‘आज’ की सोचने वाले बहुत बड़े आलसी कहे जाते हैं। जिन्हें कल के खाने की फिक्र नहीं होती उन्हें लोग नाकारा कहते हैं। ऐसे लोगों का यकीन किसी न किसी शक्ति पर सबसे ज़्यादा होता है। उन्हें हमेशा ये भरोसा रहता है कि जिसने ये मुंह दिया, पेट दिया है, भूख दी है वही अन्न भी देगा। अब तक की आजमाई दुनिया में शायद उन्हें ये मिलता भी रहा है। नव-उदारवादी या उससे भी पहले औपनिवेशिक शासन तक हमारे देश के और दुनिया भर के आदिवासी समाज ने कभी इसकी चिंता नहीं की कि कल उनके खाने का प्रबंध कैसे होगा। उन्हें मिल जाता था। वह प्रकृति के बीच हैं। पेड़ हैं। फल हैं। साग हैं। पानी है। जानवर हैं। जब भूख लगी, उठे किसी पेड़ से फल ले आए। किसी झरने या नदी से पानी पिया, तृप्त हो गए। उन्हें इस सभ्य होती गयी दुनिया ने आलसी, नाकारा और न जाने क्या-क्या कहा। उन्हें कल के लिए बचत की चिंता न थी। आज भी ये लक्षण कमोबेश पाये जाते हैं। तो जो कल की चिंता न करे वो आलसी होता है।
हमारे दिहाड़ी मजदूर जो इतना ही कमा पाते हैं कि किसी तरह आज की रोज़ी-रोटी चले वे कल की चिंता करके भी क्या कर लेंगे। उन्हें कल की चिंता के लिए बस इतना ही जतन करना है कि अपने शरीर और शरीर में मौजूद श्रम-शक्ति के साथ जीवित रह जाएं। उनकी कल की चिंता के लिए ज़रूरी जमा पूंजी का कुल इतना ही महत्व है जितना उनका सुबह उठने और काम पर जाने के लिए एक देह की है। बाकी देह रही तो कल भी होगा। इन्हें भी आलसी, मक्कार, कामचोर और ऐसे ही अलंकारों से विभूषित किया जाता रहा है। इससे भी यही साबित होता है कि जो केवल कल की चिंता करे वो कामचोर, आलसी, नाकारा होता है।
जिसे हमारे समाज में उद्यमी कहा जाता है उसे स्वप्नदर्शी होना ही चाहिए। लगभग यही शर्त इस देश और समाज ने एक नेता के लिए बना दी है। जो उद्यमी होगा वो मेहनत से नहीं डरेगा। चौबीस घंटों के एक दिन में वो अठारह-अठारह घंटे काम करेगा और पूरे देश के बारे में केवल कल के लिए नहीं बल्कि आने वाले पच्चीस वर्षों के लिए कई-कई स्वप्नदर्शी योजनाएं बनाएगा। उन्हें अमल में लाने के लिए खुद को वहां बनाए रखने का जतन करेगा जहां बैठकर उसने पच्चीस साल की योजना बनाई है। उसे यह डर होता है कि अगर वो वहां नहीं रहा जहां वह आज है और जहां रहते हुए उसने इतनी लंबी अवधि की योजनाएं बनायी हैं तो वे न तो पूरी ही हो पाएंगी और न ही उन योजनाओं को कोई समझ पाएगा। इसलिए वह एक बार एक स्वप्नदर्शी योजना देकर चुप नहीं बैठ जाता बल्कि अपना पूरा ज़ोर इस पर लगा देता है कि उसे उसकी जगह से कोई हटा न दे। लोग इसे सत्ता या उसकी प्रतीक कुर्सी से चिपके रहने की जुगत कहते हैं लेकिन असल में ऐसा है नहीं। वह इस सत्ता के जरिये अपनी बनायी योजनाओं पर अमल करने की चेष्टा करता है। भले ही इसके लिए उसे अपनी ही बनायी योजनाओं को भूल जाना पड़े और सारा उद्यम केवल इस बात के लिए करना पड़े कि वो अपनी जगह पर बना रह सके।
इसमें सारा दोष उन लोगों का है जिनके मन में उस नेता को उसकी गद्दी से हटाने का होता है। अगर ऐसी कोई चुनौती सामने न हो तो कम से कम नेता जिसने इतनी महत्वपूर्ण दीर्घकालीन योजनाएं बनायी हैं, अपना पूरा ध्यान उनको अमली जामा पहनाने में कर सकेगा। लेकिन यह कोई पुश्तैनी चाय की दुकान तो है नहीं, एक देश है। एक लिखित लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। इसलिए एक पुश्तैनी उद्यम और इसके बीच चुनौतियों के आकार-प्रकार में बहुत अंतर होता है।
बावजूद इसके एक असली नेता या उद्यमी वही होता है जो सपने देखना और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी सपने दिखलाना न छोड़े। आज की तकलीफ़ों को कल के सुख पर न्यौछावर करवा देने की कला ही ऐसे मामलों में अपरिहार्य है। जिसे यह नहीं आता वह उद्यमी नहीं हो सकता, नेता तो खैर क्या ही होगा।
