया और पूरी धमक के साथ आया तब मुसोलिनी और हिटलर के अंत की परिस्थितियों की कहानियों में उसका अंत देखने लगे। हमने खूब सोचा-समझा लेकिन हमने मौके पर कुछ न किया। हम कुछ न कर सकने वाली कौम के नाम से जाने जाएंगे।
हम इस एक साल में और ज़्यादा कमजोर और कमज़र्फ़ हुए। हम तंगदिल हो गये। जब आंकड़ों में हमें अपनों की शक्लें दिखलायी देने लगीं, तब हम और ज़्यादा भयभीत हो गये। हम भयभीत कौम के नाम से भी जाने जाएंगे।
बात तब भी बोलेगी। किसी नये अंदाज़ में बोलेगी। उस बात में हमारी भी बातें होंगी। वक़्त बीतते हुए भी हमें दर्ज करता रहेगा। जिस रूप में वक़्त हमें दर्ज करेगा, आने वाली बात उसी रूप में हमारी बात करेगी।
(कवर: The Human Centipede 2 से एक स्टिल)