कल पेश हुए इंडिया इनकॉर्पोरेट के बजट को इसी विशिष्ट तर्क-पद्धति के आधार पर देखना चाहिए अन्यथा इसकी ख्वामखां केवल आलोचना ही करते रह जाएंगे। यह बजट पीछे से चली आ रही परंपरा से अलग है। पहले तो यह बात मन में बैठा लेनी चाहिए। अगर यह बारीक लेकिन बुनियादी बात आप भूल गए तो इसका एसेंस नहीं पकड़ पाइएगा और फिर वही दो कौड़ी की चिंताओं में परेशान रहिएगा। यह बजट एक वित्त वर्ष यानी केवल 2022-23 के लिए नहीं है। उसके लिए तो अभी पिछले सात बजटों का पैसा ही देश के पास पड़ा हुआ है। अगर इस बार भी एक साल की बात होती तो क्या यह महसूस होता कि यह एक विशिष्ट साल है? अक्सर लोग अर्थशास्त्र को इतिहास से पृथक कर के देखते हैं और यहीं वह चूक जाते हैं। यह साल देश की आज़ादी का पचहत्तरवां साल है। इसमें भी कुछ तूफानी न किया तो इतिहास और अर्थशास्त्र के बीच जो नाभि-नाल संबंध है वो हमेशा के लिए विस्मृत कर दिया जाएगा।
एक नेता का दायित्व है कि वह अपने इतिहास को हर समय याद रखे और भविष्य के लिए सपने देखे। हम-आप अपेक्षा करते हैं कि वो आज के लिए कुछ सोचे और करे? हमारी अपेक्षाएं ही जब गलत होंगी तो नेता क्या खाकर उन पर सही उतरेगा? तो इस विशिष्ट वर्ष में बजट के जरिये जो तूफानी किया गया है उसे सत्य के कई पहलुओं की तरह कई लोग वर्तमान से पलायन के तौर पर देख ही सकते हैं लेकिन यह एक मामूली सी उलाहना है जो अक्सर नासमझी की अवस्था में दे दी जाती है। रोज कमाने खाने वाले लोग अक्सर छोटी मोटी परेशानियों से घिरे रहते हैं। तेल महंगा हो गया, राशन महंगा हो गया, आयकर में छूट नहीं मिली वगैरह वगैरह। इसे उनकी कमअक्ली के सिवा क्या ही कहा जा सकता है!
हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस भविष्योन्मुखी दुनिया में अगर कुछ सच है तो वो है अपना भविष्य। अपना भविष्य क्या देश के भविष्य से जुदा है? नेता जब देश के लिए सोचता है तो वो वो हमारे लिए, हमारे भविष्य के लिए भी सोचता है। दो-दो बार एक ऐसे नेता पर बम्पर भरोसा किया है तो क्या यह एक बजट से टूट जाएगा? कदापि नहीं। और हमें नहीं भूलना है कि इस महामानव का हौसला टूटने नहीं देना है। जब हम महंगाई महंगाई कर रहे होंगे तब एक दिन अचानक पता चलेगा कि पाकिस्तान अधिग्रहित कश्मीर हमारे हिंदुस्तान का मुकुट बन चुका होगा। लेकिन उसके लिए रणनीति अलग है। अभी बात बजट से पैदा हुए नैराश्य को दूर करने पर ही केन्द्रित किया जाय।
इस बजट में किसानों और कृषि के लिए कुछ नहीं है। इस तरह के एक वाक्य के जुमले अच्छे नहीं होते। किसानों को क्या इस बात से खुश नहीं हो जाना चाहिए कि वे दिल्ली की सरहदों पर साल भर से ज़्यादा बैठे रहने के बाद एक जीत की भावना से प्रफुल्लित होकर जिंदा लौट पाये अपने-अपने घरों को? क्या इसे भी बजट में लिखा जाना चाहिए था? और फर्ज़ करें कि कृषि के तीन कानून अब भी वजूद में होते तो नेता की मजबूरी न होती उनके लिए कुछ राशि देने की? अपने गुनाह किसी और पर नहीं थोपना चाहिए। आपने तब नहीं समझा तो अब उनकी क्या गलती? अगर ये तीनों कानून अपने काम पर लग गए होते तो जाइए किसी भी गुलाटी से पूछ आइए वो यही कहेगा कि अन्न के भंडार बनाने के लिए सरकार कोरपोरेट्स को बड़ी रकम अनुदान में देने वाली थी या कांट्रैक्ट और कांटैक्ट फार्मिंगके लिए भी सरकार के पास बहुत खजाना था। इसके अलावा बीज, खाद की रियायतें देने के लिए भी क्योंकि तब वह उद्यमियों को सीधे तौर पर जाना था। एक उद्यमी ही दूसरे उद्यमी की मदद कर सकता है। इसे देश के करोड़ों किसान नहीं समझते तो इसमें नेता की क्या गलती है?
सब कुछ अमीरों के लिए है? इस सवाल पर भी ख्वामखां लोग हलकान हुए जा रहे हैं। किसी भी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था ने क्या कभी अमीरों को दंडित किया है? इसमें किसी नेता को उलाहना देने से क्या फायदा है भाई? जिन्हें इतिहास की मामूली सी भी समझ है वे जानते हैं कि यह अमीरों के लिए बाकी निर्धन, भूखे-नंगों के प्रबंधन की व्यवस्था है। उन्हें उग्र नहीं होने देना है। अगर होते हैं तो संविधान की चौहद्दी में रहते हुए उनके क्रोध और गुस्से को लोकतांत्रिक ढंग से मैनेज करना है। इसमें भी कुछ लोग हिंसा, दमन आदि खोज-खोज कर लाने लगते हैं और भूल जाते हैं कि राज्य अपना दायित्व निभा रहा है।
यह बजट इस लिहाज से आलोचना से परे है कि यह कॉर्पोरेट के लिए है। इसे ऐसे देखा जाना चाहिए कि इस नेता ने कॉरपोरेट्स को भी आगामी पच्चीस सालों एक लिए काम पर लगा दिया है। उन्हें इसके लिए 2 प्रतिशत की कर कटौती का लालच दिया गया है, लेकिन अब इतना तो करना ही पड़ता है। संभव है यह कोई चाल हो, बाद में जब उन्हें देश के सारे संसाधन पच्चीस सालों के लिए देखे गए सपने पूरे करने के लिए दे दिये जाएं तो फिर उनसे तीन प्रतिशत ज़्यादा कर भी ले लिया जाए। एक नेता को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
मध्य वर्ग को कुछ हासिल नहीं हुआ? अब इसके लिए दीगर देखना होगा। बजट हर सवाल का जवाब नहीं हो सकता। बजट है भाई, मेनिफेस्टो नहीं है। बीते सात साल से अगर किसी का मन सबसे ज़्यादा प्रफुल्लित रहा है तो वो देश का मध्य वर्ग ही है जिसे हर लिंचिंग से सुख मिला है। जिसे मंदिर निर्माण के लिए खुलते गए रास्ते से आनंद की अनुभूति हुई है। जिसे पूरे दिन व्हाट्सएप से निर्बाध सप्लाई हुई है मन हर्षित करने वाले संदेशों से। विदेशों में बजते डंकों का सबसे ज़्यादा आनंद इसी ने लिया है। इसे बहुत मज़ा मिला है रंग बिरंगी टोपियों और पगड़ियों और भिन्न-भिन्न प्रकार की धज से। यह असल में एक भविष्यजीवी वर्ग रहा है जो विदेश से आल्हादित रहता है। जब इसे लगा कि अब विदेश में कुछ संभावनाएं खुल रही हैं और उसके नेता के नाम से देश का डंका बज रहा है तो ये यहां न आते हुए भी मृदंग बजाते रहा। किसी को अप्रिय न तो बोलने दिया गया और न इसने किसी को सुनने दिया। इसके डीएनए में ऐसे ही किसी डीएनए के जरिये उल्लास का इंजेक्शन दिया गया और ये मस्त मगन बना रहा। अब शिकायत पेटी बंद होने का समय आ गया है तो नाहक बौखला रहा है।
हमारे नेता को अभी हमारे भरोसे और साथ की ज़रूरत है। इस महामानव की केवल एक ही गलती है कि ये दुनिया की काबिलियत को ठीक से भांप नहीं पाया। यह जब आया था तो इसे भरोसा था कि इस बिगड़ती हुई दुनिया को एक गुरू की ज़रूरत है। वह गुरू चूंकि किस्से कहानियों में (जो केवल शाखा में ही सुनी सुनायी जाती हैं) भारत जैसा पुण्य प्रतापी देश अतीत में कभी रहा है, तो उसके पुनरुत्थान की ज़रूरत है। दिन के अठारह-अठारह घंटे (जिनमें साढ़े तीन घंटे कपड़े बदलने में लगने वाले समय को भी जोड़ लें) इसी भगीरथ काम में लगा दिये कि दुनिया को इस वक़्त एक गुरू की ज़रूरत है और उसे भारत को ही बनना होगा। आज अपने कार्यकाल के आठ साल बाद पता चला कि दुनिया इस काबिल नहीं हुई है कि वह अपने लिए एक अदद गुरू की ठीकठाक शिनाख्त कर पाये, उसके शरणागत हो जाए और भवसागर को बिना किसी बाधा के पार कर जाए।
इस बजट में, सोचिए दिल पर कितना भारी बोझ नेता ने रखा होगा और विश्व गुरू बनाने की परियोजना को आगामी पच्चीस साल के लिए मुल्तवी करना पड़ा होगा! वो भी इस वजह से कि दुनिया अभी इसके लायक नहीं हुई है! इस पर तो देश का हर हाथ दुआ में उठ जाना चाहिए कि दुनिया को इतनी अक़ल नसीब हो। आमीन